Advertisement

वोट के फेर में कुछ चिंताजनक मुद्दों से हट गई हैं निगाहें

पूरे समाज के लिए इसके सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक निहितार्थ हैं
व‌िजय सरदाना

किसी भी समाज में खानपान का चयन लंबे समय के सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का परिणाम होता है। उसी प्रकार समाज की इन मूलभूत आवश्यकताओं के इर्द-गिर्द विभिन्न कौशल, व्यवसाय और आर्थिक गतिविधियां उभरतीं हैं। किसी समाज के भीतर कई विचारधाराओं को मानने वाले होते हैं, जिनमें से कुछ किसी चलन को गैर जरूरी और अवांछित मानते हैं। लेकिन, कई अन्य उसे विभिन्न कारणों से समाज के लिए आवश्यक मानते हैं। यह किसी भी समाज और सभ्यता के विकास और मूल्यांकन का एक अंग होता है। राजनीति में विभिन्न विचारधाराओं की मौजूदगी एक वास्तविक चुनौती होती है और विचारों में अंतर को समाहित कर लेना विभिन्न मतों की परिपक्वता और नेतृत्व पर निर्भर करता है।

अवैध बूचड़खानों पर लगे प्रतिबंध के बाद पैदा हुआ विवाद, ऐसी ही स्थिति है। इस स्थिति को सावधानी से हल करने की जरूरत है। क्योंकि पूरे समाज के लिए इसके विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक निहितार्थ हैं। वैध और अवैध बूचड़खाने इस पक्ष का एक अलग पहलू है, जिसका जिक्र हम आगे करेंगे। किसी भी नतीजे पर पहुंचने से पहले हमें कुछ तथ्यों को जान लेना आवश्यक है।

 देश में पशुओं की तादाद:

भारत सरकार द्वारा वर्ष 2012 में कराई गई 19वीं पशुगणना के अनुसार देश में पशुओं की कुल संख्या 50 करोड़ 12 लाख पांच हजार है। इनमें भैंस, भेंड़, बकरी, सूअर, गधे, ऊंट, घोड़े, टट्टू, याक शामिल हैं। पिछली पशुगणना के मुकाबले मौजूदा गणना में 3.33 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। ठीक इसी दौरान कई राज्यों में पशुओं की तादाद बढ़ी है। जिनमें गुजरात (15.36 फीसदी), उत्तर प्रदेश (14.01 फीसदी), असम (10.77 फीसदी), पंजाब (9.57 फीसदी), बिहार (8.66फीसदी), सिक्किम (7.96फीसदी), मेघालय (7.41 फीसदी), छत्तीसगढ़ (4.41 फीसदी) में मवेशियों की संख्या बढ़ी है। इस दौरान गाय और भैंसों की संख्या 6.75 फीसदी वृद्धि के साथ 11 करोड़ दस लाख से बढक़र 11 करोड़ 85 लाख हो गई है।  दुधारू पशुओं, गाय और भैंस की संख्या सात करोड़ 70 लाख से बड़कर आठ करोड़ 50 लाख हो गई है जो 4.51 फीसदी की वृद्धि दर्शाती है। इसका अर्थ है कि उपरोक्त आंकड़ों के अनुसार तीन करोड़ 80 लाख गायें और भैंसें दूध नहीं देने वाली हैं।

