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महाराणा प्रताप रिटर्न्स, खैर नहीं अकबर दी ग्रेट की

हल्दीघाटी के इतिहास को सिर के बल खड़ा करने की कोशिश हो रही है, जिसमें विजेता अकबर नहीं महाराणा होंगे
महाराणा प्रताप-अकबर

हल्दीघाटी में अकबर ने महाराणा प्रताप को नहीं बल्कि महाराणा प्रताप ने अकबर को हराया था। यह खयाल महाराणा प्रताप रिटर्न्स नामक किसी फिल्म की स्क्रिप्ट लगती है। यह अजूबा कथानक किसी फिल्मकार ने लिखा होता तो कोई बात नहीं, फिल्म में कपोल कल्पना कोई अपराध नहीं है। लेकिन यहां तुर्रा यह है कि राजस्थान सरकार के कुछ मंत्रियों ने इस मुद्दे को हवा दे दी है। यह

कथानक महाराणा प्रताप की उस कहानी के बिलकुल उलट है जिस पर हम भारतीय आज तक नाज करते आए हैं। अभी महाराणा किसी फिल्मी सिंघम की तरह प्रकट हुए हैं। कोई राजपूत किसी से शिकस्त खा जाए ऐसा कैसे हो सकता है भला!

गरीब की जोरू सबकी भौजाई- भारतीय इतिहास की स्थिति कुछ ऐसी ही होती जा रही है। कोई भी इसे छेड़ दे रहा है। यहां 'सही पकड़े हैं’फेम 'भाभी जी घर पर हैं हास्य टीवी सीरियल के ताजा एपिसोड में पेश इतिहास के साथ छेड़छाड़ का एक हास्यास्पद नजारा मौजूं है। एपिसोड में विवाद इस बात को लेकर है कि अनारकली भोजपुरी बोलती थी या नहीं और जोधा बाई अंग्रेजी जानती थी या नहीं। लेकिन यह हंसने का विषय कतई नहीं है। इतिहास एक गंभीर लेखन है।

राजस्थान सरकार के कुछ मंत्री हल्दीघाटी के युद्ध के इतिहास को नए सिरे से लिखे जाने के पैरोकार बनकर सामने आए हैं। ऐसा हुआ तो हल्दीघाटी के युद्ध के अब तक के तथ्य सिर के बल खड़े हो जाएंगे। 16 वीं शताब्‍दी के मेवाड़ के राजपूत राजा महाराणा प्रताप हल्दीघाटी में हारने के बावजूद पिछले 400 सालों से हमारे नायक एवं सिरमौर बने हुए हैं। लेकिन अब उन्हें सचमुच में विजयश्री पहनाने की तैयारी चल रही है और हल्दीघाटी को अकबर दी ग्रेट का 'वाटरलू’बनाने का ख्‍वाब देखा जा रहा है। यह लड़ाई 1576 के 18 जून को हुई थी।

किस्सा यह है कि राज्य के भाजपा के एक विधायक व राजस्थान यूनिवर्सिटी के सिंडिकेट सदस्य मोहनलाल गुप्ता ने विश्वविद्यालय को एक प्रस्ताव भेजकर पाठ्यफ्म में उस किताब को शामिल करने की मांग की है जिसमें हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा को जीता हुआ दिखाया गया है। राजस्थान सरकार के तीन मंत्रियों, स्वास्थ्य मंत्री कालीचरण सर्राफ, स्कूल शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी एवं शहरी विकास मंत्री राजपाल सिंह शेखावत ने समर्थन देकर इस अजीबोगरीब दिख रहे प्रस्ताव को बल दे दिया है, हालांकि यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर राजेश्वर सिंह ने कहा है कि इतिहास को फिर से लिखने की कोई योजना नहीं है।

