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अपने दम पर राज करतीं सरपंच

महिला सरपंचों ने काम करके दिखा दिया कि वह पुरुषों से कम नहीं, अब खुद लेती हैं फैसले और लीक से हटकर करना चाहती हैं काम
म‌ह‌िलओं के साथ ब‌िहार की शकुंतला काजमी

घूंघट की ओट से बाहर निकलकर कामयाबी की मिसाल कायम करने वाली महिला सरपंचों ने यह बता दिया कि अब उन्हें काम करने के लिए पति या बेटे का सहारा नहीं चाहिए। महिलाओं को सशक्‍त करने की जो पहल हुई उसमें पंचायती राज का बड़ा योगदान है। इस समय करीब 14 राज्यों में शहरी निकायों में और करीब 17 राज्यों में ग्रामीण पंचायतों में महिलाओं के लिए 50फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। उत्तराखंड, बिहार, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, गुजरात सहित कई राज्यों में पहले ही महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने की व्यवस्था की जा चुकी है। हालांकि कुछ राज्यों में 33 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था ही बनी हुई है। लेकिन इस व्यवस्था से बड़ी संख्‍या में महिलाओं को मुख्‍य धारा से जुडऩे का मौका मिला है।

देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की बात करें  तो प्रधान पति कल्चर से दूर और महिला आरक्षण की दीवारें तोड़तीं महिला ग्राम प्रधान नित नए आयाम स्थापित कर रही हैं । किसी ने अपने गांव की वेबसाइट बनवाई है तो कोई स्वच्छता अभियान में जुटी है। ग्राम समाज की भूमि पर अवैध कब्‍जे के खिलाफ कोई धरने पर बैठ जाती है तो कोई डाकघर के सहयोग से लोगों के बचत खाते खुलवाने में जुटी है। शायद यही कारण है कि प्रदेश की 43.86 फ़ीसदी ग्राम पंचायतें अब महिला प्रमुखों के हवाले है। हालांकि पंचायती राज व्यवस्था के तहत प्रदेश में 33 फीसदी पद ही महिलाओं के लिए आरक्षित हैं बावजूद इसके 11 फीसदी

अतिरिक्‍त सीटों पर प्रदेश के ग्रामीणों ने महिलाओं पर विश्वास जताया है। खास बात यह है कि मुस्लिम बहुल जनपद मुरादाबाद, संभल और रामपुर में यह आंकड़ा  पचास फीसदी से भी अधिक है। बेशक प्रदेश की पंद्रह फीसदी ग्राम प्रधान निरक्षर हैं मगर ऐसी प्रधानों की संख्‍या भी अच्छी खासी है जो बेहद पढ़ी-लिखी हैं।

चार महिला प्रधान तो पीएचडी डिग्रीधारी भी हैं। यही वजह है कि महिलाओं को प्रधान चुनने वाले ग्रामवासी उनसे निराश नहीं होते। हाथरस के ग्राम सासनी की प्रधान अनिता उपाध्याय को हाल ही में रानी लक्ष्मी बाई वीरता पुरस्कार से नवाजा गया है। अनिता को केंद्र सरकार की सॉफ्टवेयर प्लान प्लस योजना में गांव का डाटा लोड करने के लिए यह पुरस्कार मिला। अनिता बताती हैं कि उनके द्वारा गांव में लिंगानुपात, स्वच्छता और पेयजल के क्षेत्र में कार्य करने हेतु भी सम्‍मानित किया जा चुका है। औरैया के गांव उदयीपुर की प्रधान प्रतिमा यादव, नगुपुर की प्रधान शांति देवी, शिवपुरवा की गीता देवी और जालौन जिले के गांव भरसुडा की सुमन यादव को भी ग्राम पंचायत में सराहनीय कार्य के लिए स्वयं मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव ने रानी लक्ष्मी बाई वीरता पुरस्कार से नवाजा। यही नहीं भदोही के नवधन गांव की 62 वर्षीय प्रधान मालती उपाध्याय को स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक आयोजन में प्रशस्तिपत्र देकर सम्‍मानित किया। मालती देवी ने गांव में घर-घर जाकर लोगों को डाकघर में खाता खोलने के लिए प्रेरित किया और पांच सौ परिवारों वाले गांव में चार सौ खाते खुलवाए। सुल्तानपुर के गांव भपटा की ग्राम प्रधान बिंदू सिंह ने अपने गांव की वेबसाइट ही बना डाली और उसमें गांव के हर व्यक्ति से संबंधित जानकारी डाल दी। बिंदू के पति हेमंत सिंह कोऑपरेटिव बैंक के चेयरमैन हैं। बिंदू की वेबसाइट का उद्घाटन स्वयं जिलाधिकारी एस राजलिंगम ने किया। बस्ती जिले के गांव आभा टिनिम की सुमन भी सुर्खियों में रही हैं। सुमन ने ना केवल अपने गांव में जूनियर हाईस्कूल खुलवाया अपितु गांव को सोलर ऊर्जा से भी जगमग कर दिया। अपने गांव को सबसे पहले ब्रॉडबैंड से जोडऩे के लिए भी उन्हें खूब सराहा गया। ऐसा नहीं है कि महिला प्रधान केवल विकास के एजेंडे को आगे बढ़ा रही हैं, कई तो अपने क्षेत्र में दबंगों से भी लोहा ले रही हैं। अलीगढ़ के ग्राम असरोई की प्रधान इंद्रवती तो उस समय प्रदेश भर में चर्चा का विषय रहीं जब उन्होंने ग्राम समाज की भूमि पर दबंगों के कब्‍जे के खिलाफ अनिश्चितकालीन धरना दे दिया और प्रशासन को भी उनके समक्ष झुकना पड़ा।

