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दीवारों के पीछे बिछी बिसात

सपा-कांग्रेस ही नहीं भाजपा के गलियारों में उठा-पटक एवं गलबहियों की निराली दास्तान
अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी

बीस जनवरी की सुबह लखनऊ में समाजवादी पार्टी के कार्यालय पर कार्यकर्ताओं में चल रही चर्चा के बीच ही अचानक पार्टी की ओर से पहले, दूसरे और तीसरे चरण के 191 उम्‍मीदवारों की सूची जारी कर दी जाती है।  इसके बाद कार्यकर्ता मायूस हो जाते हैं कि लगता है सपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन नहीं होगा। क्‍योंकि समाजवादी पार्टी ने उन सभी सीटों पर भी उम्‍मीदवारों की घोषणा कर दी थीजहां से कांग्रेस के मौजूदा विधायक थे। कार्यकर्ताओं को यह विश्वास था कि अगर गठबंधन होता है तो एक बार फिर प्रदेश की सत्ता में आने का मौका मिलेगा। सपा की ओर से किरणमय नंदा और नरेश अग्रवाल के भी बयान शुरू हो गए कि कांग्रेस ज्यादा सीटें मांग रही, वहीं कांग्रेस की ओर से गुलाम नबी आजाद और राज बब्‍बर भी आशंका जताने लगे कि शायद गठबंधन न हो। लेकिन पांच कालिदास मार्ग पर बैठे मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव और दिल्ली के लोधी स्टेट में कांग्रेस की ओर से प्रियंका गांधी के बीच एसएमएस और फोन के जरिए संवाद चल रहा था। अखिलेश यादव के करीबी सूत्रों के मुताबिक संवाद में गठबंधन की ही चर्चा हो रही थी और यह कहा जा रहा था कि कांग्रेस की ओर से उन सीटों की सूची नहीं सौंपी गई है जहां उनको चुनाव लडऩा है। इस चर्चा में सीटों को भी लेकर लगभग सहमति बनती जा रही थी। अखिलेश यादव ने प्रियंका गांधी को कांग्रेस की वस्तुस्थिति समझाते हुए इस बात के लिए भी राजी कर लिया कि कितनी सीटों पर चुनाव लडऩा है। सूत्र बताते हैं कि पहले प्रियंका गांधी 130 सीट के लिए बात कर रही थीं लेकिन अखिलेश सौ से ज्यादा सीट पर राजी नहीं हो रहे थे। उसके बाद सहमति बनी कि पहले सूची तैयार हो कि किन सीटों पर चुनाव लडऩा है। लेकिन कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्‍बर और प्रभारी महासचिव गुलाम नबी आजाद प्रदेश में किन सीटों पर चुनाव लडऩा है इसकी सूची अखिलेश यादव तक नहीं पहुंचा पाए थे। कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि आजाद और राज बब्‍बर यह चाहते थे कि पहले सीटों की संख्‍या तय हो तभी सूची देंगे।

कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ नवजोत सिंह सिद्धू

कांग्रेस और सपा के बीच नजदीकी तब बढ़ी जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी वाराणसी में रोड शो के दौरान बीमार हो गईं और तब अखिलेश ने उनके इलाज के लिए पुरजोर व्यवस्था की और दो सीएमओ स्तर के डॉक्‍टर को उनके साथ भेजा जिसके कारण सोनिया के इलाज में बड़ी मदद हुई। इसके बाद प्रियंका गांधी ने अखिलेश यादव को फोन कर मदद के लिए धन्यवाद दिया। इसके बाद से ही ये लोग लगातार संपर्क में थे। लेकिन प्रियंका गांधी ने गठबंधन के बाबत सोनिया गांधी को कोई औपचारिक संदेश नहीं दिया था, तो ये लोग रुके रहे। अखिलेश यादव ने अगले दिन कहा कि हम अपना घोषणा पत्र जारी करेंगे और समाजवादी पार्टी का कार्य देखने वाले एस. आर. एस. यादव को इस बारे में सूचित भी कर दिया कि वे इसकी तैयारी करें। लेकिन ये लोग गठबंधन के संबंध में बात करते रहे। अखिलेश यादव ने राजबब्‍बर की बात नहीं मानी। परंतु इस बीच प्रियंका गांधी, राहुल गांधी और डिंपल यादव आपस में बराबर संपर्क में रहे।