इस शिगूफे ने मध्यकालीन भारतीय इतिहास के अध्येताओं एवं पेशेवर इतिहासकारों को हक्‍का-बक्‍का कर दिया है। दावा है कि महाराणा प्रताप की हल्दीघाटी में शिकस्त नहीं हुई थी। तर्क दिया जा रहा है कि भारतीयों में हीन भावना भरने के लिए अंग्रेजों ने षडयंत्र के तहत इतिहास लेखन में अकबर को जिता दिया। इतिहास के पुनर्लेखन की यह योजना सिरे चढ़ गई तो उससे अब तक विश्वविद्यालय में पढ़ाए जा रहे महाराणा प्रताप के शौर्य के गुंबद का बाबरीनुमा ध्वंस हो जाएगा। इस नए कथानक में महाराणा प्रताप अकबर दी ग्रेट को हल्दीघाटी के उसी मैदान में धूल चटाएंगे। यह किसी ख्‍वाब जैसा नहीं लगता? और एकदम फिल्मकार संजय लीला भंसाली से प्रेरित लगता है। यह बात दीगर है कि राजपूतों के स्वयंभू नेताओं ने ऐसा ही एक अटपटा ख्‍वाब बुनने की जुर्रत करने वाले फिल्मकार भंसाली को पीट दिया। भंसाली ने काल्पनिक मानी जाने वाली राजपूतनी पद्मावती व खिलजी के बीच प्रणय निवेदन के स्वप्न दृश्य को फिल्म में दिखाने का ख्‍वाब देखा था। उसी तर्ज पर महाराणा प्रताप को नायक के रूप में अभेद्य एवं चमकदार कवच में पेश करने की योजना बन रही है। सही बात यह है कि अगर महाराणा हल्दीघाटी में जीत जाते तो उतने बड़े नायक नहीं बन पाते जितने हार कर भी अभी वे हैं। फिल्मी इतिहास के ताजा एपीसोड में उन्हें सिंघम जैसा फिल्मी चोला पहनाने की जो तैयारी चल रही है, वह लोगों के मानस में पहले जैसा हिट नहीं होगा, यह तय है। जो भी हो, इसके साथ ही हल्दीघाटी में तथ्यों एवं कपोल कल्पना के बीच युद्ध का डंका बज गया है। इस लड़ाई में किसकी जीत होनी है यह देखना बहुत दिलचस्प होगा।

हल्दीघाटी की लड़ाई के इतिहास के सीन पर कैंची चलेगी तो इस मैदान में अकबर दी ग्रेट दुम दबा कर भागते हुए दिखेंगे। इन नए दृश्यों के प्रणेताओं का कहना है कि यह तो माक्‍र्सवादी इतिहासकारों की कारस्तानी थी जिन्होंने तथ्य को पलट दिया। लेकिन अभी तक के तथ्यों व स्रोतों के हिसाब से अकबर ही विजेता हैं जिसे पलटे जाने का वे आरोप लगा रहे हैं।

प्राचीन व मध्य भारत के इतिहासकार इरफान हबीब ने भगवावादियों के इस नए खयाल को हास्यास्पद करार दिया है। माक्‍र्सवाद से प्रभावित हबीब ने आउटलुक हिंदी से बात करते हुए कहा- हार को जीत में तब्‍दील करना, उसे उल्टा-सीधा खड़ा करना उनकी फितरत रही है। इस मनोवृत्ति के राजनेता इतिहास को अपनी मनोग्रंथि के अनुरूप ढालना चाहते हैं। वे इतिहास को आज की अपनी जरूरतों के हिसाब से बदलना चाहते हैं। इतिहास में कपोल कल्पना के लिए कोई जगह नहीं है। आप बेशक इतिहास की घटनाओं को अपने अलग नजरिए से देख सकते हैं, उसे बदल नहीं सकते।

हिंदू व इस्लामिक कट्टरवाद के धुर विरोधी हबीब आगे कहते हैं-महाराणा प्रताप की हार को देखने का नजरिया अलग-अलग हो सकता है। उस पर हमें कोई एतराज नहीं। लेकिन उनकी हार के तथ्य को जीत में बदलने की कोशिश हास्यास्पद के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकती। राजपूत होना अलग बात है, इतिहास लेखन अलग विधा है। राजपूत अपने को आज भी इतिहास से जोड़ कर देखते हैं और अपनी मनोग्रंथियों के वशीभूत इतिहास से छेड़छाड़ करने की भूल से बाज नहीं आते।

