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बजट को पैसे वालों के पक्ष में कहना गलत होगा

उत्पादन बढ़ाने के लिए बजट में जो रणनीति बनाई गई है उसका असर तब तक नहीं होगा जब तक मांग न बढ़े
अध‌िकार‌ियों के साथ व‌ित्त मंत्री अरुण जेटली

केंद्रीय बजट का विश्लेषण दो परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए, पहला राष्ट्रीय और दूसरा प्रादेशिक। प्रादेशिक परिप्रेक्ष्य हमेशा समस्यामूलक होता है क्‍योंकि हर राज्य और क्षेत्र ज्यादा संसाधनों की मांग करते हैं। यह विडंबना है कि जब हिंदी हृदय क्षेत्र में दो बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे थे तब उनके बारे में बजट में कुछ नहीं था। यहां तक कि बिहार के लिए भारी-भरकम आवंटन या 'विशेष दर्जा’ देने, जिसका वादा वर्तमान सत्ताधारियों ने किया था, की कोई घोषणा भी सपना ही बनी रही। हालांकि शुरू में ऐसा लगा जैसे केंद्र की वर्तमान सत्ताधारी पार्टी में प्रलयकारी बदलाव होने जा रहे हैं। जब ऐसा लग रहा था कि विमुद्रीकरण या नोटबंदी के जरिए पार्टी ने आत्मघाती गोल कर लिया क्‍योंकि इसने पार्टी के आधार वोट, व्यापारी वर्ग को अस्थिर कर दिया था, पार्टी ने गरीबों और वंचितों में अपनी पहुंच निर्णायक रूप से बनाने का प्रयास किया है। कुछ मायनों में भाजपा ने खुद को गरीबों और वंचितों की पार्टी के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया और इस प्रक्रिया में भाजपा करीब एक सदी पुरानी कांग्रेस पार्टी की ताकत को हड़प सकती है। हालांकि बजट के बाद सेंसेक्‍स में उछाल आया मगर इस बजट को पूरी तरह कॉरपोरेट या धनी लोगों के पक्ष में बनाया गया बजट नहीं करार दिया जा सकता। एक ओर एमएसएमई (मध्यम, लघु, सूक्ष्म उद्योग) सेक्‍टर के 50 करोड़ रुपये तक कारोबार करने वाली कंपनियों पर टैक्‍स की दर 30 से घटाकर 25 फीसदी की गई है मगर दूसरी तरफ सालाना 50 लाख से एक करोड़ रुपये तक की आय वाले लोगों पर आयकर में 10 फीसदी का सरचार्ज भी लगाया गया है।

वैसे भाजपा चाहती तो बजट के बाद निर्णायक रूप से उभर सकती थी और विमुद्रीकरण का कदम पूरी तरह गरीबों के पक्ष में उठाया गया साबित हो सकता था, यदि पार्टी ने 2017-18 के बजट में यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई, जिसके तहत देश के हर नागरिक को एक निश्चित मासिक रकम देने की बात है) को लागू करने का प्रस्ताव कर दिया होता। यूबीआई की परिकल्पना 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण में की गई है। केंद्र सरकार खुद ही पूरे देश में करीब 950 केंद्रीय या केंद्र प्रायोजित योजनाएं चला रही है जिसका खर्च सकल घरेलू राजस्व का करीब 5 फीसदी है। इनमें से अधिकांश कार्यफ्मों के साथ मुख्‍य समस्या ये है कि इसे लागू करने और प्रभावी बनाने का लक्ष्य राज्यों की संस्थाओं और कार्यान्वयन क्षमता से भी जुड़ा हुआ है। वर्ष 2017-18 का आर्थिक सर्वे कहता है, 'तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य जहां गरीबों की आबादी ज्यादा नहीं है, किसी कार्यफ्म को ज्यादा बेहतर तरीके से लागू करते हैं बनिस्पत बिहार जैसे राज्य के, जहां गरीबी की दर और गरीबों की आबादी अपेक्षाकृत ज्यादा है। यह कोई अस्वाभाविक घटना नहीं है बल्कि गरीबी उन्मूलन और सामाजिक कार्यफ्मों में ऐसा होना स्वाभाविक है।  ऐसे मामलों में 'अपवर्जन चूक’ (जिसके तहत वास्तविक जरूरतमंद बाहर छूट जाते हैं) का जोखिम बहुत अधिक हो जाता है।’ इस पृष्ठभूमि में यूनिवर्सल बेसिक इनकम या यूबीआई का प्रस्ताव भारत के सामाजिक क्षेत्र में क्रांतिकारी साबित होता। नेहरू का 'नियति से साक्षात्कार’ और महात्मा गांधी का 'हर आंख से आंसू पोंछने’ का सपना अब तक अधूरा है। यूबीआई में सिर्फ नीचे के लोगों को नहीं बल्कि ऊपर से लेकर हर जरूरतमंद तक मदद पहुंचाने की क्षमता है। इस अर्थ में इसके अपवर्जन चूक की ओर प्रवृत होने की संभावना है। ऐसे में (भाजपा के लिए) यूबीआई और विमुद्रीकरण भारत के निचले तबकों को कब्‍जाने के दो हथियार होते।

