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पालनहार मानें, तभी कानून का लाभ

उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा, मणिपुर विधानसभा चुनाव से पहले सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले पर नई बहस शुरू हो गई। कोर्ट ने चुनाव प्रचार में धर्म, जाति, संपद्राय के आधार पर उत्तेजक बातें उठाए जाने को अवैध करार दिया।
आलोक मेहता

इस फैसले का एक वर्ग में स्वागत भी हुआ और वहीं अव्यावहारिक बताते हुए आलोचना भी हुई। तर्क दिया गया कि 1952 से 2016 तक हुए चुनावों में ऐसे राजनीतिक दलों ने हिस्सा लिया है, जिनकी पहचान धर्म विशेष से जुड़ी है या पिछड़ी-अनुसूचित जाति या ऊंची जातियों के अधिकारों की बात करने पर कैसे अंकुश लग सकता है? निश्चित रूप से इस तरह के मुद्दे उठने पर निर्वाचन आयोग विभिन्न पक्षों को सुनकर नए नियमों का प्रावधान कर सकता है, ताकि दोषी माने जाने वाले उम्‍मीदवारों पर कार्रवाई हो सके। लेकिन मजेदार बात यह है कि धार्मिक आस्था को सांप्रदायिक रूप दिए जाने पर पहले से नियम-कानून एवं सुप्रीम कोर्ट के निर्णय हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने 11 मार्च, 1994 के एक सर्वसम्‍मत फैसले में राजनीतिज्ञों और सत्ताधारियों द्वारा धार्मिक या सांप्रदायिक भावनाएं उभारने को अनुचित करार दिया था। इसी मामले में न्यायमूर्ति बी.पी. जीवन रेड्डी ने लिखा था- 'यदि संविधान राज्य को विचार और क्रियाकलाप में धर्मनिरपेक्ष होने के लिए बाध्य करता है, तो यही बात राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है। धर्म को राजनीति से जोडऩा एक प्रकार से राजनीति में नाजायज एवं अमान्य तत्व की घुसपैठ के समान है और इससे पूरे संवैधानिक ढांचे में गड़बड़ी पैदा हो सकती है। यदि कोई पार्टी अथवा संगठन मौखिक रूप से या लिखित रूप में अथवा किसी अन्य तरीके से ऐसा कार्य करता है या उनको प्रोत्साहन देता है, जिससे धर्म का राजनीतिक प्रभाव हो, तो उसे असंवैधानिकता के अपराध का भागी माना जाएगा। ऐसे संगठनों को राजनीतिक दल के रूप में कार्य करने का अधिकार नहीं होगा।’

इसी संदर्भ में 1994 में ही दूसरे न्यायमूर्ति के. रामास्वामी ने अपनी न्यायिक टिप्पणी में लिखा- 'राजनीति में धर्म का प्रवेश कराना केवल संवैधानिक आज्ञा की अवहेलना नहीं अपितु संविधान की प्रतिबद्धता एवं उसकी जिम्‍मेदारियों का तिरस्कार है। इससे जन प्रतिनिधित्व कानून की भी अवहेलना होती है। यदि कोई राजनीतिक दल- धर्म या जाति को आधार बनाकर या उसका नाम लेकर सत्ता प्राप्त करना चाहता है, तो इसका स्पष्ट अर्थ यह होगा कि वह पार्टी समाज में धर्म और जाति के नाम पर फूट पैदा करती है। यदि कोई राजनीतिक दल अथवा उसकी सरकार धर्म पर आधारित कार्यक्रम अथवा नीति को बढ़ावा देती है, तो इसे संविधान और कानून का उल्लंघन माना जाएगा।’

बहरहाल, पिछले 20 वर्षों के दौरान घोषणा पत्रों अथवा उत्तेजक भाषणों से मतदाताओं को प्रभावित करने के प्रयास होते रहे हैं। कुछ राजनीतिक दल एक-दूसरे पर सांप्रदायिक भावनाएं भडक़ाने अथवा वर्ग विशेष के तुष्टीकरण की राजनीति करने के आरोप लगाते रहे हैं। चुनाव ही नहीं राजनीतिक संगठनों में जातीय एवं धार्मिक आस्था के आधार पर कार्यकारिणी के सदस्य तथा पदाधिकारी नियुक्‍त किए जाते हैं। पूरे पांच साल जाति-धर्म से जुड़े संगठनों एवं उनके नेताओं की गतिविधियों में नेता शामिल होते हैं। चुनाव के अधिकांश उम्‍मीदवार जातीय आधार पर तय होते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आजादी के 70 साल बाद भी सामाजिक समानता की आदर्श स्थिति नहीं बन पाई है। आर्थिक विकास की दौड़ में कई जातियों-उप जातियों अथवा धर्मावलंबियों की हालत बदतर है। वे अपने अधिकारों एवं हितों के लिए निरंतर आवाज उठा रहे हैं। कांगे्रस और समाजवादी पूष्ठभूमि से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह के सत्ता काल में जातिगत आधार पर आरक्षण का निर्णय लागू होने से प्रदेशों में नए दल और नेता उभरे। लेकिन उन्होंने अपने स्वार्थों पर अधिक ध्यान दिया। गरीब और अर्द्ध शिक्षित मतदाताओं को समय-समय पर बरगलाया या भडक़ाया जाता रहा। भेदभाव और कटुता कम होने के बजाय बढ़ती गई। इसलिए असली मुद्दा यह है कि कानून के पालनहार कहलाने वाले स्वयं नियम-कानून और संवैधानिक प्रावधानों से हटकर सत्ता या प्रतिपक्ष की राजनीति गर्माते रहे हैं। पराकाष्ठा यह हो रही है कि अल्पसंख्‍यक समाज के नेताओं ने धर्म के साथ वहां भी जातीय पृष्ठभूमि को उछालने का अभियान चलाया। उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों में इस प्रवृत्ति पर अब तक कोई अंकुश नहीं लगा है।

ध्यान देने की बात यह भी है कि वर्षों तक बहस और नियमों के बावजूद चुनावों में निर्धारित सीमा से कई गुना अधिक धनराशि खर्च हो रही है। छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियों ने दो-चार-पांच सौ करोड़ इकट्ठा कर रखे हैं और चुनावों में अंधाधुंध खर्च हो रहा है। आधिकारिक रूप से खर्च नियमानुसार दिखाया जाता है और आरोपों-शिकायतों की सुनवाई बरसों तक चलती रहती है। यदा-कदा उम्‍मीदवार अयोग्य घोषित होते हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि के मामलों में भी किसी ऊंची अदालत में विचाराधीन के तर्क पर दबंग अपराधी चुनाव लड़ते और जीत जाते हैं। न्याय के मंदिरों में नियम-कानूनों की व्याख्‍या अथवा महत्वपूर्ण फैसले हो सकते हैं। लेकिन जब तक राजनीतिक दल और उनसे जुड़े संगठन या निर्दलीय उम्‍मीदवार ही आचार संहिता नहीं अपनाएंगे, तो कानून-फैसले कागज तक सीमित रहेंगे।

 

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