आधुनिक साहित्य लोगों को वर्ग के अनुसार अपनी तरह से श्रेणीबद्ध करता है। इनमें से कई अपनी जिंदगी खुद निर्धारित करते हैं। साठ के दशक की दो किताबें खास तौर पर विदेश नीति पर अपना प्रभुत्व रखती हैं। इनमें से एक ग्राहम ग्रीन की द क्वाइट अमेरिकन है जबकि दूसरी किताब जॉन एफ कैनेडी के प्रिय और बर्कले के राजनीतिशास्त्र के ज्ञाता विलियम बरडिक और विलियम जे. लेडरर की है। ग्रीन की पुस्तक ज्यादा साहित्यिक है, लेकिन बरडिक की किताब द अगली अमेरिकन किवंदती बन गई क्योंकि यह लोक साहित्य है। हालांकि, मीडिया और लोक साहित्य ने वर्ग को उलट कर रख दिया है। बरडिक का 'अगली अमेरिकन’ साधारण, घरेलू, व्यावहारिक, अनूठी प्रामाणिकता को उत्पन्न करने वाला था, लेकिन मीडिया का 'अगली अमेरिकन’ बाहुबली, बातूनी, निष्ठुर और स्वजातीय उत्कृष्टता वाला था (यहां हम अगली का अर्थ दुष्ट से लगा सकते हैं)। वह अमेरिका के सिद्धांत के लिए गंभीर खतरा था क्योंकि उसका व्यवहार पूरी तरह से गैर अमेरिकी था। ग्रीन के क्वाइट अमेरिकन में शैतानी, महत्वाकांक्षा और हिंसा को बेहतर ढंग से दिखाया गया है पर जिस तरह से बरडिक की किताब में समाज को दिखाया गया है उसकी वजह से वह बेस्ट सेलर बनी। इसमें समानता रूपी महामारी पर भी निशाना साधा गया। 'द अगली इंडियन’ भी इन्हीं में से एक था पर यह दया की बात है कि 'अगली इंडियन’ अपनी स्पष्ट और महत्वपूर्ण मौजूदगी होने के बाद भी न तो किसी उपन्यास का पात्र बन सका न ही किसी प्रबंधन की किताब में केस स्टडी बन सका।
मेरे पिता, जो जॉर्ज ऑरवेल के प्रशंसक थे, का दावा है कि एक पुलिस अधिकारी और लेखक के रूप में ऑरवेल भारत को विस्तार से जानते थे। उनके अनुसार एनीमल फार्म में भारतीय समाजवाद की आलोचना की गई है। इस किताब में सूअर समानता की आलोचना करते हुए कहता है, 'कुछ लोग दूसरे से ज्यादा समान होते हैं।’ जानवर को प्रतीक रूप में रखने पर सूअर आदर्श वीआईपी की तरह है मगर कुछ लोग यह भी मानते हैं कि सूअर हमारे घरेलू उत्पाद से ठीक आगे दबा हुआ दिखता है।
भारतीय वीआईपी के लिए पूरी तरह मानव जाति वर्णन की जरूरत है। किसी मैनेजमेंट विशेषज्ञ ने इस प्रजाति पर कुछ नहीं किया है जिसने शासन का उपहास उड़ाया है। ऑरवेल का अनुसरण करते हुए भारतीय प्रजातंत्र ने तीन तरह के नागरिक बनाए हैं। पहला मध्यमवर्गीय है जो राशन कार्ड को झंडे की तरह धारण करता है। दूसरा अनियमित अर्थव्यवस्था का अस्थायी नागरिक है जो यह दावा करता है कि नागरिकता अल्पकालिक है। तीसरा वीआईपी है जो विशिष्ट नागरिक होने के भारत के प्रतापी पहचान का प्रतीक है।
वीआईपी अधिकार और तालीम की दुनिया में नहीं रहते हैं। वे अत्याचार को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। इन्होंने भारतीय प्रजातंत्र को हद से ज्यादा पाने वालों बनाम पहुंच के लिए तरसने वालों की जंग में तब्दील कर दिया है। वीआईपी, एक नागरिक की तरह, एकवचन नहीं है। यह एक व्यक्ति नहीं है क्योंकि वीआईपी अकेले नहीं रह सकता है और न ही इसकी अकेले कल्पना की जा सकती है। भारतीय समाजवाद ने तो जमींदारों से मुक्ति पा ली पर वीआईपी ने इस स्थान को भर दिया।