विमुद्रीकरण से शायद केंद्र सरकार को नया प्रोफाइल मिले मगर विकास पर इसका अपना असर है। अनुमान लगाया जा रहा है कि इस वित्त वर्ष में विकास दर कम से कम एक फीसदी नीचे रहेगी। आर्थिक सर्वे के अलावा रिजर्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और कई अन्य रेटिंग एजेंसियों ने अनुमान लगाया है कि भारत की विकास दर नीचे आएगी। देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्‍टर मनमोहन सिंह ने तो दावा किया है कि विकास दर दो फीसदी तक नीचे आएगी। अन्य बातों के अलावा इससे कर संग्रह भी प्रभावित होगा और इसके कारण अधिकांश अविकसित राज्यों को वित्त आयोग के आवंटन पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। उदाहरण के लिए नवें, 10वें और 11वें वित्त आयोग में बिहार को उस राशि से करीब 12000 करोड़ रुपये कम मिले जिसका प्रस्ताव आयोग ने किया था। वर्ष 2004 से पहले अधिकांश राज्य सरकारों को सार्वजनिक आर्थिक संकट के कारण हार का मुंह देखना पड़ा। वर्ष 2004 से टैक्‍स और जीडीपी में बढ़ोतरी के कारण 12वें वित्त आयोग से बिहार को अधिक पैसा मिलना शुरू हुआ। इस प्रक्रिया में विकासशील राज्यों ने प्रभावशाली विकास किया। यहां तक कि खराब शासन-प्रशासन के बावजूद झारखंड जैसे राज्य में भी प्रभावशाली विकास दिखा। इसलिए पिछड़े राज्यों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए राष्ट्रीय आर्थिक प्रबंधन महत्वपूर्ण होता है। अभी करीब 9 लाख करोड़ रुपये के चौंकाऊ आंकड़े वाली राशि आयकर न्यायाधिकरण में विवादों में फंसी हुई है। बजट यह विश्वास नहीं दिखाता कि सरकार इस राशि को हासिल करने में सक्षम है। इस राशि और पुन:मुद्रीकरण को मिलाकर यह भरोसा जताया गया है कि अगले वित्त वर्ष में 7 फीसदी से ऊपर की विकास दर फिर हासिल हो जाएगी मगर यह सिर्फ अटकलबाजी है जो किसी विशेष तथ्य पर आधारित नहीं है।

