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विशेष रिपोर्ट: यूपी में क्या गुल खिला रही हैं गोश्त पर लगी पाबंदियां

मांस की दुकानों के बारे में नई सरकार के नित नए फरमान से मुस्लिमों के साथ-साथ दलितों को सबसे अधिक घाटा
मेरठ में मीट की बंद दुकान

इन दिनों मेरठ जाने वाले लोग एक अजीबोगरीब दृश्य देख कर हैरान रह जाएंगे। समय ने ऐसी करवट ली है कि शहर के खुदरा गोश्त बिक्रेताओं को वह करने को मजबूर होना पड़ा है जो इससे पहले उन्हें कभी नहीं करना पड़ा। उन्हें गोश्त की दुकान के सामने पर्दा डालने को कहा गया है ताकि वहां रखा भुना या कच्चा गोश्त किसी को दिखे नहीं। कुरैशी बहुल खुदरा मीट विक्रेताओं ने इस फतवे को मानने में जरा भी देरी नहीं लगाई। फटाफट अपनी दुकानों के आगे ऊनी कंबल या पर्दे लटका दिए। उनके अनुसार कहने को अवैध बूचड़खानों के खिलाफ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार की कार्रवाई के इस दौर में कारोबार में बने रहने का एकमात्र यही तरीका था।

यह बात दीगर है कि सरकार ने जो सोचा था वह इस फरमान से पूरा नहीं हुआ। अदृश्य होने की जगह गुलाबी कंबलों या नीले चिक से ढंकी गोश्त की दुकानें और ज्यादा सरेआम हो गई हैं। इस तरह ढंकी गैर शाकाहारी दुकानें अन्य दुकानों से अलहदा दिख रही हैं। दुनिया में अन्य जगहों पर ऐसे अलगाव के बड़े गंभीर मतलब लगाए जाते रहे हैं। फिरोज के परिवार की मेरठ के बेगम पुल में चिकेन और मटन की दो दुकानें हैं। फिरोज कहता है क‌ि हमारी दुकानें कम से कम खुली हुई तो हैं, दूसरी सभी बंद हो गई हैं। हम चंद खुशनसीबों में से एक हैं।

सिर्फ मेरठ में ही नहीं, ऐसे नजारे हापुड़, खुर्जा, बुलंदशहर, इलाहाबाद और लखनऊ में भी आम हो गए हैं। हर जगह चिकेन, बकरे का गोश्त (मटन), मछलियां और भैसों के गोश्त बेचने वालों को कहा जा रहा है कि वैध हो जाओ या दुकानें बंद कर लो। वैध होने का मलतब सिर्फ सभी जरूरी लाइसेंस हासिल कर लेना भर नहीं है बल्कि उन्हें ओहदेदारों को यह भरोसा भी देना पड़ेगा कि उनकी दुकानें ढंकी रहेंगी। पुलिस और जिले के अधिकारीगण मीट की दुकानों में शीशे की खिड़कियां, एयरकूलर, एयरकंडीशनर और अन्य आधुनिक साजो-सामान लगाने के लिए दबाव डाल रहे हैं। बेगमपुल में ही सूअर के गोश्त की दुकान के 70 वर्षीय मालिक बी. बी. राम कहते हैं क‌ि प्रशासन ने मेरी दुकान के अगले भाग को यह कहते हुए तोड़ दिया कि मैंने अतिक्रमण किया है। हम यहां तीन पुश्तों से हैं। 150 साल हो गए लेकिन पहली बार दुकान को ढंकने के लिए कहा जा रहा है।

मीट निर्यात के यांत्रिक बूचडख़ानों को केंद्र सरकार लाइसेंस देती है लेकिन यूपी में इसके कोई मायने नहीं हैं। इसलिए मांस के खुदरा विक्रेता ही सिर्फ बेचैन नहीं हैं बल्कि निर्यातक, जिनमें ज्यादा कुरैशी ही हैं, भी खासे चिंतित हैं। जानवरों की खाल के कारोबार में दबदबा रखने वाले ज्यादातर दलित भी प्रभावित हुए हैं और घबराए हुए हैं क्योंकि यह उनका पुश्तैनी धंधा रहा है।

दलित विचारक और मेरठ कालेज में प्रोफेसर सतीश प्रकाश कहते हैं, 'भाजपा ने बड़ी चतुराई से यूपी विधानसभा चुनावों के दौरान दलितों और मुसलमानों को राजनीतिक रूप से अलग-थलग कर दिया। और सत्ता में आते ही उन्होंने पहला काम इन दो सामाजिक समूहों की आर्थिक रीढ़ तोड़ने का किया है। बूचड़खानों को वैध करने के नाम पर मुसलमानों को आर्थिक रूप से कमजोर किया जा रहा है। पार्टी खाल के दलित कारोबारियों से इसलिए खौफ खाती है क्योंकि 50 साल पहले वही थे जो महाराष्ट्र से आम्बेडकर आंदोलन को आगरा ले आए थे। वे पुरानी जातिगत लड़ाइयां आज आर्थिक युद्ध बन गई हैं।’