ब्रिटिश लेखक ए. नॉर्थकोट पार्किंसन ने अतिविशिष्टता के लिए कानून बनाए हैं। पहला, वीआईपी को देर से आने का अधिकार है। पार्किंसन के अनुसार काम समय के साथ आगे बढ़ता है और वीआईपी देरी से आने पर आगे बढ़ता है। वीआईपी को बाधा डालने, हस्तक्षेप करने और वंचित करने का संवैधानिक अधिकार है। वीआईपी को सभी के अधिकार छीनने का हक है पर जब उसके अधिकार पर कोई नजर डाले तो वह हिंसक हो जाता है। नौकर रखना उसका और उसके परिवार का अधिकार है। इस तरह देखा जाए तो वीआईपी सिर्फ एक कानूनसम्मत व्यक्ति नहीं है बल्कि यह एक समूह है। भारत ने दो तरह से आरक्षण की व्यवस्था बनाई है। पहला राजनीतिक और दूसरा प्रशासनिक। राजनीतिक आरक्षण कम संपन्न जातियों के लिए है जबकि वीआईपी आरक्षण अमीर और ताकतवर लोगों के लिए है। किसी समारोह में 'रिजर्व्ड’ शब्द वीआईपी लोगों के लिए आह्लादित करने वाला है। यह लोगों को पहुंच से काटने वाला है।
वीआईपी शब्द आधुनिक शासन के लिए महान उपाधि की तरह है। इतना ही नहीं मोदी का प्रिय शब्द 'विकास’ भी बहुत ज्यादा बोझ नहीं लेता है। कोई भी स्थानीय, मानवीय या सतत विकास की बात सोच सकता है, लेकिन वीआईपी शब्द ऐसा प्रत्यय है जो गुमान से भर देता है। वीआईपी एरिया, वीआईपी पवेलियन, वीआईपी सुरक्षा, वीआईपी सीट, वीआईपी शादी के बारे में सोचिए। सभी को यह समझ लेना चाहिए कि वीआईपी कहीं भी हस्तक्षेप कर सकता है और नागरिक अधिकारों का उपहास कर सकता है। यह विडंबना है कि इस शब्द का उद्भव काफी विनम्र और क्रियाशील है। यह कहानी द्वितीय विश्व युद्ध की है जब ब्रिटिश अफसर सैन्य नेताओं के लिए लड़ाई का आयोजन करते थे। इस दौरान वे अपनी टाइटल नहीं दिखाते थे। इसका मकसद अपनी पहचान छुपाए रखना होता था।
मेरे एक मित्र के अनुसार भारतीय प्रजातंत्र के लिए पांच सबसे बड़े खतरे भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, हिंसा, फिजूलखर्ची और रूढि़वाद हैं। रूढि़वाद भारत के लिए आंतरिक गुण की तरह है। यह वीआईपी को असुरक्षित महसूस करने से रक्षा करता है और हिंसा फैलाने वालों की भी मदद करता है। इतना ही नहीं विश्वविद्यालयों में भी, जहां मान्यता है कि आलोचना को बढ़ावा दिया जाएगा, छात्र अपने पसंदीदा शिक्षकों के साथ बैठते हैं। वे हर शब्द पर तालियां बजाते हैं और इसे बढ़ावा देते हैं। रूढ़िवादिता शासन की रणनीति है। बिना नेटवर्क के एक भारतीय खुद को असुरक्षित महसूस करता है। मेरे एक सहकर्मी ने एक बार मुझे अंग्रेजी के एक प्रोफेसर की कहानी बताई थी जो काफ्का की रचना द कासल भारत में पढ़ाते थे। वह पूरी तन्मयता से यह बताते थे कि किले में घुसने के लिए हीरो को कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ा। उनके लेक्चर के बाद क्लास में अजीब सा सन्नाटा छा गया। इसके बाद एक छात्र ने उनसे हैरानी भरे लहजे में पूछा, 'क्या उस हीरो के पास कोई पहुंच (कॉन्टैक्ट) नहीं थी।’
संपर्क, रूढि़वादिता, संरक्षण देना वह माहौल तैयार करते हैं जिसमें हम सांसें लेते हैं। हर भारतीय वीआईपी बनना चाहता है। यह एक सामान्य सी बात है जो वह सोच सकता है। वीआईपी की पात्रता संस्कृति की गरीबी को दिखाती है। क्या यह मात्र छोटा बयान है। वीआईपी अति की इच्छा रखते हैं। अति मानवीय, शांति देने वाला, अहम को बढ़ावा देने वाला है।