वहीं गठबंधन की जो कहानी पहले लिखी जा चुकी थी उसकी कोई चर्चा नहीं कर रहा था। दरअसल जिस दिन चुनाव आयोग ने अखिलेश यादव के पक्ष में फैसला दिया कि पार्टी और चुनाव चिह्नï उनके पास रहेगा उस समय प्रियंका गांधी ने अखिलेश यादव को बधाई देने के लिए फोन किया। लेकिन अखिलेश उस समय कहीं व्यस्त थे। उसके बाद प्रियंका ने डिंपल यादव से बात की और साफ कर दिया कि अब मिलकर चुनाव लडऩा है और जल्द ही इसकी घोषणा कर दी जाएगी। बाद में अखिलेश और प्रियंका के बीच भी चर्चा हुई और तस्वीर साफ हो गई कि गठबंधन होना है। प्रियंका गांधी की ओर से गुलाम नबी आजाद को यह संदेश भिजवाया जाता है कि उम्‍मीदवारों की सूची तैयार करें। लेकिन आजाद ने सूची की जगह 150 सीटों की मांग कर डाली। इसको लेकर सपा नेताओं ने नाराजगी भी जाहिर की। बात नहीं बनते देख मीडिया में भी चर्चाएं शुरू हो गईं कि कांग्रेस ज्यादा सीटें मांग रही है इसलिए गठबंधन पर संशय है। सपा के सूत्रों के मुताबिक पहले कांग्रेस 78 सीटों पर चुनाव लडऩे के लिए राजी हो गई थी। बाद में कांग्रेस की ओर से कहा गया कि राष्ट्रीय लोकदल को भी शामिल कर लिया जाए और सीटों की संख्‍या बढ़ा दी जाए। सपा ने रालोद को 25 सीटें देने की बात पर सहमति भी जता दी लेकिन बातचीत कांग्रेस के जिम्‍मे छोड़ दिया।

इस बीच खबरें आने लगीं कि महागठबंधन बनने से भाजपा और बसपा का प्रदर्शन कमजोर हो जाएगा। तो कांग्रेस से उम्‍मीदवारों की संख्‍या बढऩे लगी। जब उम्‍मीदवारों की संख्‍या बढ़ी तो सीटों की संख्‍या की मांग भी बढऩे लगी। यह मांग केवल प्रदेश स्तर पर ही नेता करते रहे और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, उपाध्यक्ष राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से इस मुद्दे पर चर्चा नहीं की गई। उधर अखिलेश यादव पार्टी में चल रहे मतभेद के कारण व्यस्त रहे और गठबंधन को लेकर चर्चा नहीं कर पाए। इस बीच सपा के रणनीतिकारों ने सुझाव दिया कि उम्‍मीदवारों की सूची जारी कर दी जाए। बस फिर क्‍या था सपा की ओर से पहली सूची जारी हो गई और गठबंधन को लेकर खबरें आनी लगीं कि समझौता नहीं होगा। सुबह 11 बजे जब सूची जारी हुई तब तक कांग्रेस नेताओं को यकीन नहीं था कि सपा ऐसा करेगी। उसके बाद फिर शुरू हुई गठबंधन की चर्चा और इस बार कमान स्वयं प्रियंका गांधी ने संभाली। अखिलेश ने फिर साफ किया कि पहले कांग्रेस बताए कि किन सीटों पर चुनाव लडऩा है तब तय होगा कि कितनी सीटें दी जाएं। तब भी कांग्रेस नेता तय नहीं कर पाए। अखिलेश ने एक बात साफ कर दी थी कि जहां उनके उम्‍मीदवार घोषित किए जा चुके हैं अगर वह सीट कांग्रेस के खाते में जाती है तो वहां से नाम वापस कर लिया जाएगा और हुआ भी ऐसा। कांग्रेस 105 सीटों पर लडऩे के लिए राजी हो गई। लेकिन फिर एक पेंच फंसा कि इसकी घोषणा कहां हो, सपा चाहती थी कि उसके पार्टी के कार्यालय में हो और कांग्रेस अपने कार्यालय में चाहती थी। बाद में बीच का रास्ता निकालकर तीसरी जगह पर पत्रकार वार्ता बुलाकर घोषणा करनी पड़ी। 

प्रदेश में चुनावों से पूर्व मुलायम सिंह और अखिलेश यादव के बीच सपा पर दावे को लेकर हुई खींचतान की कहानी जितनी नाटकीय थी, सपा और कांग्रेस के गठबंधन की कथा भी उससे कम नाटकीय नहीं थी। अखिलेश बंद कमरे में मुलायम सिंह यादव से बात करते रहे कि कैसे झगड़ा खत्म हो। इसको लेकर मुलायम बस यह कहते रहे कि हमारे लोगों का ख्‍याल रखो। अखिलेश ने मुलायम की बात भी मानी। शिवपाल और अपर्णा यादव को विधानसभा का टिकट दे दिया। मुलायम के कुछ और करीबियों को भी अखिलेश ने जगह दी है।

