'जमूरे रस्सी पर उलटा लटक...
बंदरिया नाच दिखा, भालू ताली बजा-नमस्ते कर, गले से अजगर निकाल घुमाकर दिखा, जमूरे झोली फैला-टोपी उतार, हाथ फैला, पैर छू, जमूरे अब भाग-गायब हो जा।’ बचपन में अपने कस्बों के बाजार में छोटे डमरू लेकर खेल-तमाशा दिखाने वाले बाजीगर मिल जाते थे। अब नए नियम-कानूनों और टी.वी. तमाशों ने ऐसे बाजीगरों का धंधा ठंडा कर दिया है। लेकिन हर साल किसी पंचायत, नगरपालिका-निगम, विधानसभा या लोक सभा चुनाव होने के कारण गिरगिट की तरह रंग-दल-गुट-निशान बदलते नेता बाजार में बोलियां लगाते दिखाई देते हैं। कोई अपने को फटेहाल दिखाता है, तो कोई चुनावी टिकट के लिए पांच-दस करोड़ रुपये के नोट बंद कमरे में लहराता है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा विधान सभा चुनाव का परिदृश्य पिछले 50 वर्षों की तुलना में सर्वाधिक दलबदलू, नोट खाऊ, आंसू बहाऊ, बर्फीली हवा में पसीना निकालू, विरोधियों की पटकनी के लिए हथियारों का जुगाड़ू, धार्मिक भावनाओं को चालाकी से भडक़ाऊ, जात-बिरादरी-गोत्र-खानदान के बही-खाते का इस्तेमालू बन गया है। राजनीतिक पार्टियों, विचारधाराओं या नेताओं से विद्रोह कर सत्ता पलटने के प्रयास पिछले 60 वर्षों में होते रहे हैं। प्रारंभिक दौर में बड़े नेताओं के अहम या विचारों की लड़ाई से बिखराव, बदलाव होते थे। गरीबों, अमीरों-यहां तक कि राजा-महाराजाओं के हितों के नाम पर चुनावी अभियान चलते थे। प्रतिपक्ष में दस-बीस वर्ष बैठ चुके दलों और नेताओं ने जोड़-तोड़, दलबदल, गठबंधन से सरकारें उखाडऩे और अपनी बनाने के प्रयास किए। सबसे पहले दलबदल के जरिए दो बड़े राज्यों में तख्ता पलट हुए। मध्य प्रदेश में तत्कालीन भारतीय जनसंघ की नेत्री विजयाराजे सिंधिया ने कांगे्रस के सबसे ताकतवर चाणक्य कहे जाने वाले द्वारका प्रसाद मिश्र के खिलाफ गोविन्द नारायण सिंह गुट के विद्रोह से संविद सरकार बनवा दी। उसी तरह सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी भारतीय जनसंघ ने पुराने गांधीवादी कांगे्रसी चौधरी चरण सिंह के साथी विधायकों से तख्ता पलट करवाकर गैर कांगे्रसी सरकार बना दी। दलबदल का यह कारवां धीरे-धीरे अन्य राज्यों तक फैला। कांगे्रस ही नहीं भारतीय जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी सहित क्षेत्रीय दल भी टूटते, जुड़ते, बिखरते रहे।
इस पृष्ठभूमि में 2017 में भारतीय लोकतंत्र का एक नया अध्याय लिखा जा रहा है। छोटे से उत्तराखंड में कमाल हो रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने दस वर्षों तक जिन कांगे्रसी नेताओं, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों-विधायकों को भ्रष्टतम, नाकारा, चरित्रहीन बताया था, उन्हें रातोरात पार्टी के कमल की मालाएं पहनाकर चुनावी मैदान में अपने 'जमूरे उम्मीदवार’ बना दिया। जातिगत समीकरणों के लालच में पहले अवैध फिर वैध बनने वाली संतान और पत्नी को येन-केन तरीके से अपनी शरण में लेकर 91 वर्षीय कांग्रेसी नारायण दत्त तिवारी को भी अपनी चौखट पर नतमस्तक के लिए खड़ा कर लिया। इसी तरह कांगे्रस, जनता पार्टी, लोकदल इत्यादि के झंडे तले संघ-भाजपा का विरोध करते रहने वाले हेमवतीनंदन बहुगुणा के बेटे विजय बहुगुणा एवं बेटी रीता बहुगुणा को भी अपनी बग्गी में बैठा लिया। यह वही विजय बहुगुणा हैं, जिनके विरुद्ध पिछले चार वर्षों के दौरान उत्तराखंड में भूकंप बचाव कार्यों में भयावह धांधली और निकम्मेपन के विरुद्ध भाजपा-संघ के कार्यकर्ता लगातार आंदोलन करते रहे। तीन महीने पहले तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी-अमित शाह सहित भाजपा नेताओं के विरुद्ध जहर उगलती रही उनकी बहन रीता बहुगुणा की आरती उतारने का दायित्व उ.