इसी तरह से राजस्थान देश के उन चुनिंदा राज्यों में है जहां पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण मिला हुआ है। इसके साथ ही राजस्थान में पंचायती राज व्यवस्था में शिक्षा की अनिवार्यता भी लागू है। इस कारण से हाल के सालों में राजस्थान की पंचायती राज प्रणाली में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। जिसका प्रभाव पंचायती राज व्यवस्था में जिला प्रमुख से लेकर ग्राम सरपंच के पदों तक पड़ा है। राजस्थान में पंचायती राज में महिलाओं को दिए गए 50 फीसदी आरक्षण का सबसे सीधा लाभ उनको यह मिला है कि उनकी भागीदारी पुरुषों के मुकाबले में ज्यादा हो गई है। इसका सीधा कारण यह है कि महिलाएं अपने लिए आरक्षित सीटों के अलावा सामान्य सीटों से भी बड़ी संख्‍या में चुनी जा रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि राजस्थान में जिला प्रमुख के कुल 33 पदों में 16 महिलाओं के लिए आरक्षित हैं जबकि प्रदेश में महिला जिला प्रमुख 19 हैं। इसी तरह पंचायत समिति के प्रधान पद पर महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें 112 हैं जबकि इस पद पर 125 महिलाएं हैं। यह सिलसिला सरपंच स्तर तक है। राजस्थान में महिला संरपंचों के 4359 सीटें आरक्षित है जबकि महिला सरपंच इससे 465 ज्यादा यानी 4824 हैं। राजस्थान में पंचायती राज व्यवस्था में वसुंधरा राजे की सरकार ने दो साल पहले शिक्षा की अनिवार्यता लागू की थी। अब सरपंच बनने के लिए आदिवासी क्षेत्र में पांचवीं तथा गैर आदिवासी क्षेत्र में आठवीं पास होना अनिवार्य है।

आरक्षण और शिक्षा की अनिवार्यता ने महिलाओं की स्थिति में संख्‍यात्मक और गुणात्मक दोनों ही रूपों में सुधार किया है। महिलाओं की गांव की सरकारों में जहां भागीदारी बढ़ी है वहीं वे और अधिक प्रभावी तथा सक्रिय रूप में काम करने लगी हैं, जिससे ग्राम पंचायतों में पुरुषों का एकाधिकार कमजोर होने लगा है। सरपंच पति की भूमिका कम होती नजर आने लगी है। राजस्थान के उदयपुर और दूसरे आदिवासी जिलों में लंबे समय से कार्यरत एनजीओ 'आस्था’ के अश्विनी पालीवाल का मानना है कि आदिवासी अंचल में बहुतायत में महिला सरपंच अब पंचायत के कामकाज में पूरा वक्‍त दे रही हैं, गांवों के विकास में उनकी भागीदारी बढ़ी है, वे पुरुषों के वर्चस्व से बाहर आ रही हैं। इसमें स्वयंसेवी संस्थाएं भी उनकी मदद कर रही हैं। लेकिन दूसरे जानकारों का मानना है कि सरपंच महिलाओं की स्थिति अब भी कोई बेहतर नहीं हुई है। पुरुषों का प्रभुत्व अभी बरकरार है। जब तक महिलाएं पुरुषों के प्रभुत्व से बाहर नहीं निकलेंगी तब तक आरक्षण और शिक्षा के कानूनों का लाभ नहीं मिलेगा। लेकिन इन सबके बीच बहुत सी महिला सरपंच हैं जो लीक से हटकर गांव-समाज के लिए काम कर रही हैं।

