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ट्रैक और कोच की खामी बनते हादसे का सबब

एलएचबी नामक नया डिजाइन कोच 1996 से ही उपलब्‍ध है लेकिन बजटीय सीमाओं के कारण इसका उत्पादन बहुत कम हो पाता है। दूसरी ओर कैरिज एवं वैगन मेन्टेंनेंस में प्रशिक्षित स्टाफ की भी कमी से भी होती हैं दुर्घटनाएं
इंदौर पटना एक्सप्रेस की दुर्घटनाग्रस्त बोगियां

झांसी-उरई-कानपुर रेल मार्ग पर 20 नवंबर को हुई रेल दुर्घटना ने सुरक्षा पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। पुखरावां रेलवे स्टेशन के निकट ट्रेन के 14 डिब्‍बों के पटरी से उतरने की वजह से हुए इस हादसे में 143 से अधिक लोगों की जान गई। मुझ जैसे रेल कर्मी के लिए यह काफी दुखद क्षण है क्‍योंकि रेलवे का मुख्‍य लक्ष्य अपने यात्रियों को उनके गंतव्य तक सुरक्षित और सुखद यात्रा कराना है। हर हादसे की तरह इस दुर्घटना के कारणों की जांच होगी। कौन दोषी है इसकी पड़ताल की जाएगी। लेकिन सबसे जरूरी यह है कि जब ऐसे हादसे हों तो इसके तुरंत बाद क्‍या कदम उठाए जाएं और इन्हें रोकने के लिए लंबे समय के लिए क्‍या किया जाए।

झांसी-उरई रेल खंड सिंगल लाइन है। उत्तर प्रदेश व बिहार से मुंबई और दक्षिण की ओर जाने वाली अधिकांश गाडिय़ां यहीं से गुजरती हैं। सिद्धांतत: इसे चार लाइन का होना चाहिए। संभवत: यह एकमात्र सिंगल लाइन है जिसका बिना दोहरीकण किए ही विद्युतीकरण किया गया है। इस लाइन के दोहरीकरण को दस साल पहले मंजूरी दी गई थी। 2011 में कहा गया था कि झांसी-कानपुर लाइन के दोहरीकरण का काम काफी तेजी से चल रहा है। ऐसे में यह जरूरी है कि दोहरे लाइन के शुरुआत की घोषणा तीन महीने के अंदर कर दी जाए।

साल 2000 से लेकर अभी तक के सभी रेल मंत्रियों ने जमीन अधिग्रहण में आने वाली कठिनाइयों के बाद भी रेल लाइनों के दोहरी और चौहरीकरण को पूरा करने का वादा किया है। रेलवे को उच्च प्राथमिकता के आधार पर इस काम को करना चाहिए। दुर्घटना को लेकर कुछ आशंकाएं बिल्कुल साफ हैं और इस दिशा में सुधारात्मक कार्रवाई की जरूरत है। ट्रेन पुखरावा स्टेशन पार कर चुकी थी और इसे ले जा रहा बिजली का इंजन पटरी से नहीं उतरा। इसलिए प्वांइट, सिग्नल या लोको की नाकामी अथवा ट्रेन संचालन में किसी खामी की आशंका बहुत कम है। आशंका घट कर कोच अथवा ट्रैक में खामी पर केंद्रित हो जाती है जैसे पटरियों में दरार होने की आशंका, जिसकी चर्चा मीडिया रिपोर्ट में भी हुई है।

ट्रेन को पटरी से उतारने वाला कोच नया बताया जा रहा है लेकिन इसे पुरानी आईसीएफ तकनीक से निर्मित किया गया था जो पचास के दशक में डिजाइन किया गया था। एलएचबी नामक नया डिजाइन कोच 1996 से उपलब्‍ध है। लेकिन बजटीय सीमाओं के कारण इसका उत्पादन बहुत कम है। यदि यह नया एलएचबी कोच होता तो शायद इस तरह की दुर्घटना नहीं होती क्‍योंकि नए एलएचबी कोच में स्लिप एंड स्लाइड कंट्रोल सिस्टम लगा हुआ है। बेशक प्रशिक्षित स्टाफ की कमी से ऐसे फीचर उपेक्षित न रह जाएं यह सुनिश्चित करने के लिए प्रबंधन के स्तर पर दृढ़ संकल्प की जरूरत है। इसे हासिल करने के लिए कैरिज एंड वैगन मेन्टेंनेंस में प्रशिक्षित स्टाफ को भर्ती करना चाहिए।