हमारे लिए ध्यान देने वाला महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पिछली पशुगणना के अनुसार 4.95 फीसदी की वृद्धि के साथ दुधारू भैंसों की संख्या चार करोड़ 86 लाख से बढ़कर पांच करोड़ 10 लाख हो गईं। गायों की संख्या 2007 के मुकाबले 2012 में 6.52 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 12 करोड़ 29 लाख दर्ज की गई है। वहीं भैंसों की संख्या 7.99 प्रतिशत की वृद्धि के साथ वर्ष 2012 में नौ करोड़ 25 लाख दर्ज की गई। जानवरों को दुधारू स्थिति में बनाए रखने के लिए गर्भाधान जैविक उत्पादन प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण भाग है। गर्भवती पशु जब बच्चों को जन्म देती हैं तो उनमें से आधे मादा होते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि आधे बच्चे वैसे होते हैं जो दुधारू नहीं होते। किसानों द्वारा कृषि कार्यों में ट्रैक्टर और पंपों के उपयोग के कारण ये अधिक उपयोगी नहीं रह गए हैं। कुछ ही किसान सूखे की स्थिति में इनका उपयोग करते हैं और इनमें से अधिकांश कमजोर और कुपोषित रहते हैं क्योंकि इनका स्वामित्व रखने वाले किसानों की भी कमोबेश यही हालत होती है।

 क्या कहते हैं आंकड़े

किसानों के बीच भैंस पालने की प्रवृ‌‌‌त्ति बढ़ती जा रही है, क्योंकि भारतीय समाज में सांस्कृतिक कारणों से गाय को बूढ़ी हो जाने के बाद हटाना मुश्किल हो जाता है। अक्सर गाय पालने वाले किसानों को जब एहसास होता है कि वे दूध नहीं देने वाली गायों को पालने में असमर्थ हैं और अनुत्पादक पशुओं को हटा भी नहीं सकते तो ऐसे में वे गैर उपयोगी पशु उनके लिए बोझ बन जाते हैं। तब वे जानवरों को गांवों या निकटवर्ती शहरों से दूर छोड़ आते हैं। फिर यही आवारा मवेशी समाज और प्रशासन के लिए एक सामाजिक चुनौती बन जाते हैं। देश में ऐसी कोई नीति नहीं है कि कैसे हर साल ऐसे दस करोड़ आवारा मवेशियों को नियंत्रित किया जाए। ऐसे में एकमात्र विकल्प होता है इन बेकार जानवरों को कटने के लिए बूचड़खानों में पहुंचा देना। यह एक बहुत ही संवेदनशील, विवादास्पद और पुराना प्रश्न है कि भारत की पशुधन अर्थव्यवस्था को छेड़े बिना इसे कैसे संभाला जाए।

आवारा मवेशी एक सामाजिक और आर्थिक चुनौती:

समुचित प्रबंधन के बिना, ये आवारा पशु गांवों में  फसलों को नष्ट करेंगे, जिससे गांवों में कानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है। चारे के अभाव में ये जानवर नागरिकों के करीब शहरों में जाएंगे और यातायात एवं पार्किंग के लिए खाली क्षेत्रों पर कब्जा कर सामाजिक समस्याएं खड़ी करेंगे। आवारा पशुओं के कारण दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ेगी। यूपी, हरियाणा और अब गुजरात सरकार के हालिया फैसलों में यह भी बताना चाहिए कि अनुत्पादक जानवरों की देखभाल करने के लिए उनकी क्या योजनाएं है।

 कूड़े के ढेर में भोजन की तलाश करती गायें

डेयरी विकास, चारा और चारागाह की कमी:

यदि आप भारतीय डेयरी उद्योग के इतिहास और भारत में दूधारू पशु की कम उत्पादकता के कारण पढ़ते हैं, तो यह स्पष्ट है कि यहां चारागाह और पशु आहार की भारी कमी है और चारे के लिए उत्पादक और गैर-उत्पादक पशुओं के बीच मारामारी है। यहां नीति निर्माण करने वाली संस्थाओं ने ऐसा कोई तंत्र नहीं सुझाया है जिसमें बताया गया हो कि अनुत्पादक और कम उत्पादन वाले जानवरों को इस व्यवस्था से कैसे निकाला जाए जिससे कि दुधारू और प्रजनन योग्य पशुओं को उचित पोषण उपलब्ध हो सके।

किस कीमत पर कौन हर रोज इन लाखों आवारा पशुओं को खिलाएगा? ये बीमार आवारा पशु देखरेख के अभाव में शहर या शहर के हर हिस्से में मारे-मारे फिरते दिखाई देंगे। क्या यह एक अच्छी स्थिति होगी?

