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सहकारी बैंकों पर घोटालों की आंच

नोटबंदी के बाद 285 से ज्यादा सहकारी बैंकों पर है प्रवर्तन निदेशालय की नजर, खातों में जमा राशि की आयकर विभाग भी कर रहा है जांच
cooprative

नोटबंदी के फैसले के बाद देश के जिला सहकारी बैंकों में सिर्फ पांच दिनों के अंदर 9,000 करोड़ रुपये से अधिक की रकम जमा हो गई थी। यह पैसा देश के 17 राज्यों की अलग-अलग शाखाओं में जमा हुआ। हैरानी की बात तो यह है कि नोटबंदी के फैसले से पहले ज्यादातर सहकारी बैंक घाटे में जा रहे थे। लेकिन अचानक सहकारी बैंकों में पैसा आने से रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भी चौकन्ना हो गया। रिजर्व बैंक ने तुरंत ही सहकारी बैंकों में 500 और 1000 रुपये के नोट जमा करने पर पाबंदी लगा दी। लेकिन जब तक पाबंदी लगती तब तक काला धन सफेद किया जा चुका था। गुजरात के राजकोट जिले के सहकारी बैंक में काले धन के ट्रांजेक्‍शन का मामला सामने आया है। आयकर विभाग की जांच में खुलासा हुआ है कि 8 नवंबर यानी नोटबंदी के एलान के बाद सहकारी बैंक में 4500 अकाउंट्स खोले गए। इतना ही नहीं, इन सभी अकाउंट्स में 871 करोड़ रुपये जमा किए गए। जांच में पाया गया कि सभी अकाउंट्स में 500 और 1000 के पुराने नोट जमा किए गए हैं। यह तो महज एक बैंक का मामला है।

केरल जैसे राज्य में खेती भले ही नाम मात्र की रह गई हो लेकिन नोटबंदी के पांच दिनों के अंदर वहां के सहकारी बैंकों में 1800 करोड़ रुपये की रकम जमा हो गई। पंजाब में भी 20 से ज्यादा सहकारी बैंकों में 1268 करोड़ रुपये जमा हुए। वहीं महाराष्ट्र में 1128  करोड़ रुपये जमा हो गए। यह उन राज्यों की स्थिति है जहां किसान बदहाली का जीवन जी रहा है और कहने को वहां के सहकारी बैंकों में अचानक तेजी से इतनी रकम जमा हुई कि प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों को इन बैंकों को पत्र भेजकर जवाब मांगना पड़ रहा है कि आखिरकार इतनी बड़ी रकम कहां से आ गई। निदेशालय के एक अधिकारी के मुताबिक सहकारी बैंकों से यह पूछा गया है कि बंद पड़े खातों में अचानक बड़ी रकम कहां से आ गई। इसके साथ ही यह भी पूछा जा रहा है कि जिसके नाम पर खाता है क्‍या पैसे उसी ने जमा कराए हैं। दरअसल कुछ सहकारी बैंकों ने रिजर्व बैंक को अपने यहां जमा हुए रकम की जानकारी दी। रिजर्व बैंक को जब शक हुआ तो उसने जांच की। जांच में पाया गया कि कुछ सहकारी बैंकों ने जितनी रकम जमा दिखायी है असल में उनके पास उससे कम नकदी है। जबकि कुछ बैंकों पर जो कर्ज था वो उन्होंने पुराने नोट में चुका दिया। सहकारी बैंकों की इस तरह की हेराफेरी से रिजर्व बैंक को जब शक हुआ तब उसने जांच के आदेश दिए। फिलहाल कई सहकारी बैंक जांच के दायरे में हैं। जिन सहकारी बैंकों के बारे में प्रारंभिक सूचनाएं मिलीं उनमें मुंबई में श्यामराव वि_ल कोऑपरेटिव बैंक ने रिजर्व बैंक को 1450 करोड़ रुपये जमा कराए लेकिन जब जांच हुई तो तीन सौ करोड़ से ज्यादा की रकम कम मिली। इसी तरह से मालवा ग्रामीण बैंक ने स्टेट बैंक ऑफ पटियाला में पंजाब की विभिन्न शाखाओं से 130 करोड़ रुपये पुराने नोट में जमा कराए। इसी तरह सूरत में एञ्चिसस बैंक के खाते में सूरत कोऑपरेटिव सोसायटी ने 350 करोड़ रुपये पुराने नोट में जमा करा दिए। प्रवर्तन निदेशालय के एक अधिकारी के मुताबिक देश भर के 285 जिला सहकारी कोऑपरेटिव बैंक जांच के दायरे में हैं। इतना ही नहीं आयकर विभाग को यह भी जानकारी मिली है कि नोटबंदी के बाद अचानक सहकारी बैंकों में नए खाताधारकों की लंबी सूची तैयार हो गई। बंद पड़े खातों में भी बड़ी रकम जमा की गई और बाद में आरटीजीएस से निकाल लिया गया या फिर ट्रांसफर कर दिया गया। विशेषज्ञ भी इस बात को मानते हैं कि सहकारी बैंकों का ज्यादातर इस्तेमाल राजनीतिक दल काले धन को सफेद करने के लिए करते हैं।