सरकारी वेबसाइट पर साल 2011 में यह बताया गया कि ट्रैफिक का दबाव कम करने के लिए झांसी उरई के बीच ईएमयू की जरूरत है। साल 2000 के बाद लगभग हर रेल बजट में ट्रेन जोड़ा लाने की घोषणा की जाती रही है। यह तकनीकी अब तक क्‍यों नहीं अमल में लाई गई यह समझ से परे है। दूसरी बात यह है कि भारतीय रेल के आकर की दुनिया में कोई रेल व्यवस्था यात्रियों को 22-24 कोच की लोकोमोटिव पर यात्रा कराकर झटको व चोटों का जोखिम पैदा नहीं करती। वे सब इलेञ्चिट्रक मल्टीपल यूनिट सिस्टम का उपयोग करते हैं। जो उचित भी है। इसकी तकनीकी हमारे देश में भी उपलब्‍ध है। फिर भी हम टैल्गो जैसी ट्रेनों पर वक्‍त बर्बाद कर रहे है जिसका रख-रखाव भी हमारी व्यवस्था में संभव न हो।

रास्ता तो यही है कि निवेश बढ़ाकर नेटवर्क का विस्तार किया जाए। साल 2015 के श्वेत पत्र के मुताबिक आजादी के बाद से यात्री ट्रैफिक तो 1300 फीसदी और माल ढुलाई 1600 फीसदी बढ़ी पर रेल नेटवर्क सिर्फ 26 फीसदी ही बढ़ पाया। द नेशनल ट्रांसपोर्ट पॉलिसी विजन 2032 के मुताबिक यदि व्यवस्था ठप्प होने से बचना है तो यात्रा व माल ढुलाई के क्षेत्र में तीन हजार फीसदी की वृद्धि जरूरी है। आजादी के समय दोनों क्षेत्रों में रेलवे का योगदान 80 फीसदी था जो अब घटकर 10 और 30 फीसदी रह गया है। काकोडकर समिति ने इस बात की सिफारिश की थी कि राष्ट्र हित में साल 2032 तक रेलवे की  80 फीसदी हिस्सेदारी को फिर से बहाल करना होगा। आजादी के बाद हम रेलवे के नेटवर्क में 57 हजार किलोमीटर से बढक़र 67 हजार किलोमीटर तक बढ़ पाए हैं वहीं चीन इस अवधि में 45 हजार किलोमीटर से बढक़र 1 लाख 21 हजार किलोमीटर का तक पहुंच गया। जिस तरह से हमारे देश में जनसंख्‍या बढ़ रही है हमें भी रेल नेटवर्क के रक्रतार को बढ़ाना होगा।   

निश्चित रूप से हर वर्ष की तरह सावधानियां बरती जाएंगी। फिर भी हालिया घटनाओं के आलोक में इनमें से कुछ खास हैं। किसी भी रेल दुर्घटना की स्थिति में क्‍या किया जाना है इसके बारे में रेलवे कानून के तहत बने नियमों में बाकायदा बताया गया है। नियमों के तहत ट्रेन दुर्घटना के बाद रेलवे अधिकारियों को दुर्घटना स्थल पर पहुंचने के लिए सुबह चार बजे तक रेल शिविर में जमा हो जाना चाहिए था और|बजे तक दुर्घटना स्थल पर पहुंच जाना चाहिए था। यदि ऐसा होता तो शायद कई जिंदगियों को बचाया जा सकता था। देश के संभवत: सबसे सफल रेल मंत्रियों में शुमार माधवराव सिंधिया, जो 1982 से 87 तक रेल मंत्री रहे, ने रेलवे कानून में संशोधन कर रेल मंत्री को भी एक रेल कर्मी का दर्जा दिया था। इस संशोधन में रेल अधिकारियों को काम की छूट देने के अलावा उनकी जिम्‍मेदारियां भी तय की गई थीं। रेल दुर्घटना की स्थिति में सबसे अहम सिद्धांत यह है कि दुर्घटना स्थल पर मौजूद सबसे वरिष्ठ रेल कर्मी उस साइट का इंचार्ज होगा और तब तक दुर्घटना स्थल छोडक़र नहीं जाएगा जब तक उस स्थल से दोबारा रेल यातायात शुरू न हो जाए यानी वहां से पहली ट्रेन सफलतापूर्वक न गुजर जाए।  यदि रेल मंत्री वहां सबसे वरिष्ठ रेल कर्मी होते हैं तो यह नियम उन पर भी लागू होता है बशर्ते उनकी मौजूदगी से राहत कार्य में बाधा न पहुंचे।

