आप पहले कह चुके हैं कि 'सेक्सुअलिटी (काम-वासना) परिवार की स्थिरता के लिए विनाशकारी हो सकती है।’ क्या आप भारतीय परिवारों की बदलती प्रकृति के परिप्रेक्ष्य में इसे समझा सकते हैं? बढ़ती तलाक दरों और व्यभिचार के कारण भारतीय परिवारों की स्थिरता एवं पवित्रता को कैसी चुनौती मिल रही है?
कुछ दशक पहले तक बड़े परिवार के किसी जोड़े में यदि सेक्सुअल अंतरंगता प्रगाढ़ होने लगती थी तो कुछ ऐसे सवाल उठने का खतरा पैदा हो जाता था जैसे जोड़े की बढ़ती प्रगाढ़ता के कारण क्या पति को बेटा होने के अपने दायित्व से मुंह मोडऩा पड़ेगा? बतौर एक भाई भी? जोड़े की बढ़ती प्रगाढ़ता बहू की तुलना में एक पत्नी के तौर पर महिला इस रिश्ते को ज्यादा तरजीह देने लग जाएगी और पति को भी उस परिवार का बेटा होने के दायित्व की तुलना में अपनी तरफ आकर्षित करने और निष्ठावान बनाने के लिए उसे प्रेरित करेगी?
निश्चय ही ये किसी रूप में विकल्प नहीं हैं। हालांकि रिवाज, परंपरा और परिवार के अन्य सदस्यों के हित में शादी के बाद कम से कम शुरुआती दौर में ही सही, पति और पत्नी की भूमिकाओं और संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करना पड़ता है, दोनों को न चाहते हुए भी अपनी भूमिकाएं बदलनी पड़ती हैं। इस प्रकार परिवार के बुजुर्ग सदस्य उस जोड़े में पनप रही अंतरंगता और स्नेह को अपमानित या वर्जित करते हुए खुले में उनकी अभिव्यक्ति को हतोत्साहित करते हैं। उनके बीच किसी तरह की अंतरंगता पनपने को रोकने के प्रयास किए जाते हैं जिस वजह से परिवार के अन्य सदस्यों खासकर पुरुष के माता-पिता को उनसे अलग होना पड़ सकता है। यौवन आसञ्चित के प्रति झुकाव या प्रत्यक्ष शर्मिंदगी का अहसास आभासी रूप से इस बात की गारंटी देते हैं कि जोड़े सार्वजनिक रूप से अपनी कामेच्छा की अभिव्यक्ति नहीं कर सकते और वे शाम तथा रात में कुछ समय के लिए ही अकेले में साथ रह सकते हैं। यदि महिलाओं के गीत अंतरंगता के इन अल्पकालीन एकांत क्षणों में भी कोई संकेत देते हैं तो उनके गीतों में भी यही शिकायत रहती है कि उनकी सास या ननद की नजर उन पर है और वे उन्हें रात में पति से मिलने जाने के लिए रोक रही है।
मौजूदा दौर में जोड़ों के बीच तनाव गायब नहीं हुआ है बल्कि पारिवारिक जीवन के आधार पर पति-पत्नी के संबंध कम से कम शहरी और मध्यमवर्गीय भारत में प्रमुखता के साथ स्थापित होने लगे हैं। हालांकि हमें इस विचारधारा से उपजे तनाव से भी सतर्क रहना चाहिए कि यह जोड़े और बड़े परिवारों पर हावी हो सकता है। मसलन, भारतीय समाज में अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ जहां मध्यवर्ग की मायूसी तेजी से फैल रही है, वहीं वास्तविक अनुभव पाने की तलाश में जोड़े के बीच पनपते तनाव की जगह इस तरह की क्षणभंगुर संस्था लेने लगी हैं।