बिहार देश का पहला राज्य है, जहां त्रिस्तरीय पंचायती राज में महिलाओं के लिए 50 फीसदी सीटें आरक्षित हंै। इसे आरक्षण ने महिलाओं को खासकर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं को घर की दहलीज लांघकर एक विस्तृत फलक दिया है। जहां वे चूल्हा-चौका से दीगर अपनी सशक्‍त क्षमताओं से समाज को रू-ब-रू करा रही हैं। ये महिलाएं घरेलू मसलों से लेकर सामाजिक व राजनीतिक फलक पर अपनी  सशक्‍त उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब भी हो रही हैं। सूबे में महिला सशक्तिकरण की धार धीरे ही सही पर अब दिखाई देने लगी है। इसका उदाहरण ग्रामीण इलाकों में देखने को मिल रहा है। बेटियों को साइकिल चलाकर स्कूल भेजना और पंचायत प्रतिनिधियों का सशक्‍त होकर आवाज उठाना ये सारी बातें निश्चय ही महिला के हौसलों को लगे पंख की कहानी बयां करती हैं। इससे दीगर 2006 में पहली बार पंचायत प्रतिनिधि के रूप में जीतकर आयी महिलाओं के पतियों के लिए मुखियापति व सरपंचपति जैसे नए शब्‍दों का ईजाद हुआ था।

क्‍योंकि ये महिला प्रतिनिधि सिर्फ मुहर के रूप में कार्य करती थी। बैठकों से लेकर पंचायत व प्रखंडों के सारे निर्णय इनके पतियों द्वारा ही लिया जाता था और प्रशासनिक महकमे भी अपनी अप्रत्यक्ष सहमति जताने में पीछे नहीं थे। वहीं, अब सारा मंजर बदला-बदला सा है। पंचायत प्रतिनिधि के रूप में अपने अधिकारों के प्रति सजगता महिलाओं ने 2011 के पंचायत चुनाव से ही दिखाने लगी थी लेकिन 2016 के चुनाव के बाद इन महिलाओं में गजब का आत्मविश्वास दिखने को मिल रहा है। अब वे पुरुष नौकरशाहों के साथ भी मुखर होकर संवाद करने में हिचकिचाती नहीं है। स्वयं सहायता समूह के सहारे समाज में अपनी सशक्‍त उपस्थिति भी दर्ज करा रही है। इस बावत पूर्णिया की मेयर विभा देवी ने बताया कि मैंने राजनीति के उतार-चढ़ाव को काफी समय से देखा है। वैसे तो मैं पहली बार मेयर बनी हूं, लेकिन 50 फीसदी के आरक्षण से काफी महिलाएं अब घर की देहरी लांघकर राजनीति में आने की हिम्‍मत जुटा रही हैं। पूर्णिया की वार्ड पार्षद किरण देवी ने बताया कि मैं अपनी मर्जी से राजनीति में हूं। मेरे पति नौकरी करते हैं, उसके बावजूद पार्षद बनने के बाद मेरे कामकाज की क्षमताओं में काफी बढ़ोतरी हुई है, अब मुझे कोई फैसला लेने में हिचकिचाहट नहीं होती। वहीं सुपौल जिले की घोंघरिया की मुखिया अमृता जिसने जिले में सबसे ज्यादा वोटों से जीत हासिल की है, ने कहा कि मैं 2005 से ही राजनीति में हूं। इस दरम्‍यान काफी बदलाव आया है। जहां तक आरक्षण की बात है इससे हमलोगों को हिम्‍मत अवश्य मिली है। अमरपुर की उपप्रमुख सुजाता वैद्य भी महिलाओं के हौसलों का सम्‍मान करती हैं। सहरसा जिले के बडग़ांव की मुखिया डॉली ने बताया कि आरक्षण से महिलाओं को फायदा तो हुआ है, उनमें आत्मविश्वास व किसी भी परिस्थिति से निपटने की क्षमता में इजाफा भी हुआ है। जाहिर है कि बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ने महिलाओं को पचास फीसदी पंचायती चुनाव में आरक्षण देकर एक अच्छी शुरुआत तो की है। लेकिन जमीनी स्तर सफल होने में अभी वक्‍त लगेगा।राजस्थान की मंजू मेघवाल

