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कमाई के दंगल में कहा हैं असली सुल्तान

मैट तक पहुंची पहलवानी से कुश्ती का ककहरा सिखाने वाले मिट्टी के अखाड़ों को मिल रही तगड़ी चुनौती
गांव के अखाड़े में दाव-पेंच

कुश्ती की पृष्ठभूमि पर बनी सुल्तान फिल्म का ग्लैमर पूरे देश के सिर चढ़ कर बोल रहा है। सलमान खान अभिनीत यह फिल्म कमाई के मामले में 200 करोड़ रुपये का आंकड़ा पार कर चुकी है। कुछ ऐसे ही आंकड़े कुछ माह बाद आने वाली आमिर खान की दंगल की कमाई के भी आ सकते हैं। सुल्तान और दंगल को लेकर बना क्रेज बताता है कि देश में कुश्ती के चाहने वाले कम नहीं हैं। पर विडंबना देखिए,पहलवान होने का दिखावा (एक्टिंग) करने वाले तो करोड़ों कमा रहे हैं लेकिन असली पहलवान आर्थिक मोर्चे पर संघर्ष करते ही नजर आते हैं। कुछ नामी-गिरामी पहलवानों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश की हालत ज्यादा अच्छी नहीं कही जा सकती। खासतौर से उन पहलवानों की जिन्होंने कुश्ती का ककहरा मिट्टी के अखाड़ों में सीखा है और जिनमें आज भी पारंपरिक कुश्ती को जिंदा रखने का जज्बा है। देश की ज्यादातर व्यायामशालाएं (अखाड़े व्यायामशालाओं का ही हिस्सा होते थे।) दान और चंदे पर ही निर्भर हैं। तीज-त्योहारों और खास मौकों पर दंगलों का आयोजन तो आज भी खूब हो रहा है लेकिन मिट्टी के अखाड़ों में कुश्ती के दांवपेच सीखने वाले पहलवानों के लिए अवसर सिमट रहे हैं। अब कई बड़े दंगल मिट्टी नहीं, मैट पर हो रहे हैं। गांव-देहात में मिट्टी में कुश्ती लड़-लड़ कर बड़ा हुआ पहलवान मैट पर गच्चा खा जाता है। मिट्टी पर चित और पट का खेल मायने रखता है तो मैट पर अंक जुटाने की चतुराई ज्यादा काम आती है। यही वजह है कि मिट्टी पर जो पहलवान ताकतवर है वह मैट पर वैसा साबित नहीं हो पाता। पूर्व प्रसिद्ध पहलवान जगदीश कालीरमन कहते हैं, ‘सवाल मिट्टी और मैट का नहीं है। सवाल है अवसर का। अगर आप आगे बढ़ना चाहते हैं, ओलंपिक और अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में देश का नाम रोशन करना चाहते हैं तो आपको मैट पर अपनी दक्षता साबित करनी ही होगी। पिछले दो ओलंपिक में हमने तीन पदक मैट पर लड़कर ही जीते हैं। अगर हमारे खिलाड़ी सिर्फ मिट्टी पर अभ्यास करते तो ये पदक कैसे आते।’

यह बात बेशक अपनी जगह सही है लेकिन परंपरागत कुश्ती का क्या? किसी भी पहलवान से पूछ लीजिए। उसे सौंधी-सौंधी खुशबू वाली मिट्टी ही अखाड़े में खींचती है। पर, उसी मिट्टी से पहलवानों की दूरी बढ़ रही है। पर जगदीश कालीरमन इस बात से इत्तफाक नहीं रखते। वह कहते हैं, ‘जिन अखाड़ों में मैट पर अभ्यास कराया जाता है, वहां भी मिट्टी के अखाड़े हैं। मैट पर अभ्यास करने वाला पहलवान मिट्टी के अखाड़े में भी लड़ सकता है। जब कोई बड़ा टूर्नामेंट नहीं होता तो कई नामी पहलवान दंगलों में भाग लेते हैं।’