प्र. के भाजपा-संघ के स्वयंसेवकों को सौंप दिया गया है। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्री काल में सडक़ों पर आंदोलन करने वाले भाजपा कार्यकताओं के घाव इस समय घायल हुए बिना हरे हो गए हैं। संघ-भाजपा को अपने साथ रहे साधु-साध्वी, संत-महात्माओं के प्रभामंडल में कुछ कमी दिख रही होगी। तभी तो दिन में कांग्रेसी टोपी और सूरज ढलने के बाद रंगीन वस्त्र धारण कर भीड़ जुटाने वाले सतपाल महाराज को भाजपा ने देर-सबेर सत्ता का सिंहासन दिलाने की पुडिय़ा दिखाकर अपना लिया। उत्तर प्रदेश में दलित, पिछड़ा, राजपूत, ब्राह्मण वोटों के समीकरण के नाम पर विवादास्पद बसपाई, समाजवादी, कांगे्रसी या अन्य छोटे-मोटे दलों के घिसे-पिटे नेताओं को भी पार्टी में शामिल कर चुनावी टिकट या अन्य लाभ देने का इंतजाम कर दिया।
बहरहाल, भाजपा के सत्ता में होने के कारण लोगों का समर्पण समझा जा सकता है। फिर उसके और संघ के आदर्शों की चर्चा करना सत्ताधारियों को खलता है। वे कांगे्रस की बदहाली पर ध्यान दिला सकते हैं। राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद अपनी ही गलतियों से कमजोर हुई कांगे्रस पंजाब तक में अपने पैरों और कंधों पर भरोसा नहीं कर पा रही है। टी.वी. चैनलों पर चुटकुलों-दूसरों की शायरी और डायलाग के साथ तालियां और नाच दिखाने वाले पुराने भाजपाई नवजोत सिंह सिद्धू को कांगे्रस ने अपना 'स्टार प्रचारक’ बना लिया। कांगे्रस को अपने पूर्व मुख्यमंत्री राजा कैप्टन अमरिंदर सिंह, इंदिरा गांधी के सत्ताकाल से राष्ट्रीय स्तर पर जोड़-तोड़ करने वाली अंबिका सोनी, दस साल तक अकाली मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को गुलदस्ता भेंट कर पंजाब को अधिकाधिक ग्रांट दिलाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री और राव राज में पांच साल वित्त मंत्री रह चुके मनमोहन सिंह पर उतना भरोसा नहीं, जितना बरसों पहले चौका-छक्का मारने वाले सिद्धू पर है। यही नहीं भाजपा-अकाली, सपा, बसपा या तीन बरस पहले उपजी आम आदमी पार्टी से निकले या निकाले गए नेताओं को भी कांगे्रस पंजाब या उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में गले लगाने के लिए तैयार है। भाजपा-कांगे्रस में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि 24 घंटे पहले दल बदलने वाले को पार्टी उम्मीदवार बनाकर मंत्री-मुख्यमंत्री बनवाने तक का वायदा किया गया हो। विचारधारा की बात करना दूर रहा, भ्रष्ट और आपराधिक मामलों को भी रातोरात मखमली गलीचे के नीचे छिपाकर फूल बरसाए जा रहे हैं। गंगा, युमना, नदियों के आधुनिक जल प्रबंधन और दिशा मोडऩे के अभियान समझे जा सकते हैं, लेकिन राजनीति के गंदे नालों से लोकतंत्र की नाव को किसी अनजान खतरनाक रास्ते पर ले जाने के आसार अवश्य दिख रहे हैं।