हबीब कहते हैं-कथित राष्ट्रवादियों द्वारा ऐसी कोशिशें बहुत पहले से होती आ रही हैं लेकिन अभी भारत का इतिहास एक बेहद तंग दौर से गुजर रहा है। मौजूदा हुकूमत के दौरान इतिहास के तथ्यों पर समय बहुत भारी चल रहा है। उन्हें तो माक्‍र्सवादियों को किसी न किसी बहाने गलियाना है, उनसे तू-तड़ाक करने के लिए नए-नए शिगूफे खड़े करना है। पेशेवर इतिहासकारों को झूठा और बेईमान साबित करना है। उन्हें समझना चाहिए कि इतिहास कोई ऊल-जलूल लेखन नहीं है, एक विज्ञान है। इतिहास लेखन एक गंभीर प्रकल्प है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मध्यकालीन भारत की इतिहासविद प्रो. शिरीन मुशवी भी इस रहस्योद्धाटन पर हैरान हैं। आउटलुक हिंदी से बात करते हुए वे कहती हैं- वे अगर नए तथ्यों से साबित कर दें कि अकबर ने महाराणा प्रताप को नहीं बल्कि महाराणा ने अकबर को हराया था तो इससे बड़ा आश्चर्य और क्‍या हो सकता है। लेकिन आज तक ऐसा कोई साक्ष्य सामने नहीं आया कि हल्दीघाटी की कहानी को ऐसे बदल दिया जाए। मैं कोई अकबर की मुरीद नहीं हूं। बचपन से ही, स्कूल के दिनों से ही महाराणा प्रताप मेरे नायक रहे हैं। हारने के बाद भी उन्होंने अकबर के सामने घुटने नहीं टेके। अपनी बात पर अड़े रहे। उन्होंने एक से एक कठिनाइयां झेलीं। जंगलों की खाक छानते हुए घास की रोटियां तक खाईं। उनकी ये कहानियां मुझे ज्यादा प्रभावित करती हैं। उनकी हार में भी जीत दिखती है। लेकिन यह भी कठोर सच है कि युद्ध में उनकी सेना को अकबर की सैन्य शक्ति के सामने पराजय का मुंह देखना पड़ा था। वे चुटकी लेती हुई कहती हैं- अगर प्रस्ताव के अनुसार बिना किसी साक्ष्य के भी महाराणा प्रताप को विजयी घोषित कर दिया तो बेचारे अकबर को जंगलों की खाक छानते दिखाना होगा। मैं सोचती हूं फिर महाराणा प्रताप की हमारी इतने वर्षों की हीरोवर्शिप

(वीर पूजा) का क्‍या होगा। महाराणा प्रताप सैन्य शक्ति के लिहाज से भले ही कमतर हों लेकिन हारने से महाराणा की वीरता कम नहीं हो जाती ।

मुशवी कहती हैं- राजस्थान सरकार के जिन मंत्रियों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया है उन्हें पहले 1910 में श्यामल दास द्वारा लिखी वीर विनोद नामक किताब पढ़ लेनी चाहिए। उदयपुर आर्काइव में रखी पुस्तकों के इस संकलन को वे पढ़ लें तो उनकी आंखें खुल जाएंगी। मेवाड़ के वीर राजपूतों का यही आधिकारिक इतिहास है। महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदास राजस्थान की संस्कृति और इतिहास को लिखने वाले शुरू के कुछ चंद लेखकों में से एक हैं। उदयपुर के शासक महाराणा सज्जन सिंह ने कविराज को मेवाड़ का एक विश्वसनीय इतिहास लिखने का जिम्‍मा सौंपा था। वीर विनोद को ही मेवाड़ का सबसे शुरुआत में लिखा हुआ सांगोपांग ग्रंथ माना जाता है। उसमें भी हार तो महाराणा प्रताप की ही हुई है। समझ में नहीं आता कि ऐसा कौन सा साक्ष्य हाथ लग गया कि वे बिलकुल नया इतिहास लिखने पर आमादा हो गए हैं। मेरा मानना है कि इतिहास पर अपनी मनगढ़ंत कल्पना थोप कर वे न तो राजपूतों का भला करेंगे न ही इतिहास का भला करेंगे। अगर राजपूतों को यह लगता है कि वे ऐसा कर महाराणा प्रताप की शान में चार चांद लगाएंगे तो यह उनकी भूल है। महाराणा को हम वीर इसलिए समझते हैं क्‍योंकि उन्होंने अकबर के सामने घुटने टेक कर राजपूतों का सिर कभी नहीं झुकने दिया। अपनी खुद्दारी पर कोई आंच नहीं आने दी। हार जीत से कोई छोटा बड़ा नहीं हो जाता। महाराणा हार कर भी हमारी स्मृति में एक महान वीर हैं। वे इतिहास का पुनर्लेखन करें जरूर करें लेकिन तभी जब उन्हें नए तथ्य हाथ लगें।