इस तनाव का पहला स्रोत पुरुष और महिला की एक-दूसरे से संबंध बनाने की असीम इच्छा को मुक्त करना है, ऐसी इच्छाएं जिन पर पुरानी विचारधारा के कारण अंकुश लगाया जाता है, जो जोड़े की तुलना में बड़े परिवार के लिए सांकेतिक महत्व से जुड़ी होती हैं। एक पुरुष या महिला क्या चाहती है, इस शाश्वत सवाल का जवाब अक्सर इसी तरह दिया जाता है, कि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को न सिर्फ यौन सुख देने वाली एक वयस्क महिला के रूप में चाहता है बल्कि एक मां, एक छोटी बेटी और जुड़वां बहन के रूप में भी देखना चाहता है। इसी तरह कोई महिला अपने पति को न सिर्फ यौन सुख देने वाले व्यक्ति के रूप में बल्कि एक पिता, मां, छोटे लडक़े और जुड़वां भाई के रूप में भी देखना चाहती है। पार्टनर से, बड़े परिवार में रहने के बजाय बहुआयामी भूमिकाएं निभाने की मांग करना निश्चित तौर पर जोड़े के मनोवैज्ञानिक जीवन में तनाव का कारण बन सकता है और नतीजतन शादी टूट भी सकती है। आर्थिक रूप से सक्षम कई युवा जोड़े इस रिश्ते की अहमियत बनाए रखने के लिए बड़े समूह यानी परिवार से अलग हो जाने का समाधान तलाशते हैं। यहां खतरा यह रहता है कि जोड़े के बीच रिश्ते में अपरिहार्य उग्रता आ जाती है जिसे, किसी अन्य दिशा में मोडऩे का रास्ता नहीं मिलता और इस प्रकार पार्टनरों तथा उनके बीच अंतरंगता को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है।
कामसूत्र में आपकी व्याख्या के अनुसार, पारंपरिक और पूर्व-पारंपरिक युग की तुलना में
सेक्सुअलिटी हमारी आधुनिक सोच से अलग कैसे है? आप ऐसा क्यों कहते हैं कि पिछली दो सदी से भारत सेक्सुअल वेस्टलैंड (काम-वासना का बंजर) बन गया है? क्या प्राचीन काल में भारत नैतिकता से उन्मुक्त था? आप खासकर विक्टोरिया युग में सेक्सुअलिटी पर इस्लाम और ईसाइयत का कैसा प्रभाव देखते हैं?
सभी उपलद्ब्रध साक्ष्यों के आधार पर देखा जाए तो तीसरी से 12वीं सदी के प्राचीन भारत में कम से कम उच्च वर्गों में सेक्सुअल दमन नगण्य था जैसा कि कामसूत्र के प्रारंभिक पात्रों, संस्कृत की कविताओं और नाटकों से पता चलता है। सेक्सुअलिटी की मांग नैतिकता और धर्म के सामंजस्य पर निर्भर थी लेकिन यह दमन के बजाय आपसी सामंजस्य पर आधारित थी। कामसूत्र की उन्मुक्त काम-वासना की कल्पना में कुछ भी वर्जित नहीं है लेकिन असलियत में यह बहुत कम उन्मुक्त है जहां प्रेमालाप के लिए खुलकर उîोजित मुद्राएं दिखाई गई हैं, जहां यौन कलापों में किसी लिंग की भूमिका न तो दृढ़ है और न ही स्थिर। खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों में नौवीं से 12वीं सदी के बीच उन्मुक्त काम-वासना का चरम दृश्य ही पेश किया गया है।
मध्यवर्ती शताद्ब्रिदयों खासकर पिछले 200 वर्षों के दौरान भारतीय समाज सेक्सुअलिटी के अंधायुग में प्रवेश कर चुका है। इसके लिए कुछ लोग मुस्लिम आफ्मणों और मध्यकाल के मुस्लिम शासन को जिम्मेदार ठहराते हैं जिस दौर में महिलाओं को पूरा शरीर ढंककर रखना पड़ता था और काम-वासना को उच्च सामाजिक वर्ग का प्रतीक माना जाता था। तब तक मध्यकालीन इस्लाम सेक्सुअली दमनकारी संप्रदाय नहीं माना जाता था। कम से कम उच्च वर्गों में यौन सुख को आनंददायी संवेदनशीलता समझा जाता था। दरअसल, कुरान की व्याख्या में कई हदीस सहज यौन संतुष्टि का पुरजोर समर्थन करते हैं। कम से कम पुरुषों के लिए तो यह लाभकारी है।
कुछ लोग इसके लिए ब्रिटिश उपनिवेश शासन के विक्टोरिया प्रभाव को जिम्मेदार मानते हैं, यह शरीर के साथ ईसाइयत के असहज संबंध का भी परिणाम था, कुछ विक्टोरियन कुर्सिर्यों के पायों को भी ढंककर रखते थे क्योंकि वे कुर्सी की 'टांगें’ थीं। इन दोनों संप्रदायों के प्रभाव के मामले में कुछ सत्यता हो सकती है लेकिन कामुकता के निषेध के लिए इससे भी अधिक मौलिक कारक जिम्मेदार थे जो हिंदू संस्कृति में ही देखे गऐ हैं हिंदूवाद की संयमी परंपरा ही कामसूत्र की विरासत के लिए असल बाधक रही है। कामुकता बनाम वैराग्य तर्कशास्त्र का दोगलापन हमेशा से हिंदू संस्कृति का हिस्सा रहा है। इतिहास की खास अवधि में इनमें से कोई न कोई हावी रहा है, हालांकि दूसरा तर्क कभी खत्म भी नहीं हो पाया। कामसूत्र की रचना उसी दौर में हुई थी जिस दौर में संयमित आचरण के लिए उपवास रखने संबंधी पुस्तकें और आध्यात्मिक प्रगति के लिए ब्रह्मचर्य के गुणों की प्रशंसा में कई पुस्तकें लिखी गईं। प्राचीन रोमन की तरह प्राचीन भारतीय शायद ही आनंद की खोज के इतने पक्के रहे हैं। पिछली दो शताद्ब्रदी से भारत सेक्सुअल वेस्टलैंड रहा है जिसका कारण उच्च वर्गों द्वारा अपनाई गई ब्रिटिश नम्रता और हमारे अंदर गहरे तक पैठ कर चुका ब्राह्मणवादी संयम रहा है।
आपके मुताबिक सेक्सुअलिटी और आध्यात्मिकता के बीच अंतरंग संबंध क्या है? क्या आपको लगता है कि हम अपनी काम ऊर्जा को परिशुद्ध कर सकते हैं और ब्रह्मचर्य का इस्तेमाल परिवर्तनकारी साधन के रूप में कर सकते हैं? यदि ब्रह्मचर्य हमारे धर्म का मूलमंत्र है तो आधुनिक युग के कुछ बाबाओं-संतों द्वारा यौन हिंसा के कृत्य को आप कैसे देखते हैं?
आध्यात्मिकता और काम-वासना का परस्पर संबंध इन्हीं दोनों में निहित है, सही मायने में ये मनुष्य की मौलिक प्रेम भावना के दो रूप हैं। एक में दैवी शञ्चित के लिए प्रेम है तो दूसरे में अन्य मानव के प्रति प्रेम। दोनों व्यक्तिगत सीमाओं की श्रेष्ठता को दर्शाते हैं जिसमें आत्म-केंद्रित होने की सीमा से बाहर निकल कर किसी चीज या किसी व्यक्ति के साथ जुडऩे की भावना रहती है। जहां तक हृदय पिघलने की बात है तो हिंदू सिद्धांत का लोकप्रिय स्वरूप है (जिसे गांधीजी भी अपनाते थे) शारीरिक ताकत और मानसिक शञ्चित का स्रोत वीर्य में ही निहित होना। यह शद्ब्रद यौन ऊर्जा और बीजाणु दोनों के लिए इस्तेमाल होता है। यौन क्रिया के दौरान वीर्य या तो बाहर निकल जाता है या ब्रह्मचर्य पालन के दौरान यह रीढ़ की हड्डी के जरिए शरीर के ऊपरी हिस्से यानी मस्तिष्क तक पहुंच जाता है और सूक्ष्म रूप में यह ओजस बन जाता है। ओजस याददाश्त बढ़ाने, वैज्ञानिक एवं कलात्मक रूप में इच्छाशञ्चित और प्रेरणा बढ़ाने के अलावा आध्यात्मिक जीवन का एक स्रोत बन जाता है।
क्या ब्रह्मचर्य से सक्रिय ऊर्जावान व्यक्ति, मूल चिंतक और साहसिक सुधारक बनने में मदद मिलती है?
