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बेसिक इनकम किनके लिए

देश के आर्थिक सर्वेक्षण में यूनिवर्सल बेसिक इनकम के जिक्र ने इसे बहस के केंद्र में ला दिया है
सीता

आठ मार्च (महिला दिवस) से शुरू कर मार्च के अंत तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के ऑफिस में पोस्टकार्ड संदेशों की झड़ी लग गई। इस दौरान वहां करीब 3 हजार पोस्टकार्ड पहुंचे जिन पर राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं ने अपने हस्ताक्षर के साथ मात्र एक पंक्ति का संदेश लिख भेजा था- माननीय मुख्यमंत्री श्रीमान शिवराज चौहान जी, आपसे विनम्र अनुरोध है, हमारे लिए बुनियादी सुरक्षा आमदनी लागू की जाए। चौहान के ऑफिस में एक खुला पत्र भी पहुंचा जिस पर पांच मांगें दर्ज थीं: एक बेसिक इनकम प्रोग्राम शुरू किया जाए, कुल आबादी के 60 फीसदी को बेसिक इनकम दी जाए, एक महीने में हर वयस्क को 1000 और बच्चे को 500 रुपये मिलें, ये पैसा बैंक खाते के जरिए दिया जाए और बैंकिंग की सुविधा राज्य के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे।

यह अभियान गैर सरकारी संगठन 'सेवा’ के नेतृत्व में चल रहा है। संगठन ने राज्य के दस जिलों में कई रैलियां की और जिला प्रशासन तथा शीर्ष अधिकारियों को ये ओपन लेटर दिया। संगठन ने पहली मई को एक विशाल रैली करने की भी तैयारी की है। मध्य प्रदेश में भले ही बेसिक इनकम की मांग समाज के सबसे निचले स्तर से उठी हो, मगर जम्मू-कश्मीर में यह शीर्ष स्तर से सामने आई है। राज्य के वित्त मंत्री हसीब द्रबू ने बजट पेश करते समय राज्य में  एक बेसिक इनकम प्रोग्राम शुरू करने का प्रस्ताव रखा और इसके लिए केंद्र सरकार के संपर्क में होने की बात कही। 'सेवा भारत और इंडिया नेटवर्क फॉर बेसिक इनकम’ द्वारा इस मुद्दे पर 29 और 30 मार्च को आयोजित राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए द्रबू ने कहा कि राज्य में इसे लागू करना तभी संभव हो पाएगा यदि उन्हें सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले खर्च को रीस्ट्रक्चर करने की आजादी मिले। एक साल पहले भारत में किसी ने बेसिक इनकम का नाम भी नहीं सुना था और आज यह बहस का गर्मागर्म टॉपिक है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 31 जनवरी को संसद में पेश देश के 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण में एक पूरा चैप्टर इस विषय को समर्पित किया गया। मगर आज भी इस बात को लेकर अस्पष्टता है कि आखिर बेसिक इनकम है क्या। सीधे-सीधे कहें तो यह ऐसी आय है जो देश के हर नागरिक को बिना किसी शर्त के मिलनी चाहिए। साथ ही इसमें यह भी शर्त नहीं होगी कि वह इसे खर्च कैसे करेगा।

हालांकि बड़ी संख्या में लोग इस तथ्य को पचा नहीं पा रहे हैं और कह रहे हैं कि इसका अर्थ होगा कि गरीबों को काम करने की प्रेरणा नहीं मिलेगी। हालांकि बेसिक इनकम का एक मुख्य घटक यह है कि यह इनकम इतनी बड़ी नहीं होगी कि इससे लोगों को काम करने की जरूरत ही न पड़े बल्कि रकम बस इतनी होगी कि समाज के सबसे निचले स्तर के लोग अपनी मूलभूत जरूरतें भर पूरी कर पाएं। इसी कॉन्फ्रेंस में मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी और लतीफ जमील पॉवर्टी एक्शन लैब के अभिजीत बनर्जी ने कहा कि सात देशों में बेसिक इनकम पर किए गए सर्वे के नतीजे बताते हैं कि इनमें से पांच देशों में काम पर कोई निगेटिव असर नहीं पड़ा बल्कि उल्टा इसका पॉजिटिव असर पड़ा। भारत में बेसिक इनकम से जुड़े मुख्य सवाल ये हैं कि इस योजना के लिए पैसा कहां से आएगा और वर्तमान कल्याणकारी योजनाओं का क्या होगा। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने आर्थिक सर्वेक्षण में बेसिक इनकम का विचार शामिल करवाया था। उनका कहना है कि यदि यूनिवर्सल बेसिक इनकम कार्यक्रम पर देश के सकल घरेलू उत्पाद या जीडीपी का 4-5 फीसदी तक भी खर्च होता है तो मध्य वर्ग को मिलने वाली सब्सिडी तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं को सुव्यवस्थित करके इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। हालांकि ऐसा करना राजनीति को निश्चित रूप से गर्मा देगा। एक बेसिक इनकम सीधा-सीधा नकदी ट्रांसफर कार्यक्रम होगा और पैसा सीधे लाभार्थी के खाते में जाएगा। कोई नेता राशन दुकान का लाइसेंस बांटकर या आंगनबाड़ी केंद्र खोलकर चाहता है कि इसका फायदा लोगों को मिले। द्रबू और बीजू जनता दल के विजयंत पांडा ने कॉन्फ्रेंस में कई ऐसी घटनाओं का वर्णन किया जिनसे मिड डे मील जैसी महत्वाकांक्षी योजना में भी भ्रष्टाचार की कलई खुलती है। द्रबू के अनुसार जम्मू-कश्मीर में तो आंगनबाड़ी केंद्र राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बांट दिए गए और इसका बड़ा फलता-फूलता बाजार मौजूद है।