अगर उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहां के सहकारी बैंकों में घोटालों का इतिहास रहा है। नौकरशाही और सियासी लोगों के बीच सहकारी बैंकों का दुरुपयोग किया जाता रहा है। उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम्‍य विकास बैंक में करोड़ों के हुए घोटालों की जांच आज भी चल रही है। वहीं नोटबंदी के बाद भी यह बैंक जांच के दायरे में है। उत्तर प्रदेश सहकारी बैंक की प्रदेश भर में कुल 29 शाखाएं, 17 क्षेत्रीय कार्यालय और 37 पे-ऑफिस हैं। इसी तरह से जिला स्तर पर बैंकों की संख्‍या 50, 1340 शाखा और न्याय पंचायत स्तर पर 7479 सहकारी कृषि समितियां हैं जिसके जरिए लेन-देन का काम होता है। नोटबंदी के बाद ज्यादातर सहकारी समितियों में अचानक रकम जमा करने की होड़ सी लग गई। इनमें  फतेहपुर जिला सहकारी बैंक, जौनपुर जिला सहकारी बैंक पर तो पहले से ही घोटालों के आरोप लगते रहे हैं जिनकी जांच चल रही थी और नोटबंदी के बाद अब जांच का दायरा और बढ़ा दिया गया है। दरअसल उत्तर प्रदेश में ज्यादातर सहकारी बैंकों पर वर्तमान में समाजवादी पार्टी के समर्थकों का कब्‍जा है। प्रदेश के सहकारिता मंत्री रहते हुए शिवपाल यादव ने अपने लोगों को सहकारी बैंकों में बिठा दिया। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ के एक अधिकारी के मुताबिक अब सहकारी समितियों पर सियासी दलों का कब्‍जा हो गया है। जिस राज्य में जिसकी सरकार है उस राज्य में सत्ता से जुड़े लोगों का सहकारी बैंकों पर कब्‍जा है। नोटबंदी के फैसले के बाद सहकारी समितियों से जो बड़ी रकम बरामद की गई है उसमें राजनीतिक दलों के लोगों का धन ज्यादा है। आयकर विभाग उन खातों की जांच कर रहा है जिनमें अचानक बड़ी रकम आ गई। छत्तीसगढ़ में सहकारी बैंकों में जमा हुए कालेधन की जांच जोर-शोर से जारी है। राज्य के लगभग दो दर्जन सहकारी बैंक जांच के दायरे में हैं।

दूसरी ओर नोटबंदी के फैसले का असर उन किसानों पर दिख रहा है जिनके खाते सहकारी बैंकों में हैं, और वहां नकदी की समस्या बरकरार है। क्‍योंकि राष्ट्रीयकृत बैंकों की अपनी चेस्ट शाखाएं होती हैं, जहां रिजर्व बैंक कैश भेज देता है लेकिन सहकारी बैकों की अपनी कोई चेस्ट शाखा नहीं होती। सहकारी बैंकों का राष्ट्रीयकृत बैंकों में ही करेंट अकाउंट होता है। इसी अकांउट के माध्यम से सहकारी बैंक लेन-देन करते हैं। नोटबंदी के बाद सहकारी बैंकों में नकदी की समस्या से किसानों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश में कई चीनी मिलों ने गन्ना भुगतान की एडवायजरी जारी कर दी है लेकिन सहकारी बैंकों में नकदी नहीं होने से किसानों को भुगतान मिलने में दिक्‍कत हो रही है। 

सहकारिता की बुनियाद अंग्रेजों ने 1904 में इस उद्देश्य से रखी थी कि किसानों को प्रगति की राह पर लाया जाए। लेकिन भ्रष्टाचारियों और बिचौलियों के कारण सहकारी बैंक किसानों की तकदीर से नहीं जुड़ सके। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, बिहार आदि राज्यों में भी सहकारी समितियों का कमोबेश ऐसा ही हाल है। नाबार्ड के पूर्व प्रबंध निदेशक के.जी. कर्माकर के मुताबिक पिछले कई सालों से सहकारी बैंक के खातों का प्रयोग राजनीतिक दलों द्वारा किया जाता है। कर्माकर के मुताबिक पार्टियां किसानों के नाम पर खाता खोलती हैं और काले धन को सफेद करने के लिए इस्तेमाल करती हैं। सहकारी समितियों को लेकर केंद्र या राज्य सरकार भी कभी गंभीर नहीं रही। समितियां बन गईं लेकिन उसकी मॉनिटरिंग के लिए कोई ठोस नीति नहीं बन पाई। हाल में भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ की ओर से एक पांच सितारा होटल में सहकारिता के क्षेत्र को लेकर बड़ा आयोजन भी किया गया जिसमें माफियाओं के चंगुल से सहकारिता को मुक्त कराने की बात कही गई लेकिन इसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाया। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि सहकारी बैंकों पर स्थानीय नेताओं और माफियाओं का कब्‍जा होना है। जिसकी वजह से सहकारी क्षेत्र के कई बैंक कर्ज के तले दबे हैं या फिर घोटालों की जांच से जूझ रहे हैं।

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