जहां तक हम मनुष्यों की बात है तो इसे लेकर मुझे संदेह है। मैं कुछ असाधारण व्यक्तियों के सफल परिवर्तन की संभावना को स्वीकार कर सकता हूं। जिन कई संतों और बाबाओं ने अपने ब्रह्मचर्य से काम-वासना को अलग कर दिया है। उन्हें लगता है, समय के लिए या जवानी के बाद के दौर में तो वह इसका परित्याग कर ही देंगे जब उनकी अधिक उम्र हो जाएगी और उनकी मनोस्थिति कमजोर पड़ जाएगी। एक परिपम्, युवा फैशन का पूर्ण अनुभव कभी नहीं देने वाले इस संयमित दौर को वे जीवंत नहीं मानते और इसे किसी एक या अन्य यौन विकृति के रूप में देखते हैं।
क्या यह विडंबना नहीं है कि आजकल के भारतीय, सेक्स और अति पाखंड को लेकर बहुत संवेदनशील माने जाते हैं, जबकि हमारे देवता बहुविवाह और समलैंगिक माने जाते हैं तथा हमारे मंदिरों की स्थापत्य कलाएं यौन क्रियाओं का स्पष्ट वर्णन करती हैं?
हां, यह विडंबना ही है कि हमारे पूर्वज, खासकर जिस पारंपरिक काल में हमें उन पर गर्व है, न सिर्फ जानते थे बल्कि मानते भी थे कि इच्छा मनुष्य और सभी प्राणियों की एक प्रमुख शञ्चित है। मसलन, छठी शताद्ब्रदी के वृहद संहिता में कहा गया है: 'ब्राह्मण से लेकर छोटे-छोटे जीवों तक समूचा ब्रह्मांड पुरुषों और स्त्रियों के संयोग पर ही आधारित है। फिर हमें इसे लेकर क्यों शरमाना चाहिए, यहां तक कि भगवान शिव भी एक कुंवारी कन्या को देखने की लालसा में चार चेहरे अपनाने को बाध्य हुए थे।’ मैं समझता हूं कि हमें प्रकृति और इच्छा शञ्चित के गहरे ज्ञान जैसी सभ्यता अपनाने पर गर्व करना चाहिए। इसमें हम इतनी गहराई तक जा चुके हैं कि हमें आनंद या परम सुख का अच्छी तरह ज्ञान हो गया है।
सेक्सुअलिटी के प्रति महिलाओं की प्रवृत्ति बदल चुकी है, क्या यह सब नई आर्थिक आजादी और उनके कामकाजी होने से हुआ है? या महिलाओं की सेक्सुअलिटी उनके प्रजनन कौशल से बहुत हद तक जुड़ी है?
प्रवृत्तियों में बदलाव ने हमारे गहन चिंतन को स्पर्श किया है, राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक दायरे में आए बदलाव की तुलना में हमारे शरीर, हमारे लिंग और व्यक्तिगत पहचान, हमारे परिवार बहुत धीमी गति से बदले हैं। शहरी मध्यवर्गीय भारत की महिलाएं अब सजग रहने लगी हैं कि उन्हें अपनी यौन इच्छाओं पर काबू पाने या इससे शरमाने की कोई जरूरत नहीं है। उनका शरीर सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन नहीं है बल्कि अपनी इच्छाओं का आनंद उठाने के लिए भी है। एक मित्र का कहना था कि महिलाओं की छवि में स्तन का महत्व सिर्फ मातृत्व प्रदर्शित करने के लिए नहीं बल्कि यौन आकर्षण के लिए भी है। महिलाएं अपनी इच्छाओं को कैसे देखती हैं, इसे समझने में पुरुष को और समय लगेगा और वे इसे स्वीकार करेंगे क्योंकि इसकी गहरी चोट उन्हीं को लगने वाली है जो उन्होंने पुरुष होने के नाते महिलाओं पर सांस्कृतिक बाध्यताएं थोपी हैं।