लहर मोदी से हतप्रभ राजनीतिक पार्टियां उ.प्र. में भाजपा की सफलता को लेकर कोई फार्मूला या पराजय का बहाना ढूंढ़ रही हैं। बहन मायावती सहित कई नेता और ए.के. 67 वाले अरविंद केजरीवाल और समर्थक अब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में गड़बड़ी के आरोप लगा रहे हैं। इसी तरह अपनी विफलता के लिए इंदिरा गांधी के सत्ताकाल के चुनाव में विरोधी दलों के कुछ नेता 'अदृश्य रूसी स्याही’ से बड़े पैमाने पर चुनावी हेराफेरी के आरोप लगाया करते थे। लेकिन अब तो भारत बहुत बदल गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा या हाल में पराजित हिलेरी क्लिंटन ही नहीं, न्यूयॉर्क टाइम्स और यूरोपीय देशों के नेता और मीडिया भारतीय लोकतंत्र में आधुनिकतम वोटिंग मशीनों से निष्पक्ष चुनाव को 'विश्व में चमत्कार’ की संज्ञा देते हैं। दुनिया में दादागिरी करने वाले करोड़ों भारतीय मतदाताओं की शक्ति का लोहा मान रहे हैं। इस दृष्टि से निर्वाचन आयोग एवं नामी तकनीकी विशेषज्ञों की यह बात स्वीकारी जानी चाहिए कि पार्टियां मशीन की 'भूतिया शैतानी’ के मूर्खतापूर्ण आरोपों के बजाय गहराई से आत्म-मंथन करें और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की दूरगामी रणनीति, तैयारी और भाजपा-संघ द्वारा लगातार मतदाता सूचियों से मतदान केंद्रों पर अपने पक्ष या विरोध में पडऩे वाले वोट का हिसाब-किताब बनाने के तरीकों को समझें।
वोटिंग मशीन में गड़बड़ी की गुंजाइश इसी तथ्य से समाप्त हो जाती है कि लाखों मतदान केंद्रों के लिए वोटिंग मशीन का बंटवारा कोई अधिकारी नहीं कंप्यूटर के जरिए होता है। इसी तरह मतदान केंद्रों पर जाने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों की तैनाती भी कंप्यूटर की लॉटरी व्यवस्था से होती है। मतलब कर्मचारियों का कोई एक गुट षडयंत्रपूर्वक किसी मतदान केंद्र पर ड्यूटी ही नहीं लगा सकता है। चुनाव की घोषणा होने के बाद हर राज्य में संपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था निर्वाचन आयोग के नियंत्रण में आ जाती है। बहन मायावती 'हाथी’ के रौद्र रूप और अरविंद केजरीवाल झाड़ुओं पर रंगीन गुब्बारे सजाकर 11 मार्च की सुबह तक विजय के दावे कर रहे थे। वे कृपया अपने घर-आंगन की सजावट और टी.वी. चैनलों पर प्रवक्ताओं के दावों की वीडियो निकालकर देख लें। चार घंटे बाद उनके गुब्बारे और झाड़ू ही नहीं हाथ के तोतेनुमा झंडे भी हवा में उड़ गए। यदि उन्हें हेराफेरी की शंका थी, तो महीने भर चले मतदान कार्यफ्मों अथवा अंतिम दिनों में निर्वाचन आयोग के समक्ष प्रामाणिक आरोप पेश कर सकते थे। केजरीवाल महाशय ने तो अब दिल्ली नगर निगम के अगले महीने होने वाले चुनाव में गरीब भोले-भाले मतदाताओं की आंखों में धूल झोंक कर बाबा आदम के जमाने की तरह धूल-धूसरित मत पेटियों में असली-नकली कागज पर मुहर वाली व्यवस्था लाने की मांग कर दी, जिसे चुनाव आयोग ने कूड़े के डिब्बे में डाल दिया। बहनजी शिक्षिका रही हैं और ए.के. साहब तो इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद कुछ साल सरकारी कुर्सी गर्म करने के बाद राजनीति में आए हैं। डिजिटल फार्मूले से दिल्ली विधानसभा में चुनाव भी जीते हैं। यदि गड़बड़ी ही करनी थी, तो पंजाब में वर्षों से राज कर रहे बादल की शिरोमणि अकाली दल या उ.प्र. में अखिलेश-मुलायम की समाजवादी पार्टी या उत्तराखंड के अनुभवी कांगे्रसी मुख्यमंत्री हरीश रावत अपने वफादार या समर्थक कर्मचारियों के बल पर क्या परिणाम अपने अनुकूल नहीं कर सकते थे? इसी तरह गोवा या मणिपुर में भाजपा पहले ही झटके में भारी बहुमत क्यों नहीं बटोर लेती?