रेलवे एक बेहद तकनीकी संगठन है इसलिए यहां कोई भी बदलाव बहुत सोच-विचार कर होना चाहिए। अभी रेलवे बोर्ड के जो अध्यक्ष हैं वो जिस कैडर से आते हैं वहां सिग्नलों की दृश्यता का कोई महत्व नहीं है जबकि ऐसा होना चाहिए। साथ ही इस कैडर के अधिकारी रेलवे संचालन के पहलुओं से संबद्ध नहीं हैं। रेलवे शायद एक सैन्य बल जैसा है और रेल दुर्घटना की स्थिति में यह शायद उससे भी जटिल स्थितियों में काम करता है क्‍योंकि कोई भी रेल दुर्घटना शांति काल में युद्ध जैसी स्थिति होती है। रेल दुर्घटना के समय गोल्डन मिनट्स और घंटे लोगों की जिंदगियां बचाने के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। दुर्भाग्य से मोटर वाहन कानून के तहत रेलवे कर्मी लाल और नीली बत्ती के हकदार नहीं होते। राजपथ पर भले ही रेल कर्मियों को लाल या नीली बत्ती वाले वाहन न मिलें मगर रेल दुर्घटना जैसी आपात स्थिति में सैकड़ों जाने बचाने के लिए तीव्र आवागमन के हेतु उन्हें यह सुविधा तो मुहैया कराई ही जा सकती है। कई रेल दुर्घटनाओं के अपने अनुभव से मैंने पाया है कि दुर्घटना की स्थिति में सहयोगी अंगों मसलन पुलिस और जिला प्रशासन को प्राथमिकता मिलती है जबकि मुख्‍य काम करने वाले राहत और बचाव दल, जिसमें रेलकर्मी शामिल होते हैं उन्हें रोका जाता है। नागरिक प्रशासन निश्चित रूप से मदद का प्रयास करता है और यह भी आश्चर्य जताता है कि आखिर रेलकर्मी लाल या नीली बत्ती का इस्तेमाल क्‍यों नहीं कर रहे जबकि हकीकत यह है कि मोटर वाहन कानून अनुशासित रेल कर्मियों को ऐसा करने से रोक देता है। कई बार नागरिक प्रशासन के अधिकारियों ने मुझसे भी इन बîिायों का इस्तेमाल करने का अनुरोध किया मगर हमारा रुख यही था कि हम अनुशासन नहीं तोड़ सकते। राष्ट्र हित में राष्ट्र को इस आवश्यकता पर विचार करना चाहिए।

(लेखक रेलवे बोर्ड के पूर्व अतिरिक्‍त सदस्य हैं)

 

असुरक्षित होती (रेल) यात्रा

कुमार पंकज

रेल यात्रा करना अब सुरक्षित नहीं रह गया है। दुष्कर्म, लूट और यात्रियों को चलती ट्रेन से फेंकने की बर्बर घटनाएं अक्‍सर होती हैं। कब ट्रेन पटरी से उतर जाए इसको लेकर भी यात्री अब असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। पटना-इंदौर एक्‍सप्रेस दुर्घटना का शिकार होने के बाद विशेषज्ञों का भी मानना है कि अब रेल यात्रा सुरक्षित नहीं रह गई है। कारण साफ है कि रेलवे बोर्ड ने कमाई बढ़ाने के लिए एक दशक पहले मालगाडिय़ों का एक्‍सल लोड बढ़ा दिया। लेकिन इस ओर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया गया कि रेलवे के बुनियादी ढांचे, ट्रैक, वैगन और पुलों की क्‍या स्थिति है। लोक लेखा समिति ने दिसंबर 2011 में संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि रेलवे पैसे और स्टाफ के अभाव में 30,000 वैगनों की समयबद्ध तरीके से मरम्‍मत नहीं कर पा रहा है। 9748 वैगन पूरी तरह से बीमार हैं, जिनको ट्रैक पर उतारना ठीक नहीं है। लेकिन उसके बावजूद रेलवे ने इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं किया। ओवरलोडिंग से रेलवे ट्रैक-पुल कमजोर हो रहे हैं।  कानपुर हादसे में यात्रियों की मौत का कारण बने इंडियन कोच फैक्‍ट्री (आईसीएफ) के परंपरागत कोच को खत्म करने में अभी बीस साल से अधिक समय लगेगा। वहीं इस तरह के कोच की जगह लिंके हॉफमेन बुश (एलएचबी) कोच के निर्माण की रक्रतार इतनी धीमी है कि सभी ट्रेनों में इसे लगाने में कम से कम 15 साल लगेंगे। पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी की अध्यक्षता वाली रेलवे संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने अगस्त 2015 में संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में यात्रियों की सुरक्षा-संरक्षा की उपेक्षा का आरोप लगाया था। समिति ने कहा कि संरक्षा से जुड़ी परियोजनाओं के लिए आवंटित बजट में कटौती की जाती है और बजट को पूरा खर्च नहीं किया जाता है। समिति ने कहा कि बजट में कटौती करने से रेल संरक्षा को मजबूत करने के कार्य पिछड़ गए। रेल संरक्षा संबंधी अनिलकाकोडकर समिति व रेलवे आधुनिकीरण संबंधी सैम पित्रोदा समिति ने अपनी सिफारिशें फरवरी 2014 में दे दी थीं। लेकिन रेलवे बोर्ड के पास इन पर विचार करने का समय नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि रेलकर्मी रेलवे ट्रैक पर ड्यूटी के बजाय अफसरों के घरों पर नौकरी करते हैं। इसमें गैंगमैन, कीमैन, प्वाइंटमैन, स्टेशन स्टाफ के कर्मचारी शामिल हैं। एक तरफ तो रेलवे में अधिकारियों की संख्‍या लगातार बढ़ाई जा रही है, वहीं वर्किंग स्टाफ की लगातार छंटाई की जा रही है। रेलवे में तीसरे और चौथे दर्जे की स्टाफ की कमी है और उन पर ही निरीक्षण का जिम्‍मा है। रेलवे के एक अधिकारी के मुताबिक पहले रेलवे में पटरियों पर कम से कम 24 घंटे में एक बार हर रोज निरीक्षण होता था, लेकिन अब कामगारों की कम संख्‍या और ट्रेनों की अधिकता के कारण रोज निरीक्षण भी नहीं हो पाता। रेलवे के कई रूट पर पटरियां काफी पुरानी हैं, पुरानी पटरियों का ज्यादा ध्यान देना पड़ता है क्‍योंकि खतरे की आशंका इन ट्रैकों पर सर्वाधिक होती है। साथ ही गैंगमैन द्वारा दी जाने वाली रिपोर्टों पर भी अक्‍सर अधिकारी ध्यान नहीं देते, इस कारण से भी घटनाएं होती हैं।