 

काम ने दी अलग पहचान

सिरोही जिले की सेलवाडा ग्राम पंचायत की सरपंच मंजू मेघवाल अपने पद के उत्तरदायित्व के लिए, अपने स्वयं के अधिकारों की लड़ाई समाज से लडऩे के साथ-साथ अपने कर्तव्यों को भी बखूबी निभा रही हैं। वे गांव में बाल विवाह, लिंग आधारित गर्भपात, दहेज प्रथा जैसी कुरीतियों के खिलाफ काम करती रहती हैं। मंजू ने विद्यालयों में बालिकाओं के ठहराव सुनिश्चित करने के लिए बालिकाओं के शौचालय की मरम्‍मत करवाई जो कि जर्जर स्थिति में था। बालिकाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मंजू एवं अन्य वार्ड पंचों ने पंचायत के रास्ते में एवं स्कूल के रास्तों में आने वाली झाडिय़ों को कटवाया जिससे बालिकाएं सुरक्षित विद्यालय आ जा सकें। बालिकाओं के साथ मिलकर मंजू ने सूची बनवाई कि गांव में कितनी बालिकाएं हैं जो स्कूल नहीं जा रही हैं और उनके मां-बाप से मिलकर बात की जिससे वह 7 बालिकाओं को स्कूल से जोड़ पाने में सफल रह पाईं और अभी प्रयास जारी है। बालिकाओं के लिए रोजगार सुनिश्चित करने के लिए 10 बालिकाओं के आवेदन कौशल विकास योजना के तहत करवाया है। मंजू लगातार आंगनबाड़ी केंद्र, विद्यालय, मनरेगा कार्य, उप स्वास्थ्य केंद्र आदि की निगरानी लगातार करती रहती हैं। पंचायत के अन्य विकास कार्य भी बखूबी निभा रही हैं। मंजू सेलवाड़ा पंचायत से सेरूवा गांव को जोडऩे के लिए विधायक फंड से 5 से 7 किमी लंबी सडक़ निर्माण का कार्य करवा रही हैं और पंचायत की चार दिवारी का निर्माण हो चुका है। शौचालय और रिकार्ड रूम भी निर्माणाधीन है। मंजू सरपंच का विशेष ध्यान किशोरी बालिकाओं की शिक्षा और विकास पर केंद्रित है उन्होंने अपनी पंचायत में किशोरी बालिकाओं के लिए संदर्भ केंद्र बनाया है जिसमें किशोरी बालिकाओं के मानसिक, शारीरिक विकास को ध्यान में रखते हुए संदर्भ सामग्री रखी हुई है, जैसे-खेल सामग्री (बैट बॉल, रैकेट, फुटबाल, वालीबाल), कॅरियर गाइडेंस, जनरल नालेज, सामाजिक न्याय आदि किताबें और आयरन की गोली, सेनेटरी पैड संदर्भ केंद्र में उपलब्‍ध है। उज्ज्वला योजना के तहत मंजू सरपंच ने 25 बीपीएल परिवारों को गैस कनेक्‍शन दिलवाए।

बूढवाल की सरपंच आशा देवी

छोड़ो निराशा आ गई आशा

'छोड़ो निराशा आ गई आशा’ के नारे के साथ राजस्थान के बहरोड़ तहसील की बूढ़वाल ग्राम पंचायत का चुनाव जीतने वाली सरपंच आशा देवी गांववासियों के लिए एक नई उम्‍मीद की किरण बनकर उभरी। सुबह से शाम तक घर पर लगने वाली महिला-पुरुषों की कतार की समस्याओं को सुलझाने के साथ-साथ उनकी चाय-पानी की व्यस्था भी खुद ही संभालती हैं। अलवर जिले की सबसे पुरानी एवं पिछड़ी पंचायतों में से एक बूढ़वाल का सरपंच चुने जाने के बाद आशा देवी ने शत-प्रतिशत बालिका शिक्षा और कन्या भू्रण हत्या के खिलाफ बीड़ा उठाया। दसवीं तक की पढ़ाई करने वाली आशा ने बताया कि अब वे चाहती हैं कि उनकी पंचायत की कोई भी लडक़ी स्नातक से कम पढ़ी-लिखी नहीं हो। महिलाओं और बालिकाओं को सुरक्षित रहने के उसायों की जानकारी देने लिए भी जागरूकता अभियान चलाना चाहती हैं। उन्होंने गांव के स्कूल में बालक बालिकाओं को उच्च शिक्षा हासिल करने की प्रेरणा देकर और गांव के मुख्‍य मार्ग को चौड़ा करवाने की शुरुआत करके सरपंच के रूप में गांव वालों पर अपनी छाप भी छोडऩा शुरू कर दिया है। हाल ही में आशा देवी की पहल के बाद ग्रामीणों ने फैसला किया कि अब गांव में किसी भी समारोह में डीजे नहीं बजेगा। आशा का कहना है कि इससे गांव में पढऩे वाले बच्चों को दिक्‍कत होती है। इस फैसले के साथ-साथ कई सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का जो उन्होने बीड़ा उठाया है। आशा देवी राजस्थान की उन सरपंचों में शामिल हैं जिन्हें दिल्ली में पंचायती राज मंत्रालय की ओर से आयोजित कार्यफ्म में गांव का विकास कैसे हो विषय पर अपने विचार भी रखे। आज आशा के काम की तारीफ आसपास के गांवों में भी हो रही है।