कहा यह भी जा रहा है कि पिता से अनबन के दिनो में अखिलेश कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लडऩे को लेकर लालायित थे और कांग्रेस को 140 सीटें देने को भी तैयार थे मगर बाद में पार्टी पर अपने आधिपत्य के बाद उनके सुर बदल गए और वे 120 सीटों और अंत में सौ से अधिक सीटें न देने पर अड़ गए। उनका कहना था कि कांग्रेस को 2012 के चुनावों में मात्र 54 सीटों पर सपा से अधिक वोट मिले अत: कांग्रेस को मात्र इतनी ही सीटें अथवा बीस-पच्चीस सीटें और दी जा सकती हैं। सपा अजित सिंह की पार्टी रालोद से भी कोई वास्ता नहीं रखना चाहती थी। दरअसल मुजफ्फरनगर के दंगे के बाद जाटों और मुस्लिमों के बीच दूरियां बढ़ गई हैं और अखिलेश नहीं चाहते थे कि उनका मुस्लिम वोट बैंक जाटों की पार्टी रालोद के साथ खड़े होने का कोई विपरीत संदेश ले। यही वजह रही कि सपा ने गठबंधन को लेकर अरुचि दिखानी शुरू कर दी। इसके तुरंत बाद ही सपा ने 208 सीटों पर अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी। यही नहीं अखिलेश यादव ने कांग्रेस की ओर से वार्ता कर रहे गुलाम नबी आजाद के फोन उठाने तक बंद कर दिए। प्रदेश में कांग्रेस के प्रचार का काम देख रहे प्रशांत किशोर कई दिन तक अखिलेश से मिलने की कोशिश करते रहे मगर मुलाकात नहीं हुई। बाद में स्वयं प्रियंका गांधी मैदान में आईं और अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव के मार्फत दुबारा बातचीत शुरू कराई और 105 सीटों पर बात बन गई। सपा और कांग्रेस के गठबंधन की डोर अंत में प्रियंका और राहुल गांधी के हाथ में पहुंच गई और आखिरी समय तक इसकी भनक गुलाम नबी आजाद, प्रदेश अध्यक्ष राज बब्‍बर और चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष संजय सिंह तक को नहीं थी। कांग्रेस के लिए यह गठबंधन संजीवनी से कम नहीं है। उत्तर प्रदेश में उसका मत प्रतिशत तेजी से घटा है। 2012 के विधानसभा चुनावों में उसे मात्र 11.65 फीसदी वोट मिले थे और 2014 के लोकसभा चुनावों में यह 7.5 फीसदी ही रह गए। अकेले चुनाव लडऩे में उसके सामने पिछले चुनाव जितनी यानी 29 सीटें हासिल करना भी बड़ा लक्ष्य हो सकता था।

मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव ने आउटलुक के लिए अमितांशु पाठक को बताया कि इस बार हमारी बड़ी जीत होगी। जिस तरह कांगे्रस ने बिहार में महागठबंधन किया और वहां पहले से अधिक सीटें जीत सकी तो इस लिहाज से यह बात कांगे्रस के पक्ष में जाती थी कि समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया जाए और यदि विपक्ष मजबूत होगा तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेरा जा सकेगा। इस गठबंधन के साथ-साथ आगे की योजना अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी ही बनाएंगी। इस बार के विधानसभा चुनावों में प्रियंका केवल अपने को रायबरेली तक ही सीमित नहीं रखेंगी। वह पहले उत्तर प्रदेश और बाद में राष्ट्रीय राजनीति में आ रही हैं।

कहते हैं कि चालाकियां हर बार काम नहीं आतीं । इसका जीता-जागता उदाहरण रालोद के मुखिया अजित सिंह हैं। लगभग हर चुनाव में वह कोई न कोई गठबंधन कर अपनी पार्टी को मजबूत कर लेते थे। दिल्ली के गलियारों में राजनीतिक मोलभाव करने में उनका कोई सानी नहीं है। मगर इस बार वे गच्चा खा गए। उन्होंने पहले भाजपा से बातचीत शुरू की और असफल होने पर सपा से भी संपर्क बढ़ाया। उनके प्रयास बसपा के साथ मिल कर चुनाव लडऩे के भी थे मगर मायावती ने उन्हें भाव नहीं दिया। अजित सिंह ने बिहार की तर्ज पर महागठबंधन के भी प्रयास किए मगर यहां भी बात नहीं बनी। अंत में सपा और कांग्रेस के साथ मिलकर लडऩे का फार्मूला निकाला गया मगर वह भी फेल हो गया। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव त्रिलोक त्यागी हालांकि दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी प्रदेश की सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ेगी मगर पार्टी को प्रत्याशी ही नहीं मिल रहे। पिछली विधानसभा में पार्टी कांग्रेस के साथ मिल कर मैदान में उतरी थी और उसे आठ सीटें मिली थीं। इस बार पार्टी के लिए पुराने रिकॉर्ड से आगे निकलना बड़ी चुनौती होगी। प्रदेश का विधानसभा चुनाव इस नजरिये से भी दिलचस्प है कि सभी दल अपने लोगों से अधिक दूसरे दलों की खबरें एकत्र करने में दिलचस्पी ले रहे हैं। लगभग सभी ने आईटी विंग तैयार कर लिए हैं जो सीधे मतदाताओं से संपर्क कर रहे हैं।