देश में उत्पादन तेजी से बढ़ाने के नाम पर दो रणनीतियों को सामने रखा गया है। पहला, कर राहत और दूसरा बैंक ब्‍याज दरों में कटौती। मेरी राय में यह दोनों तब तक कारगर नहीं होंगे जब तक अर्थव्यवस्था में मांग नहीं बढ़ेगी। मांग खर्च पर निर्भर है। यदि यूबीआई को लागू किया जाता तो हर स्तर पर मांग में बढ़ोतरी होती। रियल एस्टेट सेक्‍टर को दी गई राहत से कुछ मांग बढ़ सकती है मगर यह लोगों द्वारा किए जाने वाले खर्च का विकल्प नहीं है। यह आश्चर्यजनक है कि मांग को बढ़ाने के मामले में कृषि क्षेत्र का कोई संज्ञान नहीं लिया। यूरोप समेत पूरी दुनिया में औद्योगिक क्रांति की ओर ले जाने में कृषि क्षेत्र ने ही निर्णायक भूमिका निभाई है। इंग्लैंड में 'एन्ञ्चलोजर’ आंदोलन ने औद्योगिक क्रांति में खास भूमिका निभाई थी। भारत के भी दक्षिणी राज्यों में खेती ने ही औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया। आंध्र प्रदेश में औद्योगीकरण की बुनियाद ही कृषि क्षेत्र था। बजट में यह बेसिक ऐतिहासिक तथ्य भुला दिया गया। बजट का मुख्‍य जोर तकनीक-प्रबंधीय बातों पर है जबकि इसका हस्तक्षेप मुख्‍यत: सिंचाई पर निवेश या सार्वजनिक कामों पर होना चाहिए था। माननीय प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुरूप, नाबार्ड के तहत गठित दीर्घावधि सिंचाई कोष की राशि में 100 फीसदी बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण यह राशि अब 40 हजार करोड़ रुपये पहुंच गई है। हमारे विशाल देश के लिए यह बेहद कम है। दूसरी रणनीति कर्ज केंद्रित है। वर्ष 2017-18 में कृषि कर्ज के लिए रिकार्ड 10 लाख करोड़ रुपये की घोषणा की गई है। अर्थव्यवस्था में वास्तविक मांग पैदा करने के लिए भारी-भरकम सार्वजनिक निवेश जरूरी है।

सुधारों के नाम पर टैक्‍स संरचना को छुआ गया है। व्यक्तिगत या कॉरपोरेट टैक्‍स में राहत देने की कोई जरूरत नहीं थी क्‍योंकि हमारा टैक्‍स और जीडीपी का अनुपात पहले से ही बेहद कम है। टैक्‍स दर में कटौती से यह अनुपात और कम हो जाएगा। यदि केंद्र सरकार को टैक्‍स कम मिलेगा तो राज्यों को उनका हिस्सा भी कम मिलेगा। भारत में निजी निवेश कम है मगर यह ऊंचे कर या ब्‍याज दरों के कारण नहीं है। भारत में सुधारों की शुरुआत के साथ ही भारतीय बाजार भी खुले थे। इससे पहले हालांकि भारत तकनीकी रूप से बेहद पिछड़ा हुआ था। औद्योगीकरण की पूरी इमारत संरक्षित बाजार पर आधारित थी। वैश्वीकरण और दुनिया के औद्योगिक राडार पर आने के नाम पर भारतीय बाजारों को खोला गया। सीमा शुल्क की कटौती के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था की खुद पर निर्भरता का क्षरण हो गया।

यदि भारत आजादी के बाद गांधी और नेहरू जैसे स्तंभों द्वारा तैयार विकास रणनीति के जादू को फिर से हासिल करना चाहता है तो उसे विमुद्रीकरण, यूबीआई और संरक्षित बाजार को एक साथ लाना चाहिए। यह राष्ट्र के उभार के लिए अपरिहार्य है। और, बिना 'योजना आयोग’ को पुनर्जीवित किए राष्ट्र के विकास को कैसे अंजाम दिया जा सकता है?

(लेखक एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट, पटना के सदस्य सचिव हैं।)

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