खंडवा में जन्मे किशोर कुमार को गायक के रूप में सभी जानते और सराहते हैं पर वह संगीत के कितने बड़े पारखी थे यह उनकी संगीतबद्ध फिल्मों के गीतों को सुनने से पुख्ता रूप में सिद्ध होता है। शंकर मुखर्जी निर्देशित और स्वयं किशोर और मधुबाला की हिट जोड़ी द्वारा अभिनीत झुमरू (1961) तो आज भी किशोर के संगीत और गीतों के कारण लोगों के जेहन में बसी हुई है। 'मैं हूं झुन झुन झुन झुन झुमर’ (किशोर), 'बाबू आना सुनते जाना’ (किशारे, आशा, साथी), 'हे झूमे रे झूमे रे दिल मेरा’ (आशा, किशोर), 'ऐ भोला भाला मन’ (आशा, किशोर) जैसे गीतों से किशोर ने अपनी योडलिंग की शरारती शैली को संगीत में रूपांतरित किया। यह काम उन्होंने इतनी खूबसूरती से किया कि उनके ऐसे सभी गीत बेहद लोकप्रिय रहे, जिसमें उन्होंने योडलिंग शैली अपनाई। अपने भाई अशोक कुमार के बांबे टॉकीज की जीवन प्रभात के लिए गाए गीत 'कोई हमदम न रहा’ में थोड़ा परिवर्तन कर (हालांकि मूल धुन वही थी) किशोर ने झिंझोटी के सुर लगाए और आज तक इस गीत को किशोर कुमार के गाए बेहतरीन गीतों में से एक समझा जाता है। 'ठंडी हवा ये चांदनी सुहानी’ (किशोर) का शीतल सौंदर्य और 'मतवाले हम मतवाले तुम’ की तन्मयता किशोर के बहुआयामी व्यक्तिव की संगीत रचनादृष्टि को बखूबी रेखांकित करते हैं।
इतने शानदार गीतों के बावूजद किशोर कुमार का सर्वश्रेष्ठ संगीत उनके द्वारा निर्मित दूर गगन की छांव में (1964) में आया। एक संवेदनशील फिल्म में बांसुरी के गूंजते स्वरों के साथ पहाड़ी शैली में 'आ चल के तुझे मैं ले के चलूं एक ऐसे गगन के तले’ और भैरवी के सुरों के साथ 'जिन रातों की भोर नहीं है’ किशोर के गाए दो बेहद संवेदनशील गीतों के रूप में आज तक याद किए जाते हैं। खंडवा में बिताए अपने बचपन के प्रति मरते दम तक अतीतानुरागी किशोर के स्वर में 'कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन’ सुनना यदि आज भी अभिभूत करता है, तो उनकी संगीतबद्ध श्रृृंगार प्रधान रचना 'छोड़ मेरी बैयां बलम बेईमान’ (आशा), नीतिप्रधान रचनाएं 'राही तू रुक मत जाना’ (हेमंत) और 'ओ जग के रखवाले’ (मन्ना डे) तथा बेहद लुभावनी पर विस्मृत कृतियां 'पथ भूला इक आया मुसाफिर’ और 'खोया-खोया चंदा खोए-खोए तारे’ (दोनों आशा) इस फिल्म के संगीत को अनुभूति की एक विरल यात्रा के रूप में यादगार बनाती है।
हम दो डाकू (1967) का गिटार पर तेज रिद्म और सितार के तीव्र इंटरल्यूड्स से सजा 'जब दो दिन की है’ (किशोर, अनूप कुमार) जैसे गीतों को तो सफलता नहीं मिली पर उनके द्वारा निर्मित दूर का राही (1971) और जमीन आसमान (1972) में उन्होंने अहसास-भरा संगीत दिया। सुलक्षणा पंडित के साथ गाया उनका 'बेकरार दिल तू गाए जा’ किरवानी आधारित कशिश-भरी धुन के कारण आज भी याद किया जाता है। पहाड़ी सुरों को लेकर सृजित 'जीवन से न हार’ (किशोर, साथी), बांग्ला लोकशैली की छाया में रचा गया, 'पंथी हूं मैं उस पथ का’ (किशोर), 'मैं एक पंछी मतवाला रे’ (अमित कुमार का गाया पहला गीत) और बेहद दार्शनिक अंदाज में सृजित 'चलती चली जाए जिंदगी की डगर’ (हेमंत), 'मुझे खो जाने दो’ (किशोर), 'खुशी दो घड़ी की मिले न मिले’ (किशोर) तथा 'एक दिन और गाया’ (मन्ना डे) जैसे गीत बहुत प्रभावशाली थे। यह अलग बात है कि ये गीत अधिक लोकप्रिय नहीं हुए।