इस सवाल पर जानी-मानी इतिहासकार एवं नेहरू मेमोरियल म्‍यूजियम एंड लाइब्रेरी की पूर्व निदेशक मृदुला मुखर्जी के मुंह से बरबस निकल गया- ऐवें, कुछ भी! आउटलुक से बात करते हुए वे बोलीं- ऐसा क्‍या नया हाथ लग गया है उन्हें कि वे भाव विभोर होकर यूरेका अंदाज में कह रहे हैं कि अकबर हारा था, महाराणा प्रताप नहीं। ऐसा कुछ स्रोत मिले, नया तथ्य सामने आए, तब इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश हो तो समझ में आती है। इतिहास कोई घर की खेती तो है नहीं कि किसी को हरा दिया, किसी को जिता दिया। कल्पना तो आप कुछ भी कर लीजिए, कौन किसे रोकता है। भंसाली भी तो यही कर रहा था जो आप कर रहे हैं। भंसाली फिर भी फिल्मकार है ऐसा करने को स्वतंत्र है। आप फिल्म तो बना सकते हैं लेकिन कपोल कल्पित इतिहास कतई नहीं लिख सकते। इतिहास को फिर लिखा तब जाता है जब कुछ नया तथ्य सामने आया हो। अंधभक्ति से बात नहीं बनने वाली। साक्ष्य चाहिए। आप अपने तरीके से इतिहास को नहीं हांक सकते।

दूसरी तरफ इतिहास के स्वयंभू पहरुओं को यह गंवारा नहीं कि उसके वीर को कोई हारा हुआ दिखाने की जुर्रत करे। इसलिए उनका मन यह मानने को तैयार ही नहीं हो रहा है कि अकबर विजेता था। ऐसा नहीं कि अकेले महाराणा प्रताप ऐसे नायक हैं जिनकी हार हुई हो। बड़े-बड़े सूरमाओं के जीवन में ऐसे मुकाम आए हैं। फ्रांस के नेपोलियन बोनापार्ट का भी हार से साक्षात्कार हुआ था। वैसे तो उन्हें भी वाटरलू के मैदान में पराजय का मुंह देखना पड़ा।

महाराणा प्रताप की तरह ही भारत के राजा पोरस के स्वाभिमान की हारने के बाद भी नैतिक जीत हुई थी। पोरस को सिकंदर ने हरा तो दिया था लेकिन उनसे घुटने नहीं टेकवा पाया। पोरस ने सिकंदर को माई-बाप नहीं कहा। सिंकदर खुद उस स्वाभिमान से चमत्कृत हो गया था। यही पोरस की नैतिक विजय थी। इस पर हमें नाज भी है।

पेशेवर इतिहासकारों को यह मानने में कोई एतराज नहीं कि अकबर ने भले ही सैन्य शक्ति में महाराणा प्रताप को शिकस्त दी हो लेकिन महाराणा प्रताप की अपने से ज्यादा ताकतवर अकबर पर नैतिक जीत जरूर हुई थी। उनके अनुसार महाराणा को सैन्य ताकत के बूते विजयी करार देने की कोशिश उनकी अबतक कि वीर गाथा की चूलें हिला देंगी। उनका कहना है कि हारने के बाद भी महाराणा प्रताप हमारे हीरो रहे हैं, यह सैन्य जीत से बड़ी बात है।

उन सबसे अलग आरएसएस द्वारा संचालित स्कूल प्रकल्प विद्या भारती के महासचिव रहे एवं शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के संस्थापक दीना नाथ वत्रा इस बात पर अड़ गए कि हल्दीघाटी में अकबर नहीं बल्कि महाराणा प्रताप विजयी हुए थे। आउटलुक से बात करते हुए वे कहते हैं- मुझे इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि हल्दीघाटी में महाराणा ने अकबर को धूल चटाई थी। बत्रा बिना लाग- लपेट के कहते हैं- हल्दीघाटी की जिस सच्चाई पर पर्दा डाला गया वह यह है कि अंतत: इस युद्ध में महाराणा प्रताप की ही जीत हुई थी। महाराणा प्रताप पहले पीछे जरूर हटे थे लेकिन फिर वापस पलट कर उन्होंने अकबर को शिकस्त दी थी। यही सच्चाई है और इस मामले में निश्चित रूप से इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत है।

