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मुक्ति की दस्तक

सुपरिचित कथाकार निर्मला भुराडिय़ा ने अपने उपन्यास गुलाम मंडी में देह व्यापार और किन्नरों की समस्या को प्रभावी ढंग से उठाया है।
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गुलाम मंडी

निर्मला भुराडिय़ा

सामयिक प्रकाशन । मूल्य 395 रुपये

आज पूरे विश्व में मानव देह तस्करी एक भयावह समस्या के रूप में उपस्थित है। हिंदी समाज के लिए यह सुखद है कि उसके लेखक अछूते या कभी-कभार उठाए गए विषयों पर गंभीरता से लिख रहे हैं। निर्मला भुराडिय़ा ने अपने इस महत्वाकांक्षी उपन्यास के लिए पर्याप्त शोध किया है। इस सिलसिले में उन्होंने अमेरिका की यात्रा की और सिएटल की पूर्व सीनेटर और ह्यूमन ट्रेफिकिंग के विरुद्ध लंबे समय से संघर्ष करने वाली मिस जेरालिटा जेरी कोस्टा से मुलाकात भी की। इसके अतिरिक्‍त उन्होंने विश्व की कई संस्थाओं से संपर्क किया। अपनी भूमिका में उन्होंने बताया है कि अमेरिका के शहर डलास में उन्होंने वहां की पुलिस की सहायता से 'स्ट्रिपटीज’ देखा ताकि उनके उपन्यास में यथार्थ का पुट बना रहे। कहने का आशय यह कि कथाकार ने एक ज्वलंत विषय पर लिखने के लिए सिर्फ कल्पना को ही पर्याप्त नहीं माना। उन्होंने इस कृति को प्रतिभा और परिश्रम के रसायन से तैयार किया है।

निर्मला भुराडिय़ा का यह उपन्यास किन्नर समुदाय जैसे उपेक्षित वर्ग की समस्याओं को पूरी सहृदयता के साथ उठाता है। किन्नरों के तरह-तरह के नाम और उनसे जुड़ी कहानियां इस बात का सबूत हैं कि सामाजिक संरचना में उनके लिए न के बराबर स्पेस है। सरकारें इस दिशा में लगातार काम कर रही हैं। किन्नरों को नौकरी आदि दी जा रही है लेकिन यह सब अपर्याप्त और अधूरा है। निर्मला अपने इस उपन्यास में समाज के इस तीसरे वर्ग के दुख-दर्द और संघर्ष को वाणी देती हैं। कल्याणी और जानकी इस उपन्यास की आत्मा हैं। यह उपन्यास रूढिय़ों, जाति-पांति और तरह-तरह के कर्मकांडों पर तीखा प्रहार करता है। इस उपन्यास की कई परते हैं जिसे लेखिका ने बड़ी सावधानी और कुशलता से गढ़ा है। जैसे-जैसे पाठक कथा रस में डूबते हुए आगे बढ़ता है, परतें धीरे-धीरे खुलती चली जाती हैं और इस प्रक्रिया में पाठक का विरेचन भी होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि विरेचन करना किसी कृति का लगभग मानक गुण होता है। वह कृति सफल होती है जो अपने पाठकों का विरेचन करने में सक्षम होती है। इस अर्थ में निर्मला की यह कृति प्रशंसा के योग्य है। अक्‍सर प्रोजेक्‍ट बनाकर लिखे गए उपन्यासों की भाषा शिथिल हो जाती है लेकिन इस उपन्यास के साथ ऐसा नहीं है। इसकी भाषा विषय-वस्तु के साथ न्याय करती है। कहना न होगा, पच्चीस छोटे-छोटे परिच्छेदों में विभाजित यह उपन्यास पाठकों के दिल और दिमाग पर देर तक छाया रहेगा। नए विषयों पर विश्वसनीयता से लिखना और संवेदनशील विषयों पर लिखने का संतुलन इस पुस्तक में है।

 

 