निजी या सामाजिक संस्थाओं द्वारा आयोजित दंगलों को छोड़ दिया जाए तो कुश्ती संघों से लेकर सरकार तक उन्हीं पहलवानों को तवज्जो देती है जो मैट पर लड़ते हैं। मिट्टी के अखाड़ों में लड़ने वाले पहलवानों के लिए तो गांव-कस्बों की कुश्तियों में मिलने वाला इनाम ही आजीविका का सहारा बन पाता है। पर इसके बावजूद कुछ तो बात है कि परंपरागत कुश्ती का आकर्षण बना हुआ है। उत्तर प्रदेश के बनारस, गाजियाबाद, मेरठ, आगरा, हरियाणा के पानीपत, सोनीपत, भिवानी, मध्य प्रदेश के भोपाल, इंदौर से लेकर महाराष्ट्र के कोल्हापुर औऱ सांगली तक के कई अखाड़े परंपरा को संजोए हुए हैं। कोल्हापुर और सांगली के दंगलों में हजारों लोगों का जुटना सामान्य सी बात है।

मुलायम सिंह और अखिलेश यादव का कुश्ती प्रेम जगजाहिर है

पर, इस सबके बावजूद यह एक तथ्य है कि ओलंपिक सरीखी प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर देश का नाम रोशन करने की इच्छा युवा पीढ़ी को मैट पर कुश्ती लड़ने के लिए प्रेरित कर रही है। ओलंपिक, राष्ट्रमंडल खेलों तथा अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त और नरसिंह यादव सरीखे पहलवानों की सफलता से यह तो हुआ कि कुश्ती को अब गंभीरता से लिया जाने लगा है। पिछले कुछ वर्षों में पहलवानों की संख्या में भी अच्छा-खासा इजाफा हुआ है। पर, अब भी यह खेल शहरी युवाओं को लुभा नहीं पाया है। जगदीश कालीरमन बताते हैं, ‘ज्यादातर बच्चे साधारण किसान परिवारों से ही आ रहे हैं।’ शायद इसकी एक वजह यह भी है कि अन्य खेलों के मुकाबले कुश्ती ज्यादा मेहनत और ताकत मांगती है। कुश्ती मैट पर लड़ें या मिट्टी पर तैयारी के लिए शारीरिक तपस्या एक जैसी ही है।

ओलंपिक में भारत के लिए पहला व्यक्तिगत पदक खाशाबा जाधव ने 1952 में हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती में ही जीता था लेकिन इसके बावजूद कुश्ती और पहलवान उपेक्षा के शिकार रहे हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले पहलवानों को जीवनयापन के बारे में नहीं सोचना पड़ता, लेकिन आज भी ऐसे अनेक पहलवान हैं जो गरीबी में जीवन काट रहे हैं।

हां, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार ने पहलवानों की मदद के लिए जरूर अच्छी पहल की है। हरियाणा में जिला स्तरीय प्रतियोगिता से लेकर राज्य स्तरीय प्रतियोगिता के विजेताओं के लिए पुरस्कार राशि में इजाफा किया गया है। हरियाणा के खेल मंत्री अनिल विज बताते हैं, ‘हरियाणा सरकार ने गत 23 मार्च को शहीद दिवस पर राष्ट्रीय स्तर का भारत केसरी दंगल का आयोजन किया। इस प्रतियोगिता में एक लाख से लेकर एक करोड़ रुपये तक के इनाम बांटे गए। अब हर वर्ष 23 मार्च को यह प्रतियोगिता आयोजित की जाएगी।’

इतना ही नहीं, हरियाणा सरकार गांवों में बंद पड़े अखाड़ों को फिर से खोलने पर भी काम कर रही है। कुछ अखाड़े तो खुलने भी शुरू हो गए हैं। अनिल विज बताते हैं, ‘योग और व्यायामशाला के लिए गांवों को जमीन दी जा रही है। सरकार ऐसे 100 अखाड़ों में जिम और मैट्स की व्यवस्था करेगी जो अच्छे खिलाड़ी निकाल रहे हैं।’