गोश्त के कारोबार में सबसे अधिक कमाई इसके निर्यात में होती है। अधिकतर निर्यात मध्य पूर्व देशों के लिए होता है। गोश्त निर्यात का वार्षिक कारोबार 2.50 लाख करोड़ रुपये का है। वहीं चमड़े के निर्यात का 40,000 करोड़ रुपये का कारोबार है। गोश्त और खाल का करीब 65 प्रतिशत उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है। कुरैशियों का इस कारोबार के करीब 40 प्रतिशत पर कब्‍जा है। इस समुदाय के करीब 1.5 करोड़ लोगों के जीवन-यापन का यही एकमात्र जरिया है। गोश्त के निर्यात की कड़ी में मवेशी पालने वाले किसान, मंडियों के मालिक, पशुओं में पैसा लगाने वाले, निर्यातक और पैकेजिंग यूनिटों के हिंदू और जैन मालिक हैं। इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर के अध्यक्ष एवं हिंद ग्रुप ऑफ कंपनीज के एमडी सिराजुद्दीन कुरैशी कहते हैं, 'पीएम मोदी के 'सबका साथ सबका विकास’ नारे को सुनते हुए हमें यूपी में बूचड़खानों के खिलाफ नई सरकार से ऐसी कार्रवाई की उम्‍मीद नहीं की थी। अगर बूचड़खाने बंद हुए तो व्यापक बेरोजगारी एवं भुखमरी का आलम उत्पन्न होगा। लाइसेंसी बूचडख़ानों को भी बंद किया जा रहा है। कम से कम सरकार की पुनर्वास की स्कीम भी होनी चाहिए थी।’ सिराजुद्दीन ने पीएम मोदी और सीएम आदित्यनाथ को इस बाबत पत्र लिखे हैं।

आल इंडिया जमात-उल-कुरैश के उपाध्यक्ष बुलंदशहर के हाजी नूर मोहम्‍मद कुरैशी घबराए हुए गोश्त के कारोबारियों से घिर से गए हैं। वे कहते हैं, 'मेरा फोन कभी बंद ही नहीं होता है। सरकार चाहती है कि हमारी दुकानें धार्मिक स्थलों, मस्जिदों से भी 100 गज दूर रहें। वह कूलर, एसी आदि लगाने को कह रही है। बताइए, ऐसी दुकानों के लिए 5000-7000 रुपये का बिजली का बिल कौन भरेगा। दुकानों को फिर से बनाने में जो 2 लाख रुपये तक खर्च होंगे, वह कौन भरेगा, हम या हमारे मकान मालिक?’

इलाहाबाद के वकील कमल कृष्ण राय कहते हैं, अनेक हिंदू हैं जो मीट के कारोबार को मुसलमानों से जोड़ कर देखते हैं। यह गलत सोच है। दरअसल हिंदुओं के बीच आज गोश्त की ज्यादा खपत हो रही है। लेकिन भाजपा की जिस पैमाने पर जीत हुई है उससे लगता है जैसे सरकार को बूचड़खाने के खिलाफ कार्रवाई पर कम से कम हिंदुओं का मौन समर्थन मिल रहा है। वे नवरात्रि की वजह से भी चुप हैं। इस समय भारी संख्या में हिंदू गोश्त से तौबा कर लेते हैं।’

लखनऊ यूनिवर्सिटी की पूर्व वाइस चांसलर रूप रेखा वर्मा कहती हैं, 'पिंक रिवोल्यूशन (गुलाबी क्रांति) के इर्द-गिर्द जो दुष्प्रचार बुना गया वह इस गलत दावे पर आधारित था कि गाय-भैसों की आबादी घट रही है। लगता है यह फार्मूला काम कर गया और मुसलमान बचाव की मुद्रा में हैं। उन्हें भारी विरोध का अंदेशा सता रहा है। मुसलमानों को समझ में आ रहा है कि बूचड़खाने गंदगी के पर्याय बन गए हैं। बूचड़खानों से निकलने वाले खून से रोग के फैलने एवं मिट्टी के नष्ट होने की अफवाह अलग।’

इमरान को इस बात का दुख है कि बहुतों को यह नहीं मालूम कि बेहतर बूचड़खाने कितने साफ और कार्यकुशल हैं। ये प्रदूषण भी नहीं फैलाते हैं। पंचतारा होटलों जैसे ही साफ-सुथरे होते हैं। इसके अलावा काटे गए भैंसों और बकरों के शरीर का हर हिस्सा किसी न किसी काम आ जाता है। बहने वाले खून लिपस्टिक और खाद निर्माताओं के पास पहुंच जाते हैं। यही वजह है कि हमारे कारोबार में इतना फायदा है। सतीश प्रकाश निचोड़ बताते हुए कहते हैं, 'यह धर्म, स्वच्छता या भैंसों के संरक्षण का सवाल कतई नहीं है। यह खालिस आर्थिक युद्ध है।’

 

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