 

रेलवे के पास कोई ठोस नीति नहीं

दिनेश त्रिवेदी, पूर्व रेल मंत्री

भारतीय रेलवे दिवालिया हो गया है। वर्तमान में रेल मंत्रालय का पूरा ध्यान ऑपरेशन के बजाय कॉस्मेटिक बदलावों पर है। राजस्व में भारी गिरावट आई है। इसमें 2015-16 में चार पर्सेंट की बढ़ोतरी हुई। यह पिछले वित्तीय वर्ष के मुकाबले 10-19 फीसदी से काफी कम है। इसकी मुख्‍य वजह आर्थिक मंदी के कारण माल ढुलाई में कमी और यात्रियों की बुकिंग्स में भी मामूली गिरावट होना है। इंदौर-पटना एक्‍सप्रेस की दुर्घटना के बाद जो बहस चल रही है कि इस तरह की घटनाओं को कैसे रोका जाए। इसके लिए साफ तौर पर मेरी राय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश में बुलेट ट्रेन चलाने की घोषणा करते हैं इसके साथ ही यात्रियों की सुविधा बढ़ाने और स्टेशनों पर वाई-फाई का वादा करते हैं लेकिन इस बात की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता कि रेल की पटरी सुरक्षित है या नहीं, हमारे कोच सुरक्षित हैं या नहीं। यह जो दुर्घटना हुई है उसके लिए हम सभी जिम्‍मेवार हैं। रेलवे के लिए एक राष्ट्रीय नीति नहीं है। देश में रेलवे का बेसिक फाउंडेशन चरमरा गया है, रेलवे पर रिपोर्ट तो बहुत बनती है लेकिन कोई भी सांसद या नेता उन्हें पढ़ता नहीं है, अगर ट्रेन में सख्‍त कोच होते तो शायद यह हादसा नहीं होता। समय-समय पर रेल ट्रैक का मुआयना होना चाहिए, लेकिन यह नहीं हो रहा है। रेलवे को केवल राजनीतिक हथियार बना लिया गया है। रेलवे अधिकारियों को पिज्जा और दूध की डिलीवरी करने के लिए ट्विटर पर लगा रखा है। इससे रेलवे का भला होने वाला नहीं है। रेलवे को सुधारने के लिए एक लाख विजन की जरुरत नहीं है सिर्फ तीन बातों पर गौर करना होगा, इसके लिए विजन 2020, सैम पित्रोदा और काकोडकर की रिपोर्ट लागू करने की जरूरत है। अनिल काकोडकर की रिपोर्ट अभी तक सही तरीके से लागू भी नहीं हुई है।

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