रंगीन जिल्द से शृंगार कर, स्याही की महक लगा कर पुस्तकें तैयार हैं। तीखे-नुकीले किनारों वाले पन्नों जैसी ही कई पुस्तकों की सामग्री है। पाठकों को पता नहीं चलता कि पुस्तक का शृंगार करना, उन्हें सजाना और फिर पाठकों तक पहुंचाना प्रकाशक के लिए बहुत बड़ी चुनौती होता है। उनकी नजर मछली की आंख की तरह अपने प्रिय लेखक, खास प्रकाशक या पसंदीदा विषय पर टिकी होती है। इनमें कई ऐसे होते हैं जो पुस्तकों से दोस्ती नहीं करते लेकिन पुस्तकों के महायज्ञ में अपनी उपस्थिति की समिधा डालने जरूर आते हैं। पाठक-दर्शक की निगाहें टिकती हैं तो बस उन पोस्टरों, बैनरों या होर्डिंग्स पर जो शहर-दर-शहर घोषणा करते हैं कि दिल्ली के प्रगति मैदान में किताबों के कुंभ में जुटने का समय आ पहुंचा है। इस बार छोटे-बड़े सभी प्रकाशकों के लिए नोटबंदी दोहरी चुनौती लेकर आया है। जनवरी में जब प्रकाशकों को किताबें पाठकों तक पहुंचानी है तब ठीक दो महीने पहले नोटबंदी ने कई छोटे-बड़े प्रकाशकों में से किसी का काम रोका तो किसी को परेशानी पैदा की। सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज कहते हैं, 'जब पूरा देश इसकी चपेट में हैं तो प्रकाशन उद्योग इससे अछूता कैसे रह सकता है। कई चैनल से हो कर किताब बनती है। नकद की कमी से कुछ कारीगर गांव चले गए। लेकिन काम तो करना ही है।’ उनका मानना है कि अगर पुस्तक मेले में कार्ड या नकद के अन्य विकल्प न रहे तो किताबों की बिक्री पर निश्चित तौर असर पड़ेगा। इस बार आउटलुक ने प्रकाशकों से ही पड़ताल की कि नोटबंदी से बाजार पर असर और बाजार की मंदी कैसे इतने बड़े पुस्तक मेले को प्रभावित कर सकती है। लेकिन हर घटना को देखने के कई नजरिए होते हैं। चूंकि पुस्तक मेले का आयोजनकर्ता राष्ट्रीय पुस्तक न्यास सरकार से संबद्ध है इसलिए न्यास पर पुस्तक मेले को ठीक से चलाने की दोहरी जिम्मेदारी है। नोटबंदी में कैशलेस करना इतना आसान नहीं है। न्यास के चेयरमैन बलदेव भाई शर्मा कहते हैं, 'नोटबंदी का राष्ट्रीय पुस्तक न्यास पर इसलिए भी फर्क नहीं पड़ा क्योंकि हमारा काम सालभर चलता है और काम करने वालों को बिल के एवज में राशि दी जाती है। ऐसे में सीधे नकद लेने वाले लोगों की संख्या कम है।’ लेकिन वह मानते हैं कि पूरे मेले को कैशलेस करना कठिन है फिर भी न्यास कोशिश कर रहा है कि नकद की जगह ज्यादा से ज्यादा दूसरे तरह के पेमेंट गेटवे हों। डिजिटल पेमेंट की व्यवस्था रखी जाए ताकि कोई भी पाठक नकद न होने की वजह से बिना किताब के निराश न लौटे।
जैसे भुगतान की दुनिया बदल रही है वैसे ही किताबों की दुनिया में भी बहुत तद्ब्रदीली देखने को मिल रही है। ई-बुक को कई लोग कागज की किताबों के लिए चुनौती मान रहे हैं। यदि सभी किताबें ई-बुक स्वरूप में आ जाएं तो क्या होगा। राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी कहते हैं, 'किताब की प्रतिस्पर्धा किताब से ही है। ई-बुक्स अच्छा विकल्प है लेकिन किताब रोचकता, प्रस्तुति और कई बातों से मिल कर बनने वाली प्रक्रिया है। जब कोई भी पक्ष कमजोर होता है तब किताब पिछड़ती या कमजोर होती है। संपादक नाम की संस्था खत्म होने से किताबों को नुकसान हो रहा है न कि ई-बुक्स के आने से। यदि इस कमी को दूर कर लिया जाए तो हिंदी किताबें फिर अपनी गति से दौडऩे लगेंगी।’ लेकिन किताबों का संकट इतनी जल्दी और आसानी से खत्म नहीं होता है। किताबों को हर स्तर पर अपने लिए जूझना पड़ता है। इस बार कई प्रकाशकों की किताबें इंटरनेशनल स्टैंडर्ड बुक नंबर्स (आईएसबीएन) की वजह से पाठकों तक नहीं पहुंच पाएंगी। वाणी प्रकाशन खुद इस संकट से जूझ रहा है। वाणी की अदिति माहेश्वरी कहती हैं, 'वाणी के 50 साल के इतिहास में हम पहली बार देख रहे हैं कि सरकार आईएसबीएन नंबर जारी नहीं कर रही है। यह किसी भी किताब के लिए सबसे जरूरी है और मानव संसाधन मंत्रालय को कई आवेदन और पत्र लिखने के बाद भी इस बारे में कोई सुनवाई नहीं हुई है। पिछले 4 महीने से लगातार इस बारे में कोशिश की जा रही है। मंत्रालय के अधीन राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन की वेबसाइट बनाई गई है लेकिन यहां भी नंबर के लिए लंबी कतार है। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ।’ आईएसबीएन नंबर को लेकर फेडरेशन ने मंत्रालय को पत्र भी लिखा है।
पुस्तकालय की खरीद किताबों की दुनिया का और एक ऐसा पक्ष है जिस पर जानते कम लोग हैं लेकिन बात सभी करना चाहते हैं। लेकिन सभी प्रकाशकों का मानना था कि फिलहाल किताबों को लेकर कोई योजना नहीं है। जब सरकारें किताबें खरीदें तो ही अच्छे पुस्तकालयों की नींव पड़ेगी। महेश भारद्वाज कहते हैं, 'मुख्यधारा के प्रकाशक इसमें नहीं रहते। यह धारणा बन गई हैं। सरकारी खरीद से कोई भी प्रकाशन नहीं चलता।’ अदिति भी इस बात से सहमत है और कहती हैं, 'सरकारी खरीद को भारत में नकारात्मक इसलिए माना जाता है
क्योंकि यहां भ्रष्टाचार है। यूरोप में तो नियम है कि सरकार बड़ी मात्रा में पुस्तकें खरीदती है। अगर सरकार पुस्तकें नहीं खरीदेगी तो किताबें जनमानस तक पहुंचेंगी कैसे।’ हिंदी किताबों के बारे में कहा जाता है कि यहां बेस्ट सेलर नहीं होतीं। लेकिन अदिति कहती हैं, हिंदी की किताबों की उम्र लंबी होती है वे कई मायनों में अंग्रेजी की किताबों से सालों साल समकालीन बनी रहती हैं। बेस्ट सेलर का शिगूफा भले ही अंग्रेजी के प्रकाशकों के पास हो लेकिन इस बार अंग्रेजी प्रकाशकों में उत्साह नदारद है। कुछ प्रकाशक तो मेले में शिरकत भी नहीं कर रहे हैं।
वैसे इस बार पुस्तक मेले का स्वरूप बदलेगा। इस साल कोई भी देश अतिथि नहीं है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास अपने 60 वर्ष पूरे कर रहा है। इस बार मेले में इन्हीं 60 साल की गतिविधियां देखने को मिलेंगी। न्यास ने कितने शीर्षक प्रकाशित किए, किस भाषा में कितने शीर्षक प्रकाशित हुए की जानकारी दी जाएगी। भारत में होने वाले कई मेलों में विश्व पुस्तक मेला सबसे अनूठा और अलहदा होता है। लंदन और फ्रैंकफर्ट के पुस्तक मेले काफी प्रसिद्ध हैं। लेकिन प्रकाशक मानते हैं कि फ्रेंकफर्ट में किताबों की प्रदर्शनी होती है बिक्री नहीं, इससे आम पाठकों को सुविधा नहीं होती। जबकि दिल्ली में आयोजित पुस्तक मेले में अब व्यापार के लिए भी एक विशेष कोना है तो पाठकों के लिए किताब खरीदने की सुविधाएं भी। भारत में पुस्तक मेला बिजनेस टू कंज्यूमर यानी व्यापर से ग्राहक के मॉडल पर चलता है। फ्रांस, पोलैंड के मुकाबले हमारे यहां आने वाली जनता की संख्या भी सबसे ज्यादा होती है। कई मायनों में यह पुस्तक मेला बहुत अनूठा है जो विश्व के अन्य पुस्तक मेले से बहुत अलग है।
किताबें जो देखन पाठक चले
परछाइयों का समय सार
कुसुम अंसल
नींद क्यों रात भर नहीं आती
सूर्यनाथ सिंह
प्रेमचंद कुछ संस्मरण
कमल किशोर गोयनका
मुञ्चितबोध एक मूल्यांकन
संपादन दिनेश कुमार
भारत में शिक्षा चुनौतियां और अपेक्षाएं
गिरिश्वर मिश्र
साहित्यिक पत्रकारिता और विशाल भारत
पूनम सिंह
अंग्रेजी हिंदी नई कविता की प्रवृîिायां
डॉ. राजेंद्र मिश्र
लीक से हटकर
शशि शेखर