बत्रा आगे कहते हैं- मैंने भारत की गौरव गाथा के स्थल हल्दीघाटी की यात्रा की। वहां से एक बोरी मिट्टी ले आया। बच्चों-बड़ों के जन्मदिन के मौके पर उनके माथे पर मैं उसी मिट्टी का तिलक लगाता हूं। गिफ्ट के रूप में भी उन्हें इसी मिट्टी की एक पुडिय़ा देता हूं। अपनी रौ में बोलते चले जाते हैं- अंग्रेजों ने भारतीय मानस में हीनता का भाव भरने के लिए भारत का सारा इतिहास विकृत कर दिया। जो भी हमारे गौरव के प्रसंग थे, उन्होंने उन्हें कलुषित करने का काम किया। हमें उन कलंकों को धोना है। जो सच्चाई है उसे सामने लाने में क्‍या हर्ज है। उन्होंने हद तब कर दी जब औरंगजेब को जिंदा पीर का खिताब और शिवाजी को लुटेरा करार दिलवा दिया। उनकी नजर में वीर भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी आतंकवादी थे। अपनी इन्हीं विकृत सोच को उन्होंने इतिहास में दर्ज करवा दिया। उनके इतिहास को मानें तो भारत हमारा देश ही नहीं रहेगा, हम बाहरी माने जाएंगे। उनका इतिहास कहता है कि भारत न तो हिंदुओं का था और न हीं मुसलमानों का क्‍योंकि दोनों बाहर से आए थे। हिंदू इस देश को अपना कैसे कह सकते हैं।

बत्रा आगे कहते हैं- इसी तरह पोरस को पकड़वा कर सिकंदर के सामने पेश करवा दिया इन सब ने। एक गीत है- यूनान का सिकंदर तेरे तट पर हारा, झेलम तू ही बता पोरस की वीरता। वे कहते हैं- हल्दीघाटी छोडि़ए, सिकंदर और पोरस के बीच युद्ध को भी अंग्रेजों ने झूठ के रूप में पेश किया। सिकंदर जीतेंगे कहां से, वे तो वापस लौटने के लायक भी नहीं रहे। पोरस ने तो समंदर में ही उनकी कब्र बना दी थी, वह लौट ही नहीं पाया था। इतिहास के ये सफेद झूठ हटने ही चाहिए।

बहरहाल, हल्दीघाटी एवं वाटरलू में एक साम्‍य है। इन दोनों युद्धों में नायकों को शिकस्त मिली थी। हल्दीघाटी में मेवाड़ के नायक महाराणा प्रताप की और वाटरलू में महान सेनानी फ्रांस के नेपोलियन बोनापार्ट की हार हुई थी।

राजनाथ स‌िंग

'महानता’साबित करने की कोशिश

केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ ने 2015 में इस बात पर एतराज जताया था कि केवल अकबर को ही ग्रेट का तमगा दिया गया। उनके अनुसार महाराणा प्रताप को यह खिताब मिलना चाहिए था। तभी से राजस्थान के नेताओं एवं राजपूत संगठनों की बांहें फड़क रही हैं। वे अकबर को हारा हुआ दिखा कर महाराणा को ग्रेट होने की पदवी दिलाने पर आमादा हैं।

ऐसा नहीं कि भारत में ही ऐसी सोच परवान चढ़ रही। अपने-अपने नायकों को तथ्य से परे जाकर महिमा मंडित करने की प्रवृत्ति ग्लोबल है। नेपोलियन बोनापार्ट फ्रांस के लोगों के लिए नायक थे और वाटरलू में उनकी शिकस्त भी वहां के लोगों को खलती रही है। फ्रांस के लोग भी मानते हैं कि वाटरलू में पहले नेपोलियन ने दुश्मन को हरा दिया था। फ्रांस में भी इतिहासकारों का ऐसा समूह है जिन्हें अपने राष्ट्रीय नायक पर इतना नाज है कि वे यह स्वीकार नहीं कर पाते कि वे हार गए थे। एक साल पहले राजस्थान में तब विवाद उठा था जब स्कूल शिक्षा विभाग ने अकबर के नाम के आगे से ग्रेट हटा दिया था। 

लेकिन भावनाएं जो भी हों, इतिहास के तथ्य दुनिया की हर देशों की सरकारों के लिए पाक रहे हैं। उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों के आर्काइव में कभी कल्पनाओं का उपद्रव नहीं होने दिया। भारतीय प्रकरण में नया यह है कि मौजूदा सरकार के कुछ मंत्री ही इतिहास पुनर्लेखन की तरफ उद्दत हैं। मोहम्‍मद गोरी के हाथों पृथ्वीराज चौहान की शिकस्त को भी उल्टे चश्मे से देखने की ऐसी ही कोशिश राजस्थान में हो चुकी है।

 

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