यह बात हर किसी को समझनी चाहिए कि वीआईपी आदर्श और तमाशा दोनों ही है, लेकिन यह अगली इंडियन अपने समकक्ष अमेरिकी की तरह नहीं है। यह अंतरनिर्देशित घरेलू इंसान है। यह 'अगली अमेरिकन’ की तरह विदेश नीति का किस्सा नहीं है। वीआईपी भारतीय जब विदेश में होता है तो दब्बू जंतु होता है, लेकिन जैसे ही वह भारतीय जमीन पर पहुंचता है, उसका ढंग बदल जाता है। अब वह निर्लज्ज, अविवेकी हो जाता है और लगातार आदर-सत्कार की मांग करने लगता है। शिवसेना के सांसद रवींद्र गायकवाड़ इस श्रेणी के छोटे प्रारूप भर हैं जो अपने विशेषाधिकार के लिए गुस्से में तो रहते हैं पर इन्हें शांत करना आसान होता है। हमारे वीआईपी महामारी की तरह हैं जो यह महसूस करते हैं कि शासन उनके लिए ही बना है। ऐसे में कोई भी इस मिथक पर यह धारणा बना सकता है कि भगवान ने जब सोचा होगा कि वीआईपी किसी का साथ चाहता है तो उसने निजी सहायक (पीए) की रचना की होगी। इन दोनों के साथ ही भ्रष्टाचार और शक्ति (पावर) की जुगलबंदी पूरी हो गई।
वीआईपी शारीरिक और प्रतीकात्मक रूप से स्थूल होता है। जबकि पीए दुबला-पतला, पाखंडी और सफारी सूट में होता है। ये दोनों मिलकर सुशासन का उपहास उड़ाते हैं। वास्तव में वीआईपी एक तमाशा है। अगर वह सामान्य जीवन में देर या बाधित नहीं करता है तो वह प्रभावी व्यक्ति नहीं है। सेल्फ स्टाइल्ड व्यक्ति होने के कारण वह पहले अपनी सुरक्षा के लिए पुलिसकर्मी की मांग करता है। भारत में वर्तमान में 5,79,092 से ज्यादा वीआईपी हैं। यह साफ है कि वह विलुप्त प्राय जंतुओं की श्रेणी में नहीं है लेकिन वह लोकतांत्रिक कल्पनाओं के हिस्से के रूप में पनपता है। अगर हम ऑरवेल की एनिमल फार्म की नजर से भारत को देखें तो अपडेटेड संस्करण में सूअरों को वीआईपी बना दिया गया है। अगर सभी आरटीआई स्टोरी को एक जगह रख दिया जाए तो भी वे इसकी सत्ता को चुनौती नहीं दे सकते हैं। वे इसमें सिर्फ मिथ और मन ही जोड़ेंगे।
वीआईपी को अपने दायरे के बारे में ज्ञान नहीं होता। उसकी चाहत की इच्छा उसे सीमा की अनुमति नहीं देती है। संभवत: प्रतिभा पाटिल भारत की क्लासिक वीआईपी रही हैं। वह केवल एक व्यक्ति नहीं बल्कि ठाट-बाट से रहने वाली थीं, जो अपने रिश्तेदारों और मित्रों से घिरी रहती थीं। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जरूर शासन के लिए झटका थे। उनके वैराग्य को प्रतिभा पाटिल ने कैरिकेचर का रूप दे दिया, लेकिन एक वीआईपी हमेशा सत्ता की ऊंची सीढ़ी पर ही बैठा नहीं हो सकता। वो किसी पंचायत, स्कूल या सार्वजनिक स्थल पर भी मौजूद हो सकता है। हर वीआईपी चाहे वह नुक्कड़ पर खड़ा हो या फाइव स्टार होटल में वह हक जमाने में भीमकाय होता है। जबकि भारत का गरीब और सत्ताविहीन वर्ग इसके विपरीत स्थिति चाहता है, जो कि आदर्श हो। भारत में वीआईपी की कल्पना धरती पर स्वर्ग सरीखी है। वह ऐसे चमत्कार का भारतीय संस्करण है जहां सरकार या समुदाय 'अक्षय पात्रम्’ लेकर उसकी हर मांग पूरी करने के लिए तैयार है।
सही मायने में पश्चिमी सिद्धांत के अनुसार सत्ता पूरी तरह शक्ति से संचित की जाती है, जिसे लॉर्ड एक्शन ने पूरी तरह से भ्रष्ट बताया है। यह सर्वसत्तावादी शक्ति नहीं है जिसने भारत को भ्रष्ट किया है। यह शक्ति है विशेषाधिकार का उपयोग। यह अधिक है लेकिन शक्ति का निरंकुश रूप नहीं है पर इसमें इसकी स्थूलता और लोभ है। शक्ति का इस्तेमाल तुच्छ तरीके से नहीं किया गया पर इसने भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही दिया। वीआईपी को अपनी ताकत दिखानी चाहिए, ताकत दिखाने को अपनी उपलब्धि बतानी चाहिए, उसे लाभ-हानि रहित ऐसा खेल दिखाना चाहिए जिससे लगे कि उसके वीआईपी के विशेषाधिकार ने नागरिकता के अधिकार को बाधित कर दिया है।