प्रदेश में कभी अकेले अपने दम पर सरकार बनाने वाली बसपा के लिए भी यह चुनाव 'अभी नहीं तो कभी नहीं’ वाला है। पिछली विधानसभा में उसे मात्र अस्सी सीटें मिली थीं। हालांकि उसका मत-प्रतिशत फिर भी 24 फीसदी रहा। लोकसभा चुनावों में मोदी लहर के चलते उन्हें एक भी सीट नहीं मिली और मत-प्रतिशत भी गिर कर 19.71 फीसदी रह गया। पार्टी इस बार फिर अपने सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले के भरोसे है और उसने सर्वाधिक 98 मुस्लिमों को टिकट दिया है। इस बार के विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों को चुनाव लडऩे से भी अधिक मशक्‍कत टिकट के बंटवारे में करनी पड़ रही है। कभी गठबंधन का पेंच फंस जाता है तो कभी अपनी ही पार्टी का कोई नेता रूठ जाता है। चुनाव आयोग की हिदायतों के बावजूद पूरी तरह जाति और धर्म के आधार पर लड़े जा रहे इस चुनाव का एक पहलू यह भी है कि सिद्धांतों, नैतिकता और मूल्यों की दुहाई देने वाले दल ही इनकी लक्ष्मणरेखा लांघने में सर्वाधिक उतावले दिख रहे हैं।

राजनाथ सिंह और अमित शाह

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव इस बार जीने-मरने के प्रश्न जैसा है। प्रदेश में अपना खूंटा गाड़ कर पार्टी साबित करना चाहती है कि नोटबंदी पर देश की जनता उनके साथ है। हालांकि विधानसभा चुनाव चार अन्य राज्यों में भी हैं, मगर दिल्ली की गद्दी का रास्ता प्रदेश से होकर गुजरने की कहावत को पार्टी हमेशा से गंभीरता से लेती है। यही कारण है कि स्वयं को सिद्धांतों वाला दल बताने वाली भाजपा ने भी एक-एक कर अपने सभी सिद्धांतों को इस बार जैसे तिलांजलि दे दी है। पार्टी की तैयारियां बता रही हैं कि यूपी के चुनाव 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए उसका पूर्वाञ्जयास भी हैं। पार्टी ने इस बार सबसे अधिक चालीस से अधिक बाहरी लोगों को टिकट दिया है। दागियों और बाहुबलियों को भी जमकर टिकट दिया गया है। इस फ्म में अशोक चंदेल, अजय प्रताप सिंह उर्फ लल्ला भैया और ब्रजेश पाठक जैसे दबंग लोग भी भगवा रथ पर सवार हो गए हैं। पार्टी की सबसे बड़ी फजीहत परिवारवाद को लेकर हो रही है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पार्टी के नेताओं को नसीहत दी थी कि वह अपने परिवारवालों के लिए टिकट न मांगें मगर हुआ इसके उलट और दोनों हाथों से नेताओं के बेटे और बेटियों को टिकट दिया गया। इस फ्म में सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह के पुत्र प्रतीक भूषण, सांसद हुकुम सिंह की पुत्री मृगांका सिंह और प्रेमलता कटियार की पुत्री नीलिमा जैसे उन लोगों की भी लाटरी लग गई जो अभी भाषण देना भी नहीं सीख पाए। सबसे अधिक तमाशा गृहमंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह के टिकट को लेकर हुआ। पंकज गाजियाबाद की साहिबाबाद सीट से चुनाव लडऩा चाहते थे और यहां खूब सक्रिय भी थे। उनके अनुज नीरज सिंह ने भी क्षेत्र में पांच साल लगाए और हर छोटे-बड़े कार्यफ्म में शरीक हुए मगर फिर भी पंकज सिंह को साहिबाबाद से टिकट न मिलकर नोएडा से मिला। पार्टी के सूत्र बताते हैं कि केवल पंकज सिंह के टिकट को लेकर हुई उठापटक के चलते पार्टी की दूसरी सूची एक सप्ताह देर से जारी हुई। कार्यकारिणी की बैठक में कभी कोई नेता नाराज हो जाता तो कभी कोई। उमा भारती से लेकर हुकुम सिंह, लालजी टंडन ने टिकट बंटवारे को लेकर नाराजगी जताई तो इनका दबाव काम आया। बसपा से भाजपा में आए स्वामी प्रसाद मौर्य ने तो धमकी तक दे डाली कि अगर उनकी बात नहीं मानी गई तो वे विकल्प तलाश सकते हैं। बाद में अमित शाह का फोन आने के बाद मौर्य शांत हुए। मौर्य और उनके बेटे को भाजपा ने टिकट दिया है। नाराजगी का आलम यह रहा कि भाजपा के कई शीर्ष नेताओं के बीच अलग-अलग बैठकों में यहां तक कह दिया गया कि टिकट सही तरीके से नहीं बांटे गए तो वे चुनाव प्रचार से दूर रहेंगे। केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने तो पार्टी छोडऩे तक की धमकी दे डाली। वहीं कई बड़े नेताओं ने अपने फोन बंद कर लिए। कई टिकटों पर आम सहमति बनाने में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के भी पसीने छूट गए। साहिबाबाद से पंकज सिंह को टिकट न मिलने को पार्टी में राजनाथ सिंह की पकड़ कमजोर होने के रूप में भी देखा जा रहा है। विपक्षी दल भी पंकज सिंह के मुद्दे पर अब भाजपा को घेर रहे हैं।