समाज का एक विशेष वर्ग जो शाकाहारी है, वह पशु हत्या को अवांछनीय और अमानवीय कृत्य मानता है। दूसरी तरफ विभिन्न खाद्य सर्वेक्षणों के अनुसार, भारत में लगभग 70 फीसदी जनसंख्या खान-पान में नॉन वेजेटेरियन है। मीट क्षेत्र में स्वच्छता एक चिंता का विषय रहा है। इस एक कारण से योजना आयोग और केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ-साथ निजी क्षेत्र को वित्तीय सहायता प्रदान कर आधुनिक बूचड़खानों को बढ़ावा देने के लिए एक अलग से योजना बनाई थी।

उचित खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित किए बिना, इससे प्रोटीन के शाकाहारी स्रोतों पर दबाव बढ़ जाएगा। यदि आप देश में भोजन की उपलब्धता को देखेंगे तो पहले से ही प्रोटीन के शाकाहारी स्रोतों की कमी है।

इससे मछली और चिकन जैसे अन्य पशु प्रोटीन स्रोतों की कीमतों में भी बढ़ोतरी होगी। पशुओं से उपलब्ध आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए हमारे देश में कोई तंत्र नहीं है। इससे जन स्वास्थ्य को नुकसान होगा और खाद्य महंगाई बढ़ेगी।

 वैध-अवैध बूचडख़ाने के विवाद का आर्थिक प्रभाव:

भारत से चमड़े और चमड़े के उत्पादों का 6 अरब अमेरिकी डॉलर का निर्यात होता है। हम 'मेक इन इंडिया’ और 'स्किल इंडिया’ के तहत इन कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की योजना बना रहे हैं, लेकिन ऐसे विवादों से इन उद्योगों के भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े हो सकते हैं। इन क्षेत्रों में लगे लाखों लोगों को आजीविका के लिए दूसरे विकल्प तलाशने होंगे।

 आगे का रास्ता?

मेरे विचार में, ऐसे विवादों और विवादास्पद निर्णयों से पहले सरकार को एक राष्ट्रीय पशुधन प्रबंधन नीति विकसित करनी चाहिए। जिसमें निम्नलिखित चीजें शामिल होनी चाहिए-

1. अवांछनीय जानवरों के उत्पादन को कम करने के लिए चयनात्मक प्रजनन कार्यों की योजना बनाएं। गर्भधारण की प्रक्रिया के समय ऐसी तकनीक अपनाई जाए जिससे 90 फीसदी मादा जानवर का गर्भधारण सुनिश्चित हो सके।

2. राष्ट्रीय खाद्य और चारा नीति का विकास करना होगा ताकि योजना में अनुत्पादक पशुओं के लिए भी भोजन पर विचार किया जा सके।

3. खाद्य नियामक संस्था एफएसएसएआई की लाइसेंसिंग प्रक्रियाओं में पारदर्शिता सुनिश्चित किया जाना चाहिए। मीट की दुकानों और बूचड़खानों के लाइसेंस देने में देरी भ्रष्टाचार का मूल स्रोत है। अनिवार्य प्रणाली से भ्रष्टाचार के लिए नए दरवाजे खुलेंगे जो कि निरीक्षण और लाइसेंसिंग विभागों में आम है।

4. आवारा पशुओं के लिए पशु चिकित्सा सेवाओं और चारा देने के लिए कोई प्रावधान नहीं है। यह समस्याओं को और जटिल बना रहा है।

पूरे मुद्दे को गंभीर बहस की जरूरत है। सभी संबंधिक पक्षों के लिए पैदा हुई चुनौतियों के समाधान के लिए एक संतुलित और समग्र नीति होनी चाहिए।

(लेखक एग्री बिजनेस और फूड पॉलिसी के एक्सपर्ट हैं)

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement