रघुनाथ सेठ को बांसुरी वादक के रूप में और फिल्क्वस डिवीजन के बेशुमार वृत्तचित्रों के संगीतकार के रूप में तो सभी जानते हैं पर वह कुछ व्यावसायिक फिल्मों के भी संगीतकार रह चुके हैं यह कम लोगों को पता है। लखनऊ आकाशवाणी, दिल्ली दूरदर्शन और फिल्क्वस डिवीजन में अपनी कला का जादू बिखेरने वाले रघुनाथ सेठ को फिल्क्वस डिवीजन के लघुचित्र अंब्रेला के पाश्र्व संगीत के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है। सन 1961 में रघुनाथ सेठ ने सिर्फ एक गायक कलाकार की आवाज को कोरस में बदलकर अभिनव प्रयोग किया था।
कमलेश्वर की प्रसिद्ध कहानी पर निर्मित चर्चित कलात्मक फिल्म, फिर भी (1971) में संगीत देने के लिए रघुनाथ सेठ को ही चुना गया। फिल्म में मन्ना डे के स्वर में 'यूं प्याला छलकता है’ लाजवाब कंपोजिशन थी जिसमें तबले और सारंगी की संगत के साथ मन्ना डे की आवाज को तरलता देने में रघुनाथ सेठ सफल रहे थे। हेमंत कुमार की गुरु गंभीर आवाज में 'हम चाहें या न चाहें’ गाने को गूंजती शैली और सुंदर धुन के कारण एच.एम.वी द्वारा रिलीज हेमंत के रेयर जेम्स में भी जगह मिली। फिल्म में बच्चन का लिखा खूबसूरत गीत 'सांझ खिले भोर झरे फूल हरसिंगार के’ (हेमंत, रानू मुखर्जी) दुर्भाग्य से फिल्म के साउंड ट्रैक पर ही उपलब्ध है। साउंड ट्रैक पर पं. जसराज और वाणी जयराम के स्वरों में शास्त्रीय आलापों और तानों का भी अपना ही आकर्षण था। कथ्य के रोमांस और अंतद्र्वंद्व के क्षणों को रघुनाथ सेठ के संगीत ने जीवंत कर दिया।
आपातकाल में प्रतिबंधित अमृत नाहटा की विवादास्पद और अत्यंत चर्चित फिल्म किस्सा कुर्सी का संगीतकार के रूप में रघुनाथ सेठ की अगली फिल्म थी। हालांकि इसके लिए पहले जयदेव अनुबंधित थे। उन्होंने एक गीत भी रिकॉर्ड कराया था पर आपातकाल के दौरान फिल्म के प्रथम संस्करण को नष्ट कर दिया गया और दूसरे संस्करण के लिए रघुनाथ सेठ को लिया गया। फिल्म के गीत कहानी के अनुरूप ही व्यंग्य और राजनीतिक संदेश लिए हुए थे, 'जनता की जय बोलो’ (आशा, महेंद्र, साथी) और 'ये रेडियो और मेरी जबान को आफत है’ (कई गायक-गायिकाएं)।
जब निर्माता-निर्देशक विनोद पांडे ने अपनी चर्चित और परंपराओं को तोडऩेवाली फिल्म एक बार फिर का निर्माण किया तो रघुनाथ सेठ को ही बतौर संगीतकार चुना। इस फिल्म के काव्यात्मक गीत 'ये पौधे ये पîो ये फूल ये हवाएं’ (अनुराधा, भूपेंद्र) की रूमानी धुन को रघुनाथ सेठ ने गिटार के सहारे बड़ी संवेदना के साथ उभारा था। दर्द-भरे सुरों के साथ 'जाने ये मुझको क्या हो रहा है’ (भूपेंद्र) में रघुनाथ सेठ बेहद प्रयोगधर्मी लगे। भूपेंद्र से कहां तक आसमां है (1984) में 'जब भी चूम लेता है’, 'कोई जब से शरीके कारवां है’ और 'आओ यहां तनहाई में’ जैसी लाजवाब रूमानी रचनाएं रघुनाथ सेठ ने गायकों से गवाई थीं। शांत
(1982), द लास्ट टाइगर (1983), दामुल (1984) और परिणति (1986) जैसी ऑफबीट फिल्मों में भी सेठ का संगीत था। विनोद पांडे की ये नजदीकियां
(1982) संगीत की दृष्टि से रघुनाथ सेठ की व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म रही। तलत अजीज के मखमली स्वर में 'आवारगी हमारी’, भूपेंद्र के संजीदा स्वर में 'दो घड़ी बहला गई परछाइयां’, अनुराधा के स्वर में मिठास लिए 'एक दौर वो भी था’ तथा 'मैंने एक गीत लिखा था’ और आशा भोंसले का गाया 'कितनी हसीन हैं 'नशीली-नशीली ये नजदीकियां’ जैसे गीतों को सुनना आज भी अच्छा लगता है। इसी प्रकार सीपियां (1982) में भूपेंद्र की खास शैली में नज्म का तरन्नुम लिए
'क्या कहें किससे कहें’ भी आकर्षक रचना थी। आगे मोड़ है (1987) चर्चित तो नहीं हुई पर रघुनाथ सेठ ने इसमें आशा भोंसले से लोकशैली के परिष्कृत रूप में एक सुंदर गीत गवाया था, 'दुपहरिया बंसवरिया पीछे।’ इसी फिल्म में 'अब तो भुला दो मोरी’ लोकशैली पर आधारित बहुत सुंदर विदाई गीत था। 'महका करते हैं खिजां में भी...साथ हर हाल में देती हैं तुम्हारी जुल्फें’ को अनूप जलोटा के विशिष्ट गजल गायकी अंदाज में रघुनाथ सेठ ने ढाला था। हलके ऑरकेस्ट्रेशन के बीच रात की निस्तब्धता को प्रकट करता 'दूर कहीं रातों को’ (भूपेंद्र) और 'एक साल बिरहा’ के साथ आगे मोड़ है रघुनाथ सेठ की उल्लेखनीय फिल्म थी। पर दशक की धूम-धड़ाके भरे संगीत की मुख्यधारा के कारण इस फिल्म का संगीत कमोबेश अनसुना ही गुजर गया। आकांक्षा (1993) और चफ्व्यूह (1996) जैसी ऑफ-बीट फिल्मों में उनका संगीत कैसा था यह तो बिरले ही जानते होंगे।
रघुनाथ सेठ के संगीतबद्ध कुछ गैर फिल्मी गीत भी प्रसिद्ध रहे हैं। उषा मंगेशकर के स्वर में 'अब सौंप दिया’, आशा भोंसले के स्वर में कबीर की प्रसिद्ध रचनाएं 'हमन हैं इश्क मस्ताना’ और 'नैहरवा हमका ना’, हरिओम शरण के स्वर में, 'खन खन नृत्य’, सुधा मल्होत्रा से गवाया 'मैंने किया द्वारिका वास’, मुबारक बेगम की आवाज में 'सावन मास’, वाणी जयराम का गाया 'संपत्ति वंदना’ आदि प्रसिद्ध रचनाएं रही हैं। पीनाज मसानी की गाई कई मशहूर गजलों के कंपोजर रघुनाथ सेठ ही रहे हैं। कतील शिफाई का मशहूर कलाम 'वो दिल ही क्या’ या फिर अन्य शायरों की 'खयाल की सूरत’, 'क्या भला दिल के तड़पने’, 'आंख जब बंद की’ जैसी गजलें भी लोकप्रिय रही हैं।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं।)