विशेषाधिकार उस मुक्त सवारी की तरह है जिसके लिए वीआईपी कुछ चुकाता नहीं है पर इसका आनंद बिना कुछ दिए लेता है। सत्ता में बैठे भारतीय लोगों में यह अहंकार है कि लोकतंत्र कुछ लोगों के लिए मुफ्त की सवारी है। वे मानते हैं कि बहुमत के पास ही इच्छा, ईर्ष्या और सत्ता की सामान्य स्थिति देखने की ताकत है। समानता का सिद्धांत वीआईपीपन के मानकों के खिलाफ जाता है। वीआईपी दुनिया सामान्य लोगों के लिए प्रतिबंधित है। यहां किसी बड़े फैसले की मांग नहीं है, सत्ता के लिए कोई विवाद नहीं है, सभी को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि सत्ता एक चमत्कार की तरह है, यह रोज का उपक्रम है जहां कोई बिना कुछ चुकाए बहुत ज्यादा पा रहा है।
विशेषाधिकार का लाभ लेकर वीआईपी जीवन की हर सुविधा पर कब्जा कर लेते हैं। यह भारतीय प्रजातंत्र में बहुत ही भद्र तरीके से किया जाने वाला रंगभेद है, जहां सत्ता का नस्लवाद खपत के अनुसार विशेष रूप से बनाया गया है। यहां, सार्वजनिक पद निजी उपयोग में मददगार होता है और यह शक्ति का अहंकार पैदा करता है। जब सार्वजनिक वस्तुओं को निजी ताकत के लिए छीन लिया जाता है तो इसके फलस्वरूप वीआईपी का जन्म होता है। अधिकता संकटपूर्ण है। किसी एक को वीआईपी के आगे दंडवत होना पड़ता है, ऐसी स्थिति बनानी पड़ती है जहां पौराणिक आतिथ्य भी संयमी दिखने लगे। बिना नाश, अधिकता, हंगामा के एक वीआईपी का चमत्कार नहीं दिखाई देता। विशिष्टता के रूप में भ्रष्टाचार, सत्ता की राजनीति का घिनौना चेहरा वीआईपी के साथ ही शुरू होता है। ये सत्ता पाने के लिए ऐसे काम करते हैं जिससे मुगल और जमींदार भी शर्मा जाएं।
एक खास वर्ग वाले इंडियन के रूप में वीआईपी लोकतंत्र के लिए खतरा हैं। वास्तव में गरीबी लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है क्योंकि कितनी भी हिंसा हो गरीबी के पास गरिमा, सपना और वैराग्य की भावना रहती है। वीआईपी द्वारा एक समुदाय को संरक्षण देना घिनौना है। यह लोकतंत्र के भीतरी भाग को भ्रष्ट करके रख देता है। संभव है कि वीआईपी प्रजाति को नष्ट करके ही गरीबी में कमी की शुरुआत हो सके। यह एक ऐसी उम्मीद है जिसके बारे में हमें सोचने की जरूरत है।
(लेखक सामाजिक विषयों के बड़े विशेषज्ञ हैं)
गायकवाड़ हैं वीआईपी कल्चर के प्रतिनिधि
जब किसी वीआईपी को उसकी सुविधाएं नहीं मिलतीं तो वह अपना आपा खो देता है। इसी के उदाहारण हैं उस्मानाबाद से शिवसेना के सांसद रवींद्र गायकवाड़। जब उन्हें एयर इंडिया की फ्लाइट में वैसी सुविधा नहीं मिली जैसा वह चाहते थे तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। उन्होंने एयर इंडिया के वरिष्ठ कर्मचारी की सैंडल से पिटाई कर दी। उन्होंने बिजनेस क्लास का टिकट लिया था, लेकिन फ्लाइट में बैठने के बाद पता लगा कि वह इकोनॉमी क्लास है। इसके बाद उनकी फ्लाइट कर्मी से बहस हुई। खुद गायकवाड़ ने माना कि उन्होंने उस कर्मचारी को 25 सैंडल मारे। इसके बाद उन पर न सिर्फ एफआईआर दर्ज कराई गई बल्कि यह मामला संसद से लेकर सड़क तक गरमाया रहा। उन पर सभी एयरलाइंस ने हवाई यात्रा करने पर रोक लगा रखी है।