सत्ता की नजर
मुकेश भारद्वाज
मौन का संवाद
योगेश मिश्र
(सभी सामयिक प्रकाशन)
गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान
कृष्णा सोबती
अकबर
शाजी जमां
बिखरे बिंब
गिरीश कार्नाड
कोशिश
गुलजार
दिल से मैंने दुनिया देखी
हरिवंश
वह सफर था कि मुकाम था
मैत्रेयी पुष्पा
गंदी बात
क्षितिज
मुझे कुछ कहना है
ख्वाजा अहमद अद्ब्रबास की कहानियां
25 ग्लोबल ब्रांड
प्रकाश बियाणी
बुरा वक्त अच्छे लोग
सुधीर चंद्र
(सभी राजकमल प्रकाशन)
कुछ तो कहिए
गुलजार
फिरदौसी शाहनामा
नासिरा शर्मा
रीतिकाल में फूको विचरण
सुधीश पचौरी
भारत में सामाजिक नीतियां समकालीन परिप्रेक्ष्य
संपा. ज्यां द्रेज, कमल नयन चौबे
भारतीय संविधान
ऑस्टिन ग्रेनविल
चमार की चाय
श्योराज सिंह बेचैन
बॉम्बे मेरी जान
जयंती रंगनाथन
पतनशील पत्नियों के नोट्स
नीलिमा चौहान
दाई
टेकचंद
इश्क की दुकान बंद है
नरेंद्र सैनी
(सभी वाणी प्रकाशन)
देश के अन्य पुस्तक मेले
अब तो पुस्तक मेलों की कमी नहीं रह गई है। कई राज्य के बड़े शहर अपने स्तर पर पुस्तक मेले का आयोजन करते हैं। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले के साथ-साथ कुछ राज्यों के पुस्तक मेले भी काफी प्रसिद्ध हैं। इनमें ये तीन पुस्तक मेले खास हैं।
चेन्नई पुस्तक मेला: चेन्नई यानी तब के मद्रास में पहला पुस्तक मेला 14 दिसंबर से 24 दिसंबर 1977 के बीच हुआ था। तब इसे बुकसेलर्स और पद्ब्रिलशर एसोसिएशन ऑफ साउथ इंडिया ने इसे आयोजित किया था। तब से आज तक यह पुस्तक मेला चल रहा है। धीरे-धीरे इस पुस्तक मेले की ख्याति बढ़ती गई और आज भी यह चल रहा है। अब यह पुस्तक मेला यंग मैन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन के मैदान में होता है।
कोलकाता पुस्तक मेला: कलकत्ता पुस्तक मेला जिसे अब अंतरराष्ट्रीय कोलकाता पुस्तक मेले के नाम से जाना जाता है, सर्दियों के मौसम में कोलकाता में होने वाला सबसे बड़ा उत्सव है। यह पुस्तक मेला खास तौर पर सिर्फ पाठकों के लिए होता है। यहां व्यापार जैसा कुछ नहीं होता। इस पुस्तक मेले में गायकों, गीत लेखकों से लेकर कई कलाकारों का जमावड़ा होता है। यहां लगभग 20 लाख लोग मेले में शिरकत करते हैं।
पटना पुस्तक मेला: बिहार की राजधानी पटना का गांधी मैदान इस पुस्तक मेले का गवाह होता है। लेखकों-पाठकों के बीच यह बहुत ही लोकप्रिय है। हर साल होने वाले इस पुस्तक मेले ने सन 2013 में अपने बीस साल पूरे किए थे। भारत के अलावा यहां कई अन्य देश भी अपनी पुस्तक ले कर पहुंचते हैं।
किताबों के बहाने से बने रिश्ते
किताबें झांकती हैं बंद आलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुजर जाती हैं कंप्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जो कदरें वो सुनाती थीं कि जिनके सल कभी मरते नहीं थे
जो रिश्ते वो सुनाती थी वो सारे उधड़े-उधड़े हैं
कोई सफा पलटता हूं तो इक सिसकी निकलती है
कई लक्रजों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फाज
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
जबां पर जो जायका आता था सफा पलटने का
अब उंगली ञ्चिलक करने से बस एक झपकी गुजरती है
बहुत कुछ तय और खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राद्ब्रता था, कट गया है
कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रेहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जब इसे
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने, गिरने-उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे।
गुलजार