फणि मजूमदार ने अपनी निर्देशित फिल्म हम भी इंसान हैं (1948) में एच.पी. दास और मन्ना डे की जोड़ी को फिर अवसर दिया। फिल्म जान पहचान (1950) में खेमचंद प्रकाश के साथ मन्ना डे का भी संगीत था। पर इस फिल्म के गीतों की लोकप्रियता का श्रेय खेमचंद प्रकाश के हिस्से गया। खेमचंद प्रकाश के साथ जयंत देसाई की मशहूर फिल्म श्री गणेश जन्म (1951) में भी मन्ना डे का संगीत था। 'जय गणपति विजय हमारी हो’ (सुलोचना कदम, साथी), 'आया है मंगल त्योहार’ (मन्ना डे, सुलोचना कदम, साथी), 'जय दुर्गे जगदंबे’ (सुलोचना, गीत, साथी) जैसे स्तुति गीत काफी सराहे गए थे। भले ही आज ये सुनाई भी न पड़ते हों। वैसे मन्ना डे का संगीत चमका जे.के. नंदा द्वारा निर्देशित चमकी (1952) में। मुकेश के स्वर में 'कैसे जालिम से पड़ गया पाला रे’ में मन्ना दा ने मुकेश से इस प्रकार का हलका-फुल्का गीत न सिर्फ बेहतरीन तरीके से गवाया है, बल्कि साथ में तबले की संगत भी खूब दिलाई है। 'नहीं मालूम क्यों पिया जब से मिले तुम’ (लता) में एक लुभावनी-सी रूमानियत थी। 'ओ बावालू अरे ओ बावालू’ (लता) में विदेशी बीट्स की अदा, 'मैं तो जंगल की चंचल हिरनिया’ में गीता के स्वर की सारी अठखेलियां तो 'प्यार को मत कहो कोई प्यार’ में लता के स्वर का सारा दर्द विद्यमान था। बॉम्बे टॉकीज की तमाशा (1952) में खेमचंद प्रकाश की मृत्यु के बाद संगीत का काम मन्ना डे और एस.के. पाल ने ही पूरा किया। मन्ना डे के संगीतबद्ध 'खाली पीली काहे को अक्खा दिन’ (किशोर), 'भूल सके न हम तुम्हें’ (लता), 'मेरे छोटे से दिल को’ (लता) और 'रात काहे मीठा-मीठा’ (गीता) गीत उस जमाने में लोकप्रिय भी रहे थे। रवीन्द्रदवे निर्देशित गीता बाली अभिनीत नैना (1953) में गुलाम मुहम्मद के संगीतबद्ध यदि तीन गीत थे तो मन्ना डे के संगीतबद्ध चार। 'जग कहता है मैं हूं अंधी’ (लता), 'जिया चाहे करूं तोसे प्यार’ (लता), 'मेरी जिंदगी एक ऐसा दीया’ (आशा) और 'भूल गई सुध-बुध’ (आशा, आशिमा बनर्जी) जैसे गीत भले ही न चले हों पर मन्ना डे ने इन गीतों में मधुरता भरी थी।
संगीतकार के रूप में मन्ना डे के गीतों की लोकप्रियता सीमित ही रही। चाहे शुक रंभा (1953) के आशा और गीता के गाए गीत हों या महापूजा (1954) में अविनाश व्यास और शंकर राव व्यास के साथ किया गया काम, 'हंसा रे ओ हंसा करके प्रीत पछताना क्या’ जैसा मार्मिक गीत। जय महादेव (1955) का 'चली-चली प्रेमपंथ की कामिनी’ (आशा, मन्ना डे) जैसा सुंदर सरस गीत, गौरी पूजा (1956) का पूरबी शैली का 'पनघट पे जाऊं’ (आशा) जैसा लोक आधारित गीत या फिर नाग चंपा (1958) के 'छोड़ अटरिया गए सांवरिया’ 'ओ नैनों में गोरी किसे बसा लिया’, 'रुक जाओ गरमा भइया’, 'बोलो-बोलो नाग देवता’ जैसे लता के मेलोडी प्रधान गीत हों, ये गीत कभी भी लोकप्रियता की ऊंचाई नहीं पा सके। बांग्ला में तो कई गैर फिल्मी गीतों के अलावा राम धाका और बाबू मोशाय जैसी फिल्मों का उनका संगीत खूब लोकप्रिय रहा पर हिंदी फिल्मों में वह गायन तक ही सीमित रहे।
मन्ना डे ने अपने गाए और संगीतबद्ध किए 'दर्द उठा फिर हलके-हलके’, 'मेरी भी एक मुमताज थी’, बेहद आधुनिक और संवेदनशील 'ये आवारा रातें’, 'पल भर की पहचान आपसे’, 'बिंदिया जाने कहां खोई’, 'बिरही नैना जोगी भए’ जैसे गैर फिल्मी गीतों को भी कंपोजीशन से यादगार बना दिया है। मधुकर राजस्थानी के लिखे प्रसिद्ध गीत 'नथनी से टूटा मोती रे’ में आवाज के साथ धुन भी बनाई थी। हिंदी फिल्मों में तो फिर वर्षों बाद आठवें दशक में ही मल्लिका साराभाई अभिनीत और प्रभात मुखर्जी निर्देशित सोनल (1973) में योगेश के लिखे गीतों को संगीतबद्ध करने का अवसर फिर मन्ना दा को मिला और इस बार जमाने के हिसाब से काफी आधुनिक संगीत लेकर वह आए। सलिल चौधरी की शैली जैसी 'ये महका मौसम’ (लता) की लय और थिरकन आकर्षक थी, वहीं 'हलका-हलका छलका-छलका’ (लता) में आधुनिक दिलकश शैली के साथ गिटार के कॉर्ड्स का अच्छा उपयोग था। सलिल की शैली का ही प्रभाव 'साथी अलबेले कब से हैं अकेले’ (मन्ना डे, उषा मंगेशकर) की रवानगी और 'दीवानगी ये प्यार की’ (मन्ना डे, उषा) की प्रयोगात्मकता में भी अभिव्यक्त होता है।
कंपोजर के रूप में मन्ना डे किसी खास शैली के नहीं थे। उनका संगीत दृश्य और कथानक के संदर्भ को साथ लेकर चलता था। ढेर सारी धार्मिक फिल्मों में जहां उनके संगीत में पारंपरिकता का पुट था, वहीं अपने द्वारा कंपोज कई गैर फिल्मी गीतों और सोनल जैसी आधुनिक फिल्म में आधुनिकता के बीच मेलोडी को स्थापित करने में उन्होंने सफलता प्राप्त की।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं।)