रायपुर की सरपंच गीता देवी राव

लड़कियों के हक की बनी आवाज

राजस्थान के आदिवासी सिरोही जिले के रायपुर ग्राम पंचायत की सरपंच हैं गीता देवी राव। वे 8वीं तक पढ़ी हैं व उनकी दो पुत्रियां हैं। 2015 के पंचायत चुनाव में इनके सामने तीन प्रतिद्वंद्वी और थे लेकिन जीत गीता राव को मिली। इन्होंने जिला कलेक्‍टर के सामने एक ही बात रखी की सडक़ निर्माण, पानी, बिजली, आवास ये काम तो हर सरपंच करवाता है। मुझे यह सब नहीं करवाना, यह तो होते ही रहेंगे। मुझे तो अपने गांव की लड़कियों के लिए कुछ खास करना है। मेरे गांव में लोग अपनी लड़कियों को नहीं पढ़ाते व उनकी छोटी उम्र में ही शादी करवा देते हैं। मैं यह सब रोकना चाहती हूं। गीता देवी अपने सारे काम खुद करती हैं। वे अपनी ग्राम पंचायत में 'स्वच्छ भारत मिशन’ के अंतर्गत काम करवाती हैं व लड़कियों को बाल-विवाह, कन्या भू्रण-हत्या, दहेज जैसे मुद्दों पर जागरूक करती हैं। उनका यही एक सपना है कि उनकी पंचायत में किसी लडक़ी का बाल-विवाह न हो और लड़कियों को अच्छी शिक्षा मिले।

गीता की पंचायत में नौ गांव आते हैं जहां से लोग पंचायत में नहीं पहुंच पाते तथा योजनाओं से वंचित रह जाते हैं। इसे देखते हुए गीता ने एक विशेष अभियान चलाया 'सरपंच आपके द्वार।’ अभियान के तहत पूरे पंचायत के अधिकारियों के साथ हर गांव में कैंप लगाया और लोगों की समस्याओं का निपटारा किया। उनके इन कार्यों को अब जिले के अन्य सरपंच भी कर रहे हैं। इसी के साथ उनकी पंचायत में 35 वर्षों से बंजारा समुदाय के जो लोग खुले में रहते थे, गीता ने कोशिश करके उन्हें भूमि आवंटित की और उन्हें घर बनाने के लिए मुख्‍यमंत्री आवास योजना से जोड़ा।

किशोरियों के विकास के लिए गीता हमेशा आगे रहती हैं। जो लड़कियां स्कूल छोड़ चुकी हैं उन्हें वापस ओपन स्कूल से परीक्षा दिलवाने के साथ ही उनके स्वास्थ्य की जांच आदि की व्यवस्था की है। उन्होंने अपनी पंचायत के नाकारा पड़े भवन को बालिकाओं के लिए संदर्भ केंद्र बना दिया है, जिसमें उनको स्वास्थ्य, खेलकूद ग्रुप स्टडी की सुविधा के अलावा अन्य सलाह भी दी जाती है। गीता चाहती हैं कि इस केंद्र में कंप्यूटर लगवाएं और बालिकाओं को कंप्यूटर शिक्षा दें जिससे वे और आगे बढ़ सकें। गीता के प्रयासों से प्रभावित होकर इस बार उन्हें गणतंत्र दिवस पर प्रशासन की ओर से सम्‍मानित भी किया गया है। सरपंच के रूप में गीता की आज गांव वाले ही नहीं बल्कि अन्य गांवों के लोग भी सराहना करते हंैं।

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