हरियाणा के पुरुष पहलवान लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रांत और देश का नाम रोशन करते रहे हैं। पर, हाल के वर्षों में गीता फोगट, बबीता फोगट, विनेश फोगट और साक्षी मलिक सरीखी पहलवान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिला कुश्ती में भारत का परचम फहरा रही हैं। राजस्थान में उदयपुर, भरतपुर और अलवर में कुश्ती जमाने से लोकप्रिय खेल रहा है। लोगों की रुचि देखते हुए कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार ने कुश्ती अकादमी खोलने की घोषणा की थी, लेकिन सरकार बदलने के साथ ही यह मामला अधर में लटक गया।

बात यदि उत्तर प्रदेश की करें तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले पहलवानों का मान-सम्मान करने में सरकार पीछे नहीं रही है, लेकिन छोटे स्तर पर कामयाबी हासिल करने वाले पहलवानों को प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है।

हालांकि प्रदेश की वर्तमान सरकार ने कई पहलवानों को यश भारती पुरस्कार से भी नवाजा है लेकिन सभी नामी-गिरामी हैं। वैसे भी प्रदेश की सपा सरकार को पहलवानों का हितैषी माने जाने के अपने कारण हैं। दरअसल, सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव स्वयं पहलवान रहे हैं। प्रसिद्ध सैफई महोत्सव में मुलायम सिंह अपनी मौजूदगी में हर वर्ष दंगल भी कराते हैं जिसमें देश भर के पहलवान हिस्सा लेते हैं। मुलायम सिंह पहलवानी अब भी नहीं भूले हैं। नरेंद्र मोदी के 56 इंच संबंधी बयान पर उन्होंने चुटकी ली थी कि मोदी कुश्ती लड़ेंगे क्या? क्या उन्हें मेरे बारे में मालूम नहीं है। कुश्ती में वैसे उत्तर प्रदेश के हिस्से कुछ बड़ी उपलब्धियां भी हैं। रियो ओलंपिक के लिए चुने गए नरसिंह यादव उत्तर प्रदेश के ही हैं।

बनारस में कुश्ती और अखाड़ों की समृद्ध परंपरा रही है। यहां कहा जाता था कि जिस युवक ने दिन में दो-तीन घंटे ‘धूर’ में लोटाई नहीं की, उसने कुछ नहीं किया। कभी यहां हर मोहल्ले का अपना अखाड़ा था मगर अब बदलते दौर में ज्यादातर बंद हो गए। पंडाजी का अखाड़ा आज भी दूर-दूर तक अपनी पहचान बनाए हुए है। राम मंदिर अखाड़ा दो सौ साल पुराना बताया जाता है। मौहल्ला बड़ा गणेश अखाड़ा डेढ़ सौ साल का इतिहास समेटे हुए है। अखाड़ा रामसिंह अब तक सात हजार से अधिक पहलवान तैयार कर चुका है। कहा जाता है कि यहां के कुन्नु जी पहलवान महीने में सवा लाख दंड पेलते थे। यह सब बातें अब गुजरे दौर की हैं। अब तो यहां मात्र बीस-पच्चीस अखाड़े ही बचे हैं जो बनारस की इस परंपरा को बचाए हुए हैं।

पहलवान विनोद यादव बताते हैं, ‘अन्य राज्य के मुकाबले उत्तर प्रदेश में पहलवानों के लिए सुविधाएं बेहद कम हैं। सरकार ने अनेक शहरों  में स्टेडियम तो बनवाए मगर वहां कोच ही नहीं हैं।’ विनोद गाजियाबाद के बमहैटा गांव के हैं। यह गांव विख्यात जगदीश पहलवान के गांव के रूप में जाना जाता है। गांव में इन दिनों छह अखाड़े चल रहे हैं। विनोद बताते हैं, ‘पहलवानों को अच्छी खुराक लेनी होती है अत: सक्षम परिवारों से आए युवक तो कुछ साल तक निश्चिंत होकर पहलवानी कर लेते हैं मगर जो पहलवान आर्थिक रूप से कमजोर हैं उन्हें मजबूरन पहलवानी छोड़नी पड़ती है। पहलवान सतवीर सिंह कहते हैं, ‘कुश्ती में हरियाणा और दिल्ली के आगे निकलने की वजह पहलवानों को मिली सरकारी मदद है। उत्तर प्रदेश में भी बहुत प्रतिभाएं हैं जो सरकारी सहयोग से निखर सकती हैं।’

भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह बताते हैं कि हाल ही में सब जूनियर एशियाई चैंपियनशिप में उत्तर प्रदेश से दो महिला पहलवानों मानसी यादव और पूजा यादव का चुनाव हुआ है। श्री सिंह गोंडा से सांसद हैं और स्वयं अपने क्षेत्र में अखाड़ा चलाते हैं। वह कहते हैं, ‘हमारे खिलाड़ी ओलंपिक और एशियाई खेलों में पदक ला रहे हैं। ऐसे में सरकार को इस तरफ और ध्यान देना चाहिए।’

प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दावा करते हैं कि उनके कार्यकाल में सरकार ने लखनऊ, गोरखपुर और सैफई में स्पोर्ट्स कॉलेज खोले हैं जहां अन्य खेलों के साथ-साथ कुश्ती पर भी पूरा ध्यान दिया जा रहा है। प्रसिद्ध पहलवान रामाश्रय सिंह भी कुश्ती को लेकर आश्वस्त नजर आते हैं। वह कहते हैं, ‘देश के पहलवानों ने माहौल बना दिया है, अब कुश्ती सबकी निगाहों में है।’ बड़े पहलवानों और सरकारी दावों की हवा निकालने के लिए कुश्तियों के आयोजक सतीश विधूड़ी का यह कथन काफी है कि गांव-देहात में पहलवानों की हालत खस्ता है। पहलवानी छूटने पर भी खुराक कम नहीं होती जो जेब पर बहुत भारी पड़ती है।

दरअसल, पहलवानों की खुराक हमेशा मुद्दा बनती रही है। पहलवान का सबसे ज्यादा खर्चा उसकी खुराक पर ही होता है। दूध, दही, घी और बादाम पहलवानों के भोजन का अभिन्न अंग हैं। महीने में 12 से 15 हजार रुपये एक पहलवान की खुराक पर खर्च हो जाते हैं। इसलिए यह मान लेना कि कुश्ती जैसे खेल में कुछ खर्च नहीं आता, एक भ्रांत धारणा है। फिर अब तो मैट और किट का खर्च अलग से है। यह सही है कि ज्यादातर अखाड़ों में नि:शुल्क प्रशिक्षण मिलता है। भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) भी कई योजनाएं चला रहा है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहलवान निकालने वाले अखाड़ों को साई मैट और कोच उपलब्ध कराता है। बहुत से अखाड़ों में पहलवानों के रहने की भी व्यवस्था है लेकिन उन्हें अपनी खुराक का खर्चा खुद उठाना पड़ता है। एक पहलवान पर महीने में 20-25 हजार रुपये का खर्च तो आ ही जाता है। सवाल यह है कि देश में ऐसे कितने किसान परिवार हैं जो यह खर्च उठाने में सक्षम हैं। जानकार बताते हैं कि ज्यादातर पहलवान अपनी खुराक का खर्च या तो दंगल में कुश्ती लड़कर निकालते हैं या फिर कुछ संस्थाओं या समाज के प्रभावशाली व्यक्तियों के सहयोग से उन्हें सहारा मिलता है। ऐसा नहीं है कि केंद्र या राज्य सरकारें मदद नहीं करतीं लेकिन खिलाड़ी के एक मुकाम पर पहुंचने के बाद ही यह हासिल हो पाती है। सुल्तान और दंगल सरीखी फिल्मों से भी अखाड़ों या पहलवानों की दशा में कोई खास बदलाव आने वाला नहीं है। हां, इन फिल्मों से कुश्ती संघ यह जरूर सीख सकता है कि जब एक फिल्मकार कुश्ती की लोकप्रियता को भुनाकर करोड़ों रुपये कमा सकता है तो वह क्यों नहीं अपने लिए बाजार तैयार कर सकता। कुश्ती को इस मामले में कबड्डी और हॉकी का अनुसरण करना चाहिए। इन दोनों ही खेलों की हालत कुश्ती से इतर नहीं थी, लेकिन लीग शुरू होने के बाद आज स्थिति अलग है। कुश्ती संघ ने लीग की शुरुआत कर अच्छा प्रयास किया है, लेकिन अभी उसे लंबा सफर तय करना होगा।

