पिछले पांच दशकों से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत जगत में किशोरी अमोणकर अद्वितीय गायिका के रूप में अपनी जगह बनाए हुए थीं। उनके आकस्मिक निधन से उनके असंख्य प्रशंसकों को गहरा सदमा पहुंचा है। हालांकि उनकी उम्र 85 वर्ष हो चुकी थी लेकिन अभी कुछ दिन पहले उन्होंने दिल्ली के एक संगीत समारोह में अपना गायन प्रस्तुत किया था और उनके श्रोता किसी भी तरह निराश नहीं हुए थे। उनकी चमत्कृत करने वाली सांगीतिक प्रस्तुतियां जहां एक ओर रागों के नए-नए आयाम प्रस्तुत करती थीं वहीं उनके कल्पना विलास के सीमाहीन विस्तार से भी परिचित कराती थीं। उनके गायन में शास्त्रीयता का वैभव तो था ही, भावप्रवणता की तीव्रता भी थी। किशोरी अमोणकर शुद्ध रूप से 'फिनोमिना’ थीं। एक ऐसी गायिका जो कभी-कभार ही पैदा होती है।
किशोरी का जन्म संगीतमय परिवार में हुआ था। उनकी मां मोगूबाई कुरडीकर स्वयं अपने समय की शीर्षस्थ गायिकाओं में गिनी जाती थीं। उन्होंने मुख्यत: आगरा घराने और जयपुर-अतरौली घराने के उस्तादों से संगीत की शिक्षा ग्रहण की थी और अंतत: उस्ताद अल्लादिया खां की गायकी को अपनाया था। अपनी पुत्री किशोरी को भी उन्होंने अल्लादिया खां की गायकी की तालीम दी लेकिन साथ ही दूसरे घरानों के गुरुओं से भी सीखने भेजा। इनमें भेंड़ी बाजार घराने की अंजनीबाई मालपेकर का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि उनकी कोई शिष्य परंपरा नहीं मिलती। कहा जाता है कि किशोरी अमोणकर की आकर्षण मींड़ अंजनीबाई की ही देन थी। एकांतवास में रहनेवाली अंजनीबाई किशोरी से इतनी प्रसन्न थीं कि एक दिन उन्होंने उनसे कहा था, 'जा, अपनी मां से मेरी यह बात कह देना कि उसने तेरे रूप में लडक़ी को नहीं बल्कि एक हीरे को जन्म दिया है।’
किशोरी अमोणकर वास्तव में हीरा ही थीं। ऐसा हीरा जिसकी चमक से आंखें चौंधिया जाती हैं। सन 1967 में उनका पहला शास्त्रीय संगीत एलपी रेकॉर्ड निकला लेकिन उससे पहले ही उनका काफी नाम हो चुका था। उन्होंने वी. शांताराम की फिल्म गीत गाया पत्थरों ने का शीर्षक गीत गाया था जिसके बोल थे, 'गीत गाया पत्थरों ने, सांसों की तान पर...।’ गाना रिलीज होते ही अभूतपूर्व लोकप्रियता पा गया और दुनिया ने देखा कि लता मंगेशकर की टक्कर में एक और शास्त्रीय गायन का प्रशिक्षण प्राप्त गायिका उभर रही है। फिर एकाएक इस गीत के सभी रेकॉर्ड दुकानों से गायब हो गए और किशोरी अमोणकर की लगातार बढ़ती लोकप्रियता पर ब्रेक लग गया। उन्हें इसके पीछे लता मंगेशकर नजर आईं और जीवन भर किशोरी उन्हें माफ नहीं कर पाईं। इसके काफी समय बाद किशोरी अमोणकर ने संगीतशास्त्री वामन हरि देशपांडे के साथ बातचीत में कहा कि एक तरह से अच्छा ही हुआ क्योंकि फिल्मी गायन में सफलता पाने के बावजूद वहां टिक नहीं पातीं क्योंकि उनका जीवन तो शास्त्रीय संगीत को ही समर्पित है।
अल्लादिया खां की गायकी काफी जटिल और बौद्धिक मानी जाती है। उसमें लय और ताल का सुंदर सामंजस्य है और राग की बढ़त में सुर और ताल की मात्रा एक-दूसरे से चिपके हुए चलते हैं। उनकी गायकी की सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि केसरबाई केरकर हैं और मल्लिकार्जुन मंसूर ने भी इसे अनछुई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। स्वयं मोगूबाई कुरडीकर इस शैली की अग्रणी गायिका हैं। किशोरी अमोणकर ने इस शैली में किराना घराने की बढ़त को इस तरह से शामिल किया ताकि जयपुर घराने की शैली के साथ वह दूध में चीनी की तरह मिल जाए। बौद्धिकता और जटिलता के बजाय उनका जोर भावप्रवणता और संप्रेषण पर अधिक था। उनकी अप्रतिम रचनाशीलता और कल्पना वैभव ने मिलकर ऐसी गायन शैली तैयार की जिसकी आधारशिला जयपुर-अतरौली की गायकी थी लेकिन उस पर खड़े किए गए भवन का स्थापत्य अनूठा था। इस दृष्टि से उन्होंने भीमसेन जोशी से उल्टी दिशा में यात्रा की क्योंकि भीमसेन जोशी ने अपनी किराना घराने की शैली को बरकरार रखते हुए उसकी लय को थोड़ा बढ़ाया और केसरबाई केरकर की शैली की तानों का समावेश किया। यानी जहां भीमसेन जोशी अपनी खुद की विशिष्ट गायकी का निर्माण करने के लिए किराना शैली से जयपुर-अतरौली शैली की ओर गए, वहीं किशोरी अमोणकर अपनी गायकी को विस्तार देने के लिए किराना की ओर झुकीं।
एक समय ऐसा भी आया जब किशोरी अमोणकर का गला बिलकुल बैठ गया और उनका गाना कई वर्षों तक पूरी तरह से बंद रहा। इस मर्मांतक पीड़ा से मुञ्चित उन्हें एक आध्यात्मिक गुरु की शरण में मिली और तभी से उनका संगीत दिव्य भाव के प्रति समर्पण में बदल गया। उनका भारतीय काव्यशास्त्र के रस-सिद्धांत में पूरा विश्वास था और वह प्रत्येक राग को एक केंद्रीय रस या भाव मानती थीं। उनके गायन का उद्देश्य इसी रस की सृष्टि करना और उस भाव को श्रोता के मन में जगाना था। उनका विशाल प्रशंसक समुदाय इस बात का प्रमाण है कि उन्हें इस प्रयास में कितनी भारी सफलता मिली।
किशोरी अमोणकर के बाद आने वाली गायिकाओं में बहुत कम ऐसी हैं जो उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव से मुक्त रह सकीं। किसी भी कलाकार के लिए यह गौरव का विषय है। किशोरी अमोणकर को याद करते समय फिराक गोरखपुरी का वह शेर याद आता है जो उन्होंने अपने समकालीनों को संबोधित करते हुए कहा था, आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअसरो, जब उनको ये ध्यान आएगा तुमने फिराक को देखा था। मुझे लगता है आने वाली पीढ़ियां मुझ जैसों से ईर्ष्या करेंगी क्योंकि हमने किशोरी अमोणकर को न सिर्फ देखा था, बल्कि सुना भी था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला संस्कृति पर लिखते हैं।)