उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अपना बड़ा चुनावी वादा निभाया है। राज्य मंत्रिमंडल की पहली बैठक में योगी सरकार ने प्रदेश के लघु एवं सीमांत किसानों का एक लाख रुपये तक का कर्ज माफ करने की घोषणा की है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान वादा किया था कि यदि राज्य में भाजपा सरकार बनी तो पहली कैबिनेट बैठक में किसानों का कर्ज माफ करने का फैसला लिया जाएगा। बताया जाता है कि सरकार के इस फैसले से राज्य के करीब सवा दो करोड़ किसानों को फायदा होगा और सरकारी खजाने पर करीब 30 हजार 729 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। इसके अलावा करीब 7 लाख उन किसानों को भी राहत देने का फैसला सरकार ने किया है जिनका कर्ज एनपीए घोषित हो गया है। इस एनपीए के लिए सरकार ने करीब 56 सौ करोड़ रुपये का बॉन्ड जारी करने की घोषणा की है। यानी किसानों की कर्ज माफी पर 36 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च होगा। योगी सरकार के इस फैसले से अब भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों महाराष्ट्र, राजस्थान के अलावा उसके सहयोगी तेदेपा शासित आंध्र प्रदेश, कांग्रेस शासित कर्नाटक तथा दूसरे दलों के शासन वाले तमिलनाडु, ओडिशा आदि की राज्य सरकारों पर भी अपने संसाधनों से किसानों के कर्ज माफ करने का दबाव बढ़ गया है।
गौरतलब है कि पीएम मोदी ने भले ही किसानों का कर्ज माफ करने का वादा किया था मगर चुनाव जीतने के बाद संसद में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली इस वादे से मुकर गए थे। संसद के बजट सत्र के दूसरे हिस्से में उन्होंने खुलकर कह दिया कि केंद्र सरकार पूरे देश में एक साथ किसान कर्ज माफी की कोई घोषणा नहीं करने जा रही है और अगर राज्य सरकारें चाहें तो अपने संसाधनों से किसानों के कर्ज माफ कर सकती हैं।
जेटली के अपने वादे से मुकरने की तमाम वजहें हैं। पिछले साल सितंबर में केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रुपाला ने संसद में आंकड़ा दिया कि देश में कृषि कर्ज 12 लाख 60 हजार करोड़ रुपये के करीब है जो कि देश के सकल घरेलू उत्पाद या कहें जीडीपी का करीब 10 फीसदी है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2016-17 में भारत की जीडीपी 122 लाख करोड़ रुपये है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने तीन वर्ष पहले पूरे देश में कृषि क्षेत्र की स्थिति जानने के लिए 70वें दौर का जो सर्वेक्षण किया उसके अनुसार देश भर के करीब 4 करोड़ 68 लाख 48 हजार 100 ग्रामीण खेतिहर परिवार कृषि कर्ज के जाल में डूबे हुए हैं। इसी सर्वे के अनुसार देश के हर खेतिहर परिवार के ऊपर औसतन 47 हजार रुपये का कर्ज है। यहां ये समझना जरूरी है कि हर परिवार पर कृषि कर्ज हो ही ये आवश्यक नहीं है। किसी परिवार पर लाखों का और किसी पर शून्य कर्ज हो सकता है मगर सर्वे में सभी परिवार को मिलाकर औसत निकालने पर हर परिवार पर 47 हजार रुपये का कर्ज होने की बात सामने आई है।
वैसे जिस उत्तर प्रदेश को लेकर किसानों की कर्ज माफी की बात राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा बन गई है वहां के आंकड़े इस बारे में चौंकाने वाले हैं। यूपी के 43 फीसदी खेतिहर परिवारों पर ही कृषि संबंधित कर्ज है और यहां हर परिवार पर औसतन 27 हजार 300 रुपये का ही कर्ज है जो कि राष्ट्रीय औसत से बहुत ही कम है। इसके मुकाबले आंध्र प्रदेश के 93 फीसदी खेतिहर परिवार कर्ज के जाल में डूबे हैं। तेलंगाना में करीब 89, तमिलनाडु में 83 फीसदी, केरल और कर्नाटक में 77 फीसदी और राजस्थान में 62 फीसदी और ओडिशा, महाराष्ट्र में करीब 57 फीसदी परिवार कर्ज के जाल में जकड़े हैं। देश में सबसे कम कृषि कर्ज वाले राज्यों में देश के उत्तर पूर्व के सभी राज्य शामिल हैं जहां मणिपुर और त्रिपुरा में 23 फीसदी के करीब खेतिहर परिवारों पर कर्ज का बोझ है। मेघालय, मिजोरम और नगालैंड आदि में तो 7 फीसदी से भी कम खेतिहर परिवारों पर कर्ज का बोझ है। हालांकि इन आंकड़ों को उत्तर पूर्व के राज्यों में खेतिहर परिवारों की खुशहाली के रूप में देखना गलत होगा। ऐसा इस वजह से भी हो सकता है कि कर्ज देने वाली संस्थाएं इन राज्यों में प्रभावी तरीके से कर्ज बांटने में चूक गई हों। अलग-अलग राज्यों के किसानों पर कर्ज का कितना बड़ा बोझ है यह भी एनएसएसओ के डाटा से साबित होता है। केरल के हर खेतिहर परिवार पर देश में सबसे अधिक 2 लाख 13 हजार 600 रुपये का कर्ज है जो कि राष्ट्रीय औसत से करीब साढ़े चार गुना अधिक है। इसके बाद आंध्र प्रदेश (एक लाख 23 हजार रुपये), पंजाब (एक लाख 19 हजार रुपये), तमिलनाडु (एक लाख 15 हजार रुपये) और तेलंगाना (93 हजार रुपये) का नंबर है।
केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री पुरुषोत्तम रुपाला द्वारा संसद में पेश डाटा के अनुसार देश के किसानों को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने एक लाख 45 हजार करोड़ रुपये, कोऑपरेटिव बैंकों ने एक लाख 57 हजार करोड़ रुपये और अन्य वाणिज्यिक बैंकों ने नौ लाख 57 हजार करोड़ रुपये कर्ज दे रखा है। इसमें से भी 7.75 लाख करोड़ रुपये फसली कर्ज है जबकि 4.84 लाख करोड़ रुपये गैर फसली है।
इन आंकड़ों से इतर देश में किसानों की आत्महत्या या अस्वाभाविक मौत के आंकड़े ज्यादा डरावने हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली भले ही संसद में यह बयान दें कि केंद्र सरकार किसानों के कर्ज नहीं माफ करने जा रही है, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का दावा है कि वर्ष 2015 में किसानों की आत्महत्या या अस्वाभाविक मौतों के मामले इससे पिछले वर्ष के मुकाबले बढ़ गए हैं। यानी केंद्र में वर्तमान सरकार के आने के बाद इन मौतों में तगड़ा उछाल आया है। अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार पूरे देश में वर्ष 2015 में 12 हजार 602 किसानों ने आत्महत्या की है और इनमें से अधिकांश के मौत की वजह खेती के लिए लिया गया कर्ज है जो कि खराब मानसून के कारण फसल बर्बाद होने से वापस नहीं किया जा सका।
अगर तीन महीने पहले दिसंबर में जारी किए गए इन आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि देश में किसान आत्महत्या के सबसे अधिक मामले लगातार सात साल से महाराष्ट्र में ही सामने आ रहे हैं और साल 2015 भी इससे अलग नहीं रहा। इस वर्ष 4291 किसानों ने यहां खुदकुशी की जबकि दूसरे स्थान पर कर्नाटक रहा जहां 1569 किसानों ने मौत को गले लगाया। तीसरे नंबर पर तेलंगाना है जहां 14 सौ किसानों ने आत्महत्या कर ली। खास बात यह है कि कर्नाटक उन बिरले राज्यों में है जहां पिछले वर्ष