किशोर भले ही हास्य अभिनेता रहे हों और गायक के रूप में ढेर सारे हलके-फुलके गीत गाए हों पर अपनी संगीतबद्ध रचनाओं में उन्होंने दार्शनिकता का जो चित्र खींचा वह उन्हें संगीतकार के रूप में विशिष्ट बनाता है। जमीन-आसमान (1972) का 'आंखें तुम्हारी दो जहां’ (किशोर) और 'हम तुम चले’ (किशोर, आशा) में भले ही किशोर का लोकप्रिय खिलंदड़ रूप सामने आता हो पर 'न रो ऐ मेरे दिल यहां’ (लता) और 'किसने यहां किसको जाना’ (आशा) जैसे गीतों में फिर वही दार्शनिकता बड़े संवेदनशील तरीके से सामने आती है।
उनके द्वारा संगीतबद्ध, बाद की फिल्मों में कुछ ही गीत अच्छे रहे। बढ़ती का नाम दाढ़ी (1974) में बप्पी लाहिड़ी से किशोर दा ने उनका पहला गीत गवाया था। 'ये जवानी चार दिन, प्यार कर ले मेरे यार’, गीत कुछ खास नहीं था। 'फिर सुहानी शाम ढली, फिर बढ़ चली बेकली’ (किशोर, साथी) ही फिल्म का ठीक-ठाक गीत कहा जा सकता है। शाबास डैडी (1978) के 'दौर-ए-खिजां का दिल के चमन में’ (अमित), 'चलता चला जाऊं मैं’ (अमित, अपर्णा) और चलती का नाम जिंदगी (1981) के 'रात आज की, रात दिलकशी की ये’ (अमित, साथी) जैसे गीत अच्छे होते हुए भी उस स्तर के नहीं माने जाएंगे जो किशोर का था। दूर वादियों में कहीं (1982) गीतविहीन फिल्म थी।
किशोर की मृत्यु के दो साल बाद प्रदर्शित होने वाली उनकी अंतिम फिल्म ममता की छांव में (1989) के लिए उन्होंने शैलेंद्र के लिखे एक पुराने गीत 'मेरा गीत अधूरा है कोई बिखरे तार सजा दे’ (किशोर) की बहुत ही मार्मिक धुन बनाई थी। अपनी पत्नी लीना चंद्रावरकर से फिल्म में नायिका की भूमिका कराने के अलावा उन्होंने 'ना रे ना मुझसे दूर न जाना’ और 'अंधियारी राहों में मां कोई दीप जला’ (अमित के साथ) दो गीत भी गवाए थे। दुर्भाग्यवश न फिल्म ठीक से प्रदर्शित हो पाई, न इन गीतों को ज्यादा सुना गया। किशोर कुमार द्वारा कंपोज किए कुछ अन्य गीत फिल्मों के अधूरे रह जाने के कारण उनके मुरीद उन्हें सुनने से वंचित रह गए। उनकी खुद की निर्माणाधीन नीला आसमान का 'अकेला हूं मैं इस जहां में’ (किशोर), सुहाना गीत का 'लो शाम हुई दिन डूब गया’, 'दीप जले दीप बुझे’, 'गुन-गुन भंवरे सुन’ (लता, जिसकी धुन बाद में हेमा मालिनी से गवाए एक बांग्ला गीत में किशोर ने प्रयुक्त की), प्यार अजनबी है (जिसके निर्माण के दौरान ही किशोर ने लीना चंद्रावरकर से शादी का निश्चय किया था) के 'प्यार अजनबी है’ (लता, किशोर), 'तुमसे सजे हैं मेरे सपने सुनहरे’ (आशा, किशोर), सुदर्शन फाकिर की लिखी मशहूर गजल 'जिंदगी कुछ भी नहीं फिर भी जिए जाते हैं’ (शंकर), दीनू का दीनानाथ का 'प्रभु कैसे रंगों में’ (भक्ति) और जमुना के तीर का 'जमुना के तीर राधे चोरी-चोरी जाए’ (किशोर) ऐसे ही बदनसीब गीत हैं।
बांग्ला में उनका कंपोज किया और गाया 'शेर राते रात छिलो पूर्णिमा’ गिटार और सैक्सोफोन की सुंदर रूमानी रचना के रूप में याद की जाती है। अमित कुमार के लिए तो उन्होंने ढेर सारे बांग्ला गीत कंपोज किए थे। लता के स्वर में उनकी संगीतबद्ध 'कि लिखि तोमाय’ और 'भालो बाशार आगुन जेले’ जैसी रचनाएं बहुत सराही गई थीं। बांग्ला के उनके खुद के कंपोज किए और गाए अनेक गीतों में 'आमार दीप नेमानो रात’, 'कैनो तुमि चुपि चुपि’, 'शे दिन ओ आकाशे’, 'मानुष जानो लिए विधि’, 'हे प्रियतमा आमि तो तोमाए बिदाए’ आदि भी बड़े मशहूर रहे हैं।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं।)