द पीपल्स प्रेसिडेंट

एस एम खान

प्रकाशक: ब्‍लूम्‍सबरी,

मूल्य: 299 रुपये

राष्ट्र को समर्पित व्यक्तितत्व

डॉ. एपीजे अब्‍दुल कलाम साहब के लिए यह कहावत सटीक बैठती है, 'नेकी कर दरिया में डाल।’ वाकई उन्होंने अपने जीवन में हमेशा नेकी की और उसके बदले कभी भी प्रचार और प्रशंसा की उम्‍मीद नहीं रखी। दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्‍दुल कलाम के प्रेस सचिव रहे एस एम खान ने उनके कार्यकाल को काफी नजदीक से देखा। यह डॉ. कलाम ही थे जिन्होंने राष्ट्रपति भवन में होने वाले कार्यफ्मों से उस बड़ी कुर्सी को हटवा दिया था जो कार्यफ्म के दौरान राष्ट्रपति महोदय के लिए होती थी। डॉ. कलाम हर दिन नियम से कुरान और गीता पढ़ते थे। महाभारत में उनका पसंदीदा चरित्र विदुर था क्‍योंकि उसमें अलग करने का साहस और अन्याय के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से लडऩे का हौसला था। ऐसी ही कई अनछुई बातें एस एम खान ने पाठकों के लिए संजोई हैं। लेखक ने डॉ. कलाम के साथ उस अंतिम मुलाकात का जिफ् भी किताब में किया है। इस किताब को बहुत ही खूबसूरती से विभाजित किया गया है। कुल 13 अध्याय में राष्ट्रपति भवन में डॉ. कलाम के शुरुआती दिन, देश में उनके दौरे, साहस की दास्तान और अंतरराष्ट्रीय राजदूतों के साथ उनके सौहार्दपूर्ण संबंधों के साथ ही एक अध्याय दिल को छू लेता है। दरअसल डॉ. कलाम का व्यक्तितत्व उस अध्याय- द पीपल्स प्रेसिडेंट में बहुत खुल और खिल कर बाहर आता है।

 

मेरी प्रिय कहानियां

स्वयं प्रकाश

प्रकाशक : राजपाल एंड संस

मूल्य: 125 रुपये

मन तक पहुंचती कहानियां

इ    न दिनों तकनीक के जरिए साहित्य के नाम पर कुछ भी लिख देने और पढऩे का चलन शुरू हुआ है। उसके चलते कम ही साहित्यकार ऐसे बचे हैं जिन्हें पाठक पढऩा पसंद करते हैं, स्वयं प्रकाश ऐसे ही बहुपठित लेखक हैं। उनकी कहानियां न केवल कथानक और कथ्य की दृष्टि से हमें चौंकाती हैं साथ ही उनके भाषा शिल्प में भी एक अलग किस्म का आकर्षण नजर आता है। संग्रह की कहानियां पहले ही पाठक और आलोचक पसंद कर चुके हैं। ऐसे में इन कहानियों को एक साथ पढऩा सुखद है।

इन कहानियों के कथानक, जीवनस्थितियां और पात्र भले ही अलग हैं लेकिन लगभग सभी में विडंबनाओं और आस-पास पसरती संवेदनशून्यता को अलग-अलग कोणों से लेखक ने कलमबद्ध किया है। 'स्वाद’ कहानी को ही लें, उसका वह पुरुष किरदार जो अपने बॉस के दुव्र्यवहार का विरोध केवल इसलिए नहीं कर पाता है

क्‍योंकि उसके पास रोजी-रोटी का दूसरा कोई विकल्प नहीं है। इसलिए वह अपना तनाव पत्नी पर निकालता है। पत्नी अपनी झुंझलाहट बच्चे को पीटकर निकालती है। बच्चा अपना गुस्सा निकालने के लिए निर्जीव सामान को चुनता है। एक हाईवे और एक पगडंडी के मानवीकरण के जरिए विकास के आतंक से विखंडित होते प्राकृतिक सौंदर्य और क्षीण होती मानवीय संवेदनाओं को लेखक ने बहुत मार्मिकता के साथ इस कहानी में उकेरा है।

शैल माथुर

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