संभवत: यही वजह है कि लोकल स्तर पर नेता बेसिक इनकम के विचार को बहुत पसंद नहीं कर रहे हैं क्योंकि वर्तमान कल्याणकारी योजनाओं में स्वार्थ पूरी तरह हावी है। मगर इसी बात से इसकी जरूरत और ज्यादा महसूस होती है क्योंकि यह प्रभावशाली तरीके से कल्याणकारी काम करती है। द्रबू ने कहा कि उनके लिए ये संभव है कि वह जम्मू एवं कश्मीर में गरीबी रेखा से नीचे के हर परिवार को साल में एक लाख रुपये नकद दे सकें। (राज्य में ऐसे 3.5 लाख परिवार हैं।) हालांकि इसके लिए जरूरी है कि हमें वर्तमान कार्यक्रमों पर होने वाले खर्च को पुनर्गठित करने की आजादी मिले। उन्होंने कहा कि मिड डे मील जैसी योजनाओं को छेड़े बिना बेसिक इनकम कार्यक्रम के लिए उनके पास पर्याप्त पैसा है। वो भी तब जबकि मिड डे मील कार्यक्रम में भ्रष्टाचार की गंभीर शिकायते हैं। इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर देखें। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार देश में अभी 950 कल्याणकारी योजनाएं हैं जिसमें केंद्र और राज्य दोनों की योजनाएं शामिल हैं। इनमें से अधिकांश को पर्याप्त फंड नहीं मिलता या वे बहुत ही खराब तरीके से लागू की गई हैं और उनमें भारी भ्रष्टाचार भी है। ऐसे में हम समझ सकते हैं कि एक वित्त मंत्री क्यों इसके पक्ष में खड़ा है। आखिर मध्य प्रदेश की महिलाएं क्यों इसके पक्ष में जुटी हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि 'सेवा भारत’ ने 2011 से 2013 के बीच मध्यप्रदेश के 9 गांवों में इससे संबंधित पायलट प्रोजेक्ट चलाया था। इनमें से एक गांव आदिवासी बहुल था। इस प्रोजेक्ट के दौरान हर वयस्क को 300 रुपये और हर बच्चे को 150 रुपये महीना दिया गया जबकि सरकारी योजनाएं बदस्तूर चलती रहीं। इस योजना के निष्कर्षों ने बताया कि गांव वालों ने पैसे को बर्बाद करने की जगह इसका इस्तेमाल अपने बच्चों की स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने, स्वास्थ्य सेवा  और स्व-रोजगार आदि में किया ताकि उनका कर्ज कम हो सके। ग्रामीणों को यह पूरी कवायद सशक्तिकरण करने वाली और आत्मगौरव बढ़ाने वाली लगी जो कि इस योजना के आलोचकों के तर्क के ठीक उलट है। और हां, लोगों ने इस पैसे को शराब पर नहीं उड़ाया। पायलट प्रोजेक्ट के अंत में हुए सर्वे से पता चला कि जो परिवार पहले शराब पर पैसा उड़ाते थे उनमें यह खर्च कम हो गया।

क्या इसका अर्थ ये है कि भारत में इसे बड़े पैमाने पर लागू किया जाए? शायद अभी नहीं। बेसिक इनकम का असर देश के विभिन्न इलाकों में अलग होगा। इसलिए ये जरूरी है कि पहले और पायलट प्रोग्राम और एक्सपेरिमेंट किए जाएं। बिना अच्छी तरह सोच-विचार और ट्रायल के इसे पूरी तरह लागू करना गरीब वर्ग के लोगों के लिए बहुत ही हानिकारक होगा। जम्मू-कश्मीर के बाद अच्छा होगा कि और राज्य भी पायलट प्रोजेक्ट चलाएं। बेसिक इनकम एक ऐसा आइडिया है जिसको मौका मिलना चाहिए।

 (लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं)

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