कांग्रेस प्रवक्‍ता रणदीप सुरजेवाला दावा करते हैं कि भाजपा परिवारवाद की सबसे बड़ी पोषक है। हालांकि भाजपा के प्रवक्‍ता संबित पात्रा इस आरोप को सिरे से खारिज करते हैं और कहते हैं कि किसी कार्यकर्ता के दावे को मात्र इस बिना पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वह बड़े नेता की संतान है। उत्तर प्रदेश के चुनावों में उतरी अमित शाह की भाजपा पुरानी भाजपा से कई मामलों में अलग नजर आ रही है। पार्टी ने पहली बार लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज नेताओं को घर बैठा दिया है। पहली बार दूसरे दलों में तोडफ़ोड़ में नीति भी अपनाई गई है।  उत्तर प्रदेश की तरह ही पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर विधानसभा के चुनाव में भी मुकाबला बड़ा दिलचस्प होने वाला है। क्‍योंकि यहां भी सियासत के नए दांव-पेंच खूब जमकर खेले गए। पंजाब में जहां कांग्रेस भाजपा के पूर्व सांसद नवजोत सिंह सिद्घू और उनकी पत्नी को अपने पाले में करने में कायमाब रहे वहीं उत्तराखंड में भाजपा ने कई कांग्रेसी दिग्गज नेताओं को अपने पाले में कर लिया। पंजाब में मुख्‍यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे उपमुख्‍यमंत्री सुखबीर सिंह बादल की साख दांव पर है वहीं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अमरिंदर सिंह की भी प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। उत्तराखंड में मुख्‍यमंत्री हरीश रावत दो सीटों से चुनाव लडक़र दुबारा सरकार बनाने का सपना देख रहे हैं जबकि कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा भी राज्य में नया समीकरण बनाते दिखाई पड़ रहे हैं।

 

सही साबित हुआ आउटलुक

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और सपा का गठबंधन भले ही अब जाकर हुआ हो मगर आउटलुक हिंदी ने 16 जनवरी को रिलीज हुए अंक में यह बात लिखी थी कि यूपी के चुनाव में अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी की जोड़ी कमाल दिखाएगी।  गठबंधन में प्रियंका गांधी की भूमिका ने हमें सही साबित किया। यही नहीं, समाजवादी पार्टी पर अखिलेश यादव के प्रभुत्व को लेकर अक्‍टूबर में ही आउटलुक हिंदी ने अपनी आवरण कथा में संकेत दिए थे कि घमासान में वही भारी पडऩे जा रहे हैं और यह भी सही साबित हुआ। जब मीडिया का बड़ा वर्ग समाजवादी पार्टी के पतन की भविष्यवाणी कर रहा था तब आउटलुक ने लिखा था कि सपा अखिलेश के सहारे ही आगे बढ़ेगी और इसलिए उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से 'अखिल प्रदेश’ बनाने की तैयारी चल रही है।

 

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