साथ में दिल्ली से मनीषा भल्ला, कुमार पंकज और मुंबई से सुनील बोधनक

 

फिल्म ने तोड़े कई रिकॉर्ड

सलमान खान की फिल्म सुल्तान की रिकॉर्ड तोड़ कमाई से यह तो साबित होता है कि भारत की जनता को स्त्री की अस्मिता से ज्यादा असहिष्णुता के मुद्दे छूते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो सलमान के बयान के बाद सुल्तान का हाल भी शाहरुख खान की फिल्म दिलवाले की तरह होता। खैर। सलमान खान की यह फिल्म कमाई के आंकड़ों में सुल्तान बनी हुई है। चुटीले संवाद, सुल्तान बने सलमान की हाजिर जवाबी, भोला सा चेहरा और उस पर पहलवानी के दांवपेच ने इस फिल्म की कमाई के सारे आंकड़े ध्वस्त कर दिए हैं। विशुद्ध सलमान खान मार्का इस फिल्म में एक्शन की भरपाई कुश्ती से हुई है। अगर यह फिल्म सलमान की न होती तो कमाई और फिल्म की तारीफ औसत से ऊपर नहीं बढ़ पाती। पहलवान के चरित्र को जीते हुए सलमान ने जिंदगी में हारे व्यक्ति की भूमिका के जरिये भारत में पहलवानों की स्थिति पर भी रोशनी डाली है।

भारत में पहलवानी का इतिहास बहुत पुराना है। भारत भर में नागपंचमी पर दंगल लड़े जाते थे। भारत ने बड़े-बड़े पहलवान दिए मगर ये पहलवान अपने हुनर को ओलंपिक पदक में परिवर्तित नहीं कर सके। यह दुख बहुत पुराना है कि क्रिकेट के अलावा भारत में किसी भी खेल में पैसा नहीं है। भारत में खेल का मलतब क्रिकेट ही होता है। ऐसे में सलमान की फिल्म बिना भाषण के बताती है कि एक ओलंपिक पदक विजेता कैसे एक छोटी सी नौकरी कर आम आदमी का जीवन जीता है। बाद में जब उसे प्रायोजक की जरूरत होती है तो नामी पहलवान रह चुके उस आदमी को स्थानीय बाजार का एक दुकानदार अपने कुकर के ब्रांड के लिए प्रायोजित करता है! भारत में खेल में प्रतिभा का आकलन ओलंपिक जैसी बड़ी स्पर्धाओं में चमकता हुआ सुनहरा तमगा है। सुल्तान भी ऐसा ही पहलवान है जो तमाम विश्व स्तरीय प्रतियोगिताएं जीतते हुए ओलंपिक में पदक लाता है लेकिन पैसा नहीं कमा पाता। तभी एक ब्लड बैंक बनवाने की खातिर पैसा इकट्ठा करने के लिए उसे चंदा जमा करना पड़ता है। निर्देशक अली अब्बास जफर शायद इसलिए ऐसा दिखा पाए होंगे कि उन्होंने ओलंपिक पदक विजेताओं या ऐसे ही प्रतिभावान खिलाड़ियों की दुर्दशा की खबरें अखबारों में पढ़ी होंगी।

सुल्तान ने छह जुलाई को पूरे भारत में चार हजार तीन सौ पचास स्क्रीन और भारत से बाहर 1100 स्क्रीन में अपने मुरीदों को आदाब किया था। बुधवार को पूरे दिन का कलेक्शन 36.54 करोड़ रुपये था जो पहले सप्ताहंत तक आते-आते 180.3 करोड़ रुपये हो गया। पहले फिल्मों से कमाई का जो शिगूफा 100 करोड़ रुपये का था अब बढ़ कर 300 करोड़ रुपये हो गया है। अब करोड़ी क्लब का आंकड़ा सौ नहीं बल्कि 300 करोड़ तक पहुंच गया है। सलमान बॉलीवुड के अकेले ऐसे सुपरस्टार हैं, जिनकी 10 फिल्में 100 करोड़ रुपये के क्लब में शामिल हुई हैं। इस क्लब में शाहरुख की छह, अक्षय कुमार-अजय देवगन की पांच और आमिर खान की चार फिल्में शामिल हैं।