इस पृष्ठभूमि में सत्तारूढ़ या पराजित पार्टियों को देश में लगभग हर साल होने वाले किसी न किसी चुनाव (पंचायत, पालिका, विधान सभा, लोक सभा) के लिए वोट प्रबंधन और संगठनात्मक ढांचों पर ध्यान देना चाहिए। नरेन्द्र मोदी लगभग 30 वर्षों से संगठन और सत्ता की हर 'स्ट्रीट बे्रकर’ को समझकर विजेता बना सकने वाली गाड़ी-घोड़ों का इंतजाम करना जानते हैं। पहले भाजपा के संगठन पदाधिकारी के रूप में और फिर गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मतदाताओं की नसों को समझने के साथ तैयारी करते हैं। इसी तरह राजनीति से दूर रहकर भी समाज और सत्ता को अपनी विचारधारा और इरादों के अनुरूप बनाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता एवं स्वयंसेवक निरंतर व्यूह रचना करते रहते हैं। जरा याद करें, पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टियों ने तीस साल से अधिक समय कैसे राज किया? उनके पास भी समर्पित कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज रहा करती थी। लंबे अर्से तक सत्ता भोगने के साथ उसके ढांचे में जंग लग गई, तो वह धराशायी है। इसी तरह कांगे्रस पार्टी में सेवादल, महिला कांगे्रस, युवक कांगे्रस और फिर चवन्नी से एक रुपये की सदस्यता वाले लाखों कांग्रेसी कार्यकर्ता होते थे। अच्छे-बुरे कहलाने के बावजूद इंदिरा-संजय गांधी के वैसे ही कार्यकर्ताओं और जनता के बीच साख होने से 1980 में कांगे्रस पुन: सत्ता में आ गई थी। राजीव गांधी को तो पहले सेवादल के प्रमुख की टोपी लगाकर परेड के बाद पार्टी में महत्व मिला। फिर प्रधानमंत्री बनने पर राजीव गांधी ने कांगे्रस के ही कार्यकर्ताओं को 'जिला विकास केंद्रों’ पर तैनात करके सरकार की समीक्षा का काम सौंपा था। अब तो कांगे्रस कार्यकर्ताओं के बजाय किराये के टट्टुओं पर करोड़ों रुपया बहाकर जीत के सपने देखती है। जिला स्तर पर तो ताले हैं, प्रदेश कांगे्रस कार्यालयों के आधे हिस्से दुकानदारों को किराये पर चढ़ा दिये गए हैं।
असली काम है- मतदाता सूची पर ध्यान देना। कुछ पार्टियों के चतुर कार्यकर्ता चुनाव से महीनों-बरसों पहले हर गली मोहल्ले में पता लगाते हैं कि कौन उनका समर्थक है और कौन विरोधी। यदि मतदाता जागरूक नहीं है, तो चुन-चुन कर मतदाता सूची में मौका देखकर नाम कटवाने और जुड़वाने का इंतजाम होता है। गांव का ही नहीं राजधानी दिल्ली का संपन्न एवं अति शिक्षित नागरिक 'वोटर कार्ड’ जेब में लेकर घूमता है, लेकिन मतदान केंद्र पर उसे पता चलता है कि मतदाता सूची में उसका नाम ही गायब है। मतदान केंद्र पर कोई नाम न जुड़ सकता है और न ही कट सकता है। इस फार्मूले पर मेरे एक सवाल के जवाब में पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने यहां तक माना कि उनके कार्यकाल में एक प्रदेश में इस तरह कुछ लाख मतदाताओं के नाम गायब होने की शिकायत सही साबित हुई थी। इस दृष्टि से या तो पार्टियां सक्रिय रहें या मतदाता स्वयं समय-समय पर वोटर लिस्ट में अपना नाम दर्ज होने की पुष्टि कर ले। बहरहाल, मुद्दा यह भी है कि सत्तारूढ़ भाजपा हो या कांगे्रस या समाजवादी या कम्युनिस्ट या कोई अन्य संगठन, अपनी पसंदीदा सरकार लाने के लिए पांच वर्षों तक जनता से जुड़े रहने वाला संगठन होना चाहिए। सामान्य नागरिक कोई बड़ा ठेका, मुनाफा या धंधा नहीं चाहता है। उसे तो दैनंदिन जीवन की समस्याओं या परिवार के संकट में अपने गली-मोहल्ले में छोटी-मोटी सहायता देने वाले की अपेक्षा होती है। कितनी ही बड़ी डिजिटल क्रांति हो जाए, सीधे मानवीय संपर्क बनाए बिना कोई नेता या पार्टी साख नहीं बना सकती। केवल मोबाइल, इंटरनेट से संपर्क और भ्रष्टाचार से नोट कमाने और थोड़ा खर्च करने से चुनावी विजय पक्की नहीं हो सकती है। अपने घर-आंगन और गिरेबान को संभालें। तभी आप और लोकतंत्र विजयी हो सकता है।