के मुकाबले किसान आत्महत्या में 100 फीसदी का उछाल आ गया। दूसरी ओर अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकंड़े के अनुसार गुजरात, केरल, राजस्थान और तमिलनाडु उन राज्यों में हैं जहां किसान आत्महत्याओं के मामलों में तगड़ी गिरावट का दावा कर रहे हैं। लेकिन यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ये सरकारी आंकड़े हैं जो किसान मौतों के मामले में थाने तक पहुंची सूचना पर आधारित हैं। हकीकत ये है कि कई मौतों की सूचना तो पुलिस तक पहुंचती ही नहीं और कई मामले में पुलिस वाले मौत का कारण कर्ज के बोझ को मानने से इनकार कर देते हैं। अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार देश में किसान आत्महत्याओं में से सिर्फ 2.65 फीसदी ही कर्ज के जाल के कारण होती हैं। ऐसे में जो आंकड़े हमारे सामने हैं उनसे बहुत अधिक संख्या में किसानों की मौत हुई हो सकती है।
अभी दिल्ली में तमिलनाडु के किसानों ने धरना देकर ये मांग की कि राज्य में सूखे से हुए नुकसान की भरपाई की जाए। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी इन किसानों से मिले और उन्होंने केंद्र सरकार से मांग की है कि किसानों की कर्ज माफी का फैसला तुरंत लिया जाए। उन्होंने केंद्र सरकार को किसान विरोधी करार देते हुए फिर से अपना ये आरोप दोहराया है कि सरकार देश के धनवानों का कर्ज माफ कर रही है जबकि किसानों को मरने के लिए छोड़ दिया गया है। हालांकि केंद्र सरकार ने तमिलनाडु के सूखा प्रभावित किसानों के लिए 1712 करोड़ और कर्नाटक के तूफान पीडि़त किसानों के लिए 1235 करोड़ की राहत की घोषणा की है। वैसे मद्रास हाईकोर्ट ने भी टिप्पणी की है कि किसानों का कर्ज माफ होना चाहिए।
किसानों की कर्ज माफी पर सबसे हास्यास्पद रवैया देश के बड़े बैंकरों ने अपनाया है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के डिप्टी गवर्नर एसएस मूंदड़ा सार्वजनिक रूप से किसान कर्ज माफी का विरोध कर चुके हैं। उनका तर्क है कि इससे लोगों में कर्ज अनुशासन कम हो जाएगा यानी लोग कर्ज चुकाने में आनाकानी करेंगे और आगे भी सरकारों से कर्ज माफी की उम्मीद लगाएंगे। वैसे मूंदड़ा से पहले यही बात देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की मुखिया अरुंधति भट्टाचार्य कह चुकी हैं। उन्होंने कहा, किसानों के कर्ज माफ करने से बैंकों को तो अपना पैसा सरकार से मिल जाएगा मगर इससे दीर्घावधि में देश को नुकसान होगा। लोग फिर से कर्ज लेंगे और उसे चुकाने से पहले अगले चुनाव का इंतजार करेंगे ताकि पार्टियां कर्ज माफी का ऐलान करें। इससे वित्तीय अनुशासन ही गड़बड़ हो जाएगा।
मगर भट्टाचार्य का यह बयान किसानों को रास नहीं आया है। महाराष्ट्र के बड़े किसान नेता और लोकसभा सांसद राजू शेट्टी ने आउटलुक से कहा कि अरुंधति भट्टाचार्य तब चुप्पी साध लेती हैं जब कॉरपोरेट हाउस बैंकों का पैसा हजम कर लेते हैं। ऐसे कॉरपोरेट हाउसों में अडानी समूह भी है और इसके बावजूद भट्टाचार्य गौतम अडानी की आस्ट्रेलिया वाली कोयला परियोजना को फंड देने में सबसे आगे खड़ी हैं। शेट्टी अरुण जेटली से भी नाराज हैं। उनके अनुसार जेटली केंद्रीय कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग का लाभ देने के लिए एक लाख 15 हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था कर सकते हैं मगर किसानों के लिए जरूरी इससे कम रकम का बंदोबस्त नहीं कर सकते।
आरोप-प्रत्यारोप अपनी जगह मगर यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसान देश के अन्नदाता हैं। उनका कष्ट देश का कष्ट होना चाहिए। खेती दिनों-दिन घाटे का सौदा होती जा रही है और ऐसे में अगर सरकारें किसानों के साथ खड़ी नहीं होंगी तो खामियाजा आम जनता को भुगतना होगा।
नजीर बना अदालती फैसला
वी.एम. सिंह
जब हम किसान के कर्ज की बात करते हैं तो हमें यह समझना चाहिए कि आखिर किसानों को लोन मिलता कैसे है? पहले आढ़तियों, महाजनों और कुछ किसानों को बैंकों से लोन मिलता था। अब ज्यादातर किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए कर्ज मिलता है। किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए किसानों को 9 प्रतिशत वार्षिक ब्याज दर पर कर्ज मिलता है जिसमें से 2 फीसदी की सब्सिडी केंद्र सरकार देती है जबकि समय पर भुगतान करने पर 3 फीसदी की छूट और मिलती है। यानी किसानों को 4 फीसदी ब्याज दर पर कर्ज मिल सकता है। मगर ऐसा होता नहीं है क्योंकि किसान विभिन्न वजहों से कभी समय पर लोन नहीं चुका पाता और इसके कारण जुर्माने के साथ उसे करीब 11 फीसदी तक ब्याज का भुगतान करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश में वर्ष 2015 में 1.61 करोड़ किसानों ने रबी की फसल के लिए किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए कर्ज लिया था। ओलावृष्टि के कारण उनकी फसल खराब हो गई और केंद्र तथा राज्य दोनों सरकारों ने उनके लिए राहत की घोषणा की। मगर राहत के नाम पर किसानों को 100-100 रुपये के चेक थमा दिए गए।
मैं इस मुद्दे को लेकर हाईकोर्ट गया कि किसानों को राहत नहीं बल्कि मुआवजा मिलना चाहिए और ये मुआवजा किसान का हक है क्योंकि किसान क्रेडिट कार्ड से दिए जाने वाले हर कर्ज की राशि में 2 से 3 फीसदी पैसा बीमा करवाने के नाम पर काटा जाता है। ऐसा इसलिए ताकि फसल खराब होने पर बीमा कंपनियां किसानों को भुगतान कर सकें। इस मुकदमे में मैंने केंद्र और यूपी दोनों की सरकारों को पार्टी बनाया क्योंकि कर्ज देने वाली संस्थाओं में 80 फीसदी बैंक केंद्र के जबकि 20 फीसदी राज्य के थे। मुकदमे के दौरान प्रतिवादियों की ओर से कहा गया कि 1.61 करोड़ में से सिर्फ 12 लाख किसानों ने बीमा का प्रीमियम दिया है जबकि करीब डेढ़ करोड़ ने कोई प्रीमियम नहीं भरा है इसलिए मुआवजा सिर्फ 12 लाख किसानों को दिया जा सकता है। यह भी कहा गया कि कुछ बैंकों ने प्रीमियम काटा मगर बीमा कंपनियों में जमा ही नहीं कराया। हमारा तर्क था कि बीमा का प्रीमियम काटना बैंकों की जिम्मेदारी थी जो कि लोन देते समय ही काटा जाना चाहिए था। प्रीमियम को बीमा कंपनी में जमा करने की जिम्मदारी भी उन्हीं की थी। ऐसे में बैंकों की गलती की सजा किसान को नहीं दी जा सकती। अंत में हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि बैंकों ने पैसा काटा या नहीं काटा, बीमा कंपनी में जमा कराया या नहीं कराया, इससे किसानों को कोई लेना-देना नहीं है। सभी किसानों को मुआवजा दिया जाना चाहिए। इस फैसले के बाद हमारी सरकार से मांग है कि फैसले को पूरे देश में लागू किया जाए क्योंकि देश के दूसरे हिस्सों के किसान भी यही समस्या झेल रहे हैं।
(सुमन कुमार से बातचीत पर आधारित)