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फुटबॉल सा ठोकर खाता विकास का मुद्दा

उत्तर प्रदेश में कभी सच्चाई के साथ इसे धरातल पर पहुंचाने की नहीं की गई कोशिश
अभ‌िज्ञान प्रकाश

हमारे देश में हस्तियों के पराभव पर यह जुमला दागा जाता है कि 'हुए नामवर बेनिशां कैसे-कैसे’। उत्तर प्रदेश के चुनाव में हस्तियों के पराभव की कहानी तो नतीजे बताएंगे पर प्रचार के दौरान जिस मुद्दे को सबसे अधिक चूसा और निचोड़ा गया वह है विकास का मुद्दा। विकास को सबने उछाला। लखनऊ के रहनुमाओं ने आगरा एक्‍सप्रेस-वे और लखनऊ मेट्रो को विकास का पर्याय बताया तो दिल्ली के बाजीगरों ने 24&7 बिजली देने से लेकर बुंदेलखंड और पूर्वांचल विकास बोर्ड बनाने की बात उठाई। मिठाइयां अलग-अलग लेकिन सबकी चासनी एक। विकास की चासनी। बेचारा विकास का मुद्दा सबके पैरों की ठोकर बना। फुटबॉल बन कर रह गया विकास। वैसी गेंद की तरह जो हजारों ठोकरों के बावजूद गोल पोस्ट में जाने में लाचार और विवश रहा।

खुले रूप से उत्तर प्रदेश और विकास पर बात करते ही जेहन में यह भारी संदेह होता है कि क्‍या कोई इसे लेकर वाकई गंभीर है। इंदिरा जी के गरीबी हटाओ नारे से लेकर अब तक यूपी में विकास का बैलून उड़ रहा है लेकिन प्रदेश की तस्वीर देखी जाए तो जाहिर होगा कि जो सियासी दल विकास का शोर मचा रहे हैं उन्होंने भी विकास को सच्चाई के साथ अंजाम तक पहुंचाने की कभी कोशिश नहीं की। अगर कोशिश की होती तो आज तस्वीर जुदा होती। जरा उत्तर प्रदेश पर गौर फरमाएं। पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश पर। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 28 जिले हैं। यह सहारनपुर से औरैया, इटावा तक फैला है तो 30 जिलों वाला पूर्वी उत्तर प्रदेश उत्तर-पश्चिम में बहराइच से दक्षिण-पूर्व के कोने में सोनभद्र तक है। दोनों क्षेत्रों की आबादी और साक्षरता लगभग बराबर है। इसके आगे सब कुछ बेमेल। और सबसे बड़ा बेमेल तो उद्योगों को लेकर है। प्रति एक लाख की आबादी पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 812 फैक्‍टरी कर्मचारी हैं तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रति लाख आबादी पर फैक्‍टरी कर्मियों की संख्‍या 96 है। एक लाख की आबादी पर पश्चिम उत्तर प्रदेश में 12.7 पंजीकृत फैक्‍टरियां हैं तो पूर्वी यूपी में 1.8 पंजीकृत फैक्‍टरियां। पश्चिम में बिजली खपत प्रति व्यक्ति 360 किलोवाट है तो पूर्वी क्षेत्र में महज 156 किलोवाट। पश्चिम के 74 प्रतिशत की तुलना में  पूर्वी उत्तर प्रदेश में 86 फीसदी जमीन पर एक हेक्‍टेयर से कम रकबे वाले छोटे और मझोले किसान खेती करते हैं। यह है उत्तर प्रदेश की तस्वीर। यह तस्वीर सुधरती नहीं। अलबत्ता इसी तस्वीर को बदलने को लेकर कवायद की जाती है और विकास का हंगामा खड़ा किया जाता है। इस असमानता को बहाना बनाकर उड़ाया जाता रहा है विकास का गुब्‍बारा।

