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मौसम-ए-रंग में ब्लैक प्रेम

अब कालेपन का बोलबाला और गोरे का मुंह काला है, काले धन से लेकर काले कारनामे तक सब चकाचक
सत्येन्द्र प्रकाश

'काला है दिलदार, गोरेया नूं दफा करो,’ अमरिंदर सिंह गिल के गाने की यह कड़ी आजकल, किसी जमाने की 'लाल छड़ी’ की तरह हर मैदान में खड़ी है। मामला चाहे राजनीति का हो, धर्मभीति का या फिर खेल-शेल का। भारतीय रेल और मेन बजट के घाल-मेल का। सब तरफ काले का बोलबाला है। बात खाने की हो या कि खजाने की, वही खास है जो काला है। धर्म-समाज से राजकाज तक पीले रंग का है धमाल, पर कभी की सिरचढ़ी, आज सिकुड़ी-सिमटी है पीली दाल। बड़े-बड़े खवैयों के थोबड़े का रंग करिया जाता था, सुनते ही कि दाल में कुछ काला है। तब तो और जब कोई सामने से अपने मुंह का गुब्‍बारा फुलाकर धार झोंक देता कि 'दाल में कुछ काला नहीं, पूरी दाल ही काली है।’ अब नेता, अफसर, बंदे और खास कर राजधानी तक 'रेस’ लगाने के 'कोर्स’ में अव्वल आने वाले कारिंदे, सबकी जुबान पर चढ़ी  है दाल काली। 'रेडरोज’ के वंशज धक्‍के खा रहे, स्ट्रीट से मंच तक, सिंगल से बंच तक 'फटे कुरते’ वाले 'हाथ’ में मुरझाते, और प्रिविलेज पा रहे 'काले गुलाब’ और उनके 'माली।’

काला जामुन-काला अंगूर और यहां तक कि कालामुखी लंगूर अब अधिक भाने लगा है। राजा की 'मन’ माती, पानी बिना मर रही, घास के नाश पर विलाप करती कचरा चर रही, गोरी गाय को 'सबकी माय’ कहे जाने से 'कल की लछमी’ काली भैंस नाराज है। उधर गो-चर्म से अपना धर्म जोडऩे वालों की पीठ-पेट लाल कर रहे गो-सेवकों की 'पिचकारी’ के सामने शब्‍दों का सीना फुलाए नट राजा से चिढ़ कर या इस भय से उपजी प्रीतिवश कि उसकी पीठ पर यमराज है, भैंस माता कही जाने लगी है।

काली पूजा वाले इस देश में, जहां जीते-मरते हैं हम अनगिनत भाषा-भूषा, भेस में, काले के ठाट निराले हैं। इसीलिए हम गाते रहे कि 'काले हैं तो क्‍या हुआ दिलवाले हैं।’ इस रंगीं-मिजाज गाने की याद आते ही मा-बदौलत का रंगहीन मगज भी रंगों से भर गया है। लाल, हरा, बैगनी, वसंती, नीले, पीले सभी होलियाए हुए इतराने लगे, पर रंग काला चढ़ते ही उन सब का मुंह उतर गया है। इनकी खूबसूरती को मानो पड़ोसी कालिस्तान से आया चीनी चूहा कुतर गया है।

शानी के किताबी पोखर से अनुपम मिश्र के '...खरे ...तालाब’ तक फूल-फैल गया है 'काला जल।’ हम नरक पालिका की कृपा से, बजबजाते बचाए रहते हैं यह अपने स्वरूप में निराला जल, कि होली में 'माननीय’ को उन्हीं की देन से नहलाएंगे और मौसम होलियाते ही उनके झुके सिर पर इसे उड़ेल देते हैं। पर धन्य है उनका-हमारा काला प्रेम, कि झुका सिर उठते ही वे हमारा घर-द्वार वन-बाग, मन-शरीर, सडक़-समीर 'नारी’ का नीर अपने कालेपन से भर देते हैं। हम उनके काले दिल पर ओढ़े हुए श्वेतपत्र को स्वीकार, उन पर गोरापन न्योछावर करते अपनी अंगुली 'काली’ कराते हैं। और आप जनाब, हमारे स्याह प्रेम का फायदा उठा कर काले 'पंजे’ पर सफेद दस्ताना चढ़ा हमें गदगदाते हैं और काली देह से निकले श्रम-जल के कीचड़ में अपना 'कमल’ खिलाते हैं और हरियाती उम्‍मीदों पर 'झाड़ू’ फिराते हैं। 'लालटेन’ की लौ कब्‍जयाकर, अंधेरे में सुशासन का 'तीर’ चलाते हैं, और 'साइकिल’ के साथ हमारे पांव तक छीनकर काला धुआं छोड़ती सफारी में फुर्र हो जाते हैं।   

हम ओठ काला कर 'अबकी बार...की सरकार’, के नारे से, घूरने को उद्यत आंख और घायल तन-मन-साख सहलाकर घातक को ही एक बार फिर अंगुली दान कर बना देते हैं करतार। वह अचानक एक काली रात फतवा जारी कर हमारी काली देह को और करियाने के लिए कतार में खड़ा कर देते हैं। कहते हैं यह काला-सफेद करने के कलाकार करोड़पति का कालाधन कारूं (राजा) के खजाने में लाने की नई इस्कीम है। पर सब रंग समेट कर गेरुआ हुए राजा की करियाई आंख का कुछ यूं चला काला जादू कि रातों रात, उसके वही, 'अपने’ जिन्होंने  दिए थे सुनहले सपने, काले चोर हो गए। कौड़ी-कौड़ी जोड़ कर संजोई उनकी रंग-पोटली राख हो गई, कितनों ने गंवाई जान और अगणित आज भी थरथरा रहे, जो अकस्मात हुए रंगवार से सराबोर हो गए।

एक ने 'कालाधन-कालाधन’ का मचाया हल्ला और पंद्रह लाख देने झांसा देकर, खाली करा लिया सबका बटुआ, गल्ला। दूजा रहा इस कदर ज्ञानी कि उसके सिर पर पड़े सैकड़ों घड़ा पानी, फिर भी रहा मौन? राजा तो राजा है, वह शाह के घर ही रंगोली सजाता है और हमारे चेहरे-तन का रंग उड़ाता है। उसने हमारे कुनबे की क्‍यारी, कोठरी काली कर अपनी भरी झोली है। हम अपना मुंह, मन-मु_ी खोलें, इससे पहले ऐलाने-रंग करते हुए कहता है, 'भाइयों-बहनों बुरा न मानो होली है।’

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