आकांक्षा पारे काशिव

 

 

अखाड़े संवरे, पहलवान नदारद

मध्य प्रदेश में अखाड़ों और उनमें पहलवानी की परंपरा की बुनियाद तो होलकर राजवंश के वक्त में ही पड़ गई थी। इस परंपरा को इंदौर में पहलवानों के उस्ताद विजय बहादुर ने अपनी व्यायामशाला में जमकर सींचा और सहेजा। अखाड़ों की जगह लेते जिमनेजियम और फिटनेस सेंटर के दौर में इंदौर की यह विजय बहादुर व्यायामशाला सहित कोई आधा दर्जन अखाड़े आज भी संचालित हो रहे हैं। इंदौर के अखाड़ों ने प्रदेश को कई नेता भी दिए हैं। शिवराज काबीना में मंत्री रहे स्वर्गीय प्रकाश सोनकर एक कुशल पहलवान थे। कांग्रेस से विधायक और मंत्री बने तुलसी सिलावट भी पहलवान रहे। इंदौर में अखाड़ों और कुश्ती की परंपरा को कई दशकों तक सहेजने वाले रतन पाटोदी खुद भी पहलवान रहे और विधानसभा भी पहुंचे। इंदौर में गजाधर गुरु और चंदन गुरु आज भी अखाड़ों की परंपरा को सलामत रखे हुए हैं तो महू में अंतरराष्ट्रीय पहलवान कृपा शंकर पटेल गुरु की भूमिका में हैं।  एशियाड में पदक जीते कृपा पहलवान के दो चेले रोहित पटेल और उमेश पटेल राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहे हैं।

इंदौर में महिलाएं भी पीछे नहीं हैं। महू के ग्राम कोदरिया में महिला अखाड़ा चलता है। यहां हर साल महिलाओं की कुश्ती भी होती है। हरियाणा के पूर्व पहलवान और कुश्ती कोच महावीर फोगट के जीवन पर केंद्रित आमिर खान की फिल्म दंगल में इंदौर की महिला पहलवान भी नजर आएंगी। पूर्व विधायक और पहलवान रहे स्वर्गीय रतन पाटोदी के बेटे नकुल पाटोदी कहते हैं,‘इंदौर में महापौर रहे कैलाश विजयवर्गीय से लेकर उमा शशि शर्मा और कृष्ण मुरारी मोघे ने इंदौर में अखाड़ों की परंपरा को जीवित रखने के लिए हर संभव प्रयास किए हैं। कच्चे मकानों में चलने वाले अखाड़ों की जगह अब पक्के मकानों में तब्दील हो चुके हैं। इन अखाड़ों को इंदौर नगर निगम से सालाना अनुदान भी मिल रहा है। अखाड़े तो संवर गए लेकिन पहलवान नदारद है। उम्मीद थी कि साधन संसाधनों से सुसज्जित होते अखाड़ों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छे पहलवान निकलते। लेकिन दुर्भाग्य से यह नहीं हो पा रहा।

देखा जाए तो अखाड़ों के वजूद पर खतरा तो है लेकिन फिर भी नाउम्मीदी नहीं है। उज्जैन में अखाड़ों की परंपरा को प्रदेश के मौजूदा ऊर्जा मंत्री पारस जैन जीवित रखे हुए हैं। भोपाल जैसे नवाबी रवायत के शहर में अखाड़ों का इतिहास उतना सुनहरा नहीं है लेकिन मध्य प्रदेश बनने के बाद पुलिस महकमे में कुश्ती पर काफी जोर दिया गया। भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी स्वर्गीय एएन सिंह हों या एएन पाठक उन्होंने पहलवानी पर बहुत जोर दिया। पहलवानों को पुलिस में भर्ती के लिए कोटा भी सरकार ने रखा है।

भोपाल से राजेश सिरोठिया

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