भारत में विकास करने के लिए एक सीढ़ी का सहारा लिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस सीढ़ी के सहारे सत्ता के दरवाजे तक पहुंच कर ही विकास करना संभव है। यदि ऐसा है तो फिर यह सीढ़ी कौन सी है, इसका नाम क्‍या है? इस सीढ़ी को जाति कहते हैं। यह विकास के लिए ऊपर पहुंचाती है। इस सीढ़ी के मामले में भी सभी दल एक हैं। उत्तर प्रदेश में इस सीढ़ी को लेकर कोई सियासी भिन्नता नहीं है। अलबत्ता कुछ पार्टियां कहती हैं कि वे जातिवादी नहीं राष्ट्रवादी हैं लेकिन जब मैदान में उतरना होता है तो उसे भी जातिवादी बनना पड़ता है, जातीय समीकरण साधना पड़ता है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव शुरूहोने से पहले कुछ सर्वेक्षणों में यह जोर-शोर से बताया गया कि राज्य का मतदाता रोजगार में बढ़ोतरी और मूल्य वृद्धि पर लगाम चाहता है, उसे जाति से कोई लेना-देना नहीं। यहां तक तो ठीक है। लेकिन आगे मतदाताओं की इच्छा को कौन सुनता है। सर्वेक्षणों की यह राय लोगों तक तो अच्छी लगती है लेकिन जब मैदान में उम्‍मीदवार उतारने की बात आती है तो राजनीतिक दल मुद्दों को छोड़ जातिगत समीकरण साधने में जुट जाते हैं। चुनाव आयोग देखता रहता है और पार्टियां खुले रूप से कहती हैं कि अमुक जाति या धर्म के लोगों को अधिक से अधिक संख्‍या में उम्‍मीदवार बनाया जाएगा। कांग्रेस, भाजपा, बसपा और सपा सभी की तो अपनी-अपनी जातीय सीढ़ी है। यह तो हुई राजनीतिक दलों की बात। अब मतदाताओं के व्यवहार पर गौर करें। किसी भी विश्लेषक के लिए यह समझना कठिन नहीं कि कौन सी जाति उत्तर प्रदेश में किस दल से गलबहियां कर रही है। मतदाता की सदिच्छा और उसके व्यवहार में फर्क है। उसकी इच्छा विकास है लेकिन उसका व्यवहार राजनीतिक प्रदूषण का शिकार है , मतदाता को लगातार राजनीतिक दल जाति के पिंजरे में बांधे रखते हैं और यही प्रदूषण विकास को खोखला बनाए रखता है।

 उत्तर प्रदेश चुनाव में विकास पर मतदाता और राजनीतिक पार्टियों के शोर के अलावा मीडिया का शोर भी सुनाई दिया। चुनाव विश्लेषक और मीडिया विशेषज्ञ स्टूडियो में सब कुछ उगलते हैं। वे विकास की बात भी करते हैं लेकिन मीडिया भी राजनीतिक दलों की तरह जातीय गणना करने में कोई चूक नहीं करता और जातीय अंकों की बाजीगरी करते हुए चुनाव का सार निकालने का प्रयास करता है। ऐसा देखने को नहीं मिलता जिससे लगे कि चुनाव के बाबत मीडिया राजनीतिक दलों से कुछ अलग राय रखता है और वह राजनीतिक दलों की तुलना में विकास को लेकर ज्यादा गंभीर है। मीडिया राजनीतिक दलों से सीधे-सपाट रूप से कभी नहीं पूछता कि आर्थिक विकास के मायने क्‍या हैं। मीडिया चुनाव विश्लेषण करता है। विकास के मामले में विभिन्न दलों को कोसने का प्रयास भी करता है लेकिन स्वयं यह नहीं बताता कि उत्तर प्रदेश में आर्थिक विकास के लिए किस सीमा तक टेक्‍नोलॉजी अपनाई गई, किस हद तक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था में बदली और राज्य के लोगों की जिंदगी में यानी रहन-सहन में कितना सुधार हुआ और नहीं हुआ तो इसके लिए हमारे हुक्‍मरान किस हद तक दोषी हैं।

चुनाव जीतने के लिए जाति बल, बाहुबल, छद्म, प्रपंच और पोलराइजेशन जैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं, विकास को गुब्‍बारा बना कर रखा जाता है ताकि अगले आयोजन में फिर गुब्‍बारा सजे और हवा में उड़े। हारे हुए प्रत्याशी से कहीं अधिक बलि विकास को देनी पड़ती है। यह विकास ही है जो हमारे चुनावों में फौरी रूप से परवान चढ़ता है और चुनाव में समय के साथ-साथ गौण हो जाता है।

(लेखक प्रिंट और टी.वी. से जुड़े वरिष्ठ संपादक एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)

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