चर्चाएं हमेशा बहाने से ही होती हैं। जैसे इस बार चर्चा की वजह है शबाना खान। नाम शबाना वाली। जब लड़कियां बदलती हैं तो खामोशी से बदलती हैं। फिल्मों में भी यही होता है। इठलाती-बलखाती लड़कियां अब स्क्रीन पर आकर पूरे आत्मविश्वास से लात जमाने लगी हैं। दर्शक खुश होते हैं और तालियां पीटते हैं। कुछ अवाक हैं तो कुछ को लगता है कि नायिकाएं तो पेड़ों के इर्द-गिर्द, स्विमिंग पूल में ही अच्छी लगती हैं। अगर बिलकुल बॉलीवुडिया भाषा में कहें तो हाल ही में 'वीमेन सेंट्रिक’ फिल्मों का दौर आया है। पहले भी ऐसी फिल्में बनी हैं लेकिन इक्का-दुक्का। जबकि अब तो एक लंबी फेहरिस्त है जो बताती है कि फिल्म उद्योग को भी यदि किसी विषय में नफा समझ में आ जाए तो कहानियां दूसरे सांचों में तत्काल ढल जाती हैं।
नाम शबाना में दर्शक खुश हैं कि एक लड़की देश के दुश्मनों से लड़ने के लिए बहादुरी दिखा रही है। पिंक में अपनी मर्जी को बनाए रखने के लिए एक लडक़ी नहीं का मतलब 'नहीं’ कह रही है। निल बटे सन्नाटा में एक स्त्री अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए संघर्ष कर रही है, (अगर आपको इस संघर्ष पर सिलाई मशीन लिए हुए निरुपा राय या सुलोचना याद आए तो माफ कीजिए वहां संघर्ष बेटों के लिए था।) तो बात यह थी कि पिछले दिनों कहानी, पीकू, पिंक, निल बटे सन्नाटा ने जो सन्नाटा तोड़ा उसमें बहुत हद तक महिला पटकथा लेखिकाओं का भी योगदान है। महिला पटकथा लेखिकाओं की एक लंबी कतार है जो औरतों को परदे पर अलग ढंग से दिखा रही हैं। बात सिर्फ इतनी सी नहीं है कि औरतों को अलग ढंग से दिखाने की शुरुआत हो गई है। यह तो लंबे समय से चल रहा था। भारत में ही मुगल-ए-आजम जैसी फिल्म बन चुकी है। जिसमें एक कनीज बादशाह को चुनौती देने से नहीं हिचकती, मदर इंडिया बन चुकी है जिसमें मां, बेटे को गोली मारने में गुरेज नहीं करती। पिंक से भी पहले अपनी मर्जी के बिना किसी के साथ न जाने के लिए मिर्च-मसाला बन चुकी है। ऐसा नहीं है कि फिल्म उद्योग हाल ही में जागा है। अपने ही परिवार के सदस्य के खिलाफ आवाज उठाने वाली दामिनी को भी नहीं भूला जा सकता है। सालों से महिला निर्देशकों, महिला केंद्रित फिल्मों पर लिखा जा रहा है। जैसे ही कोई इस तरह की फिल्म आती है, समीक्षक, आलोचक, दर्शक वाह-वाह कर उठते हैं और इस तरह की प्रशंसा का दौर शुरू हो जाता है।
इस पूरे मुद्दे पर मूल प्रश्न यह उठता है कि जो लोग महिला केंद्रित फिल्मों पर बात करते हैं या तारीफ के पुल बांधते हैं वे फायर, वॉटर, लिपस्टिक अंडर माय बुर्का, कामसूत्र, लज्जा, सिंस जैसी फिल्मों पर आपत्ति क्यों करते हैं। फिल्म की शूटिंग में रुकावट से लेकर उसके प्रदर्शन में रोड़ा अटकाने तक का पवित्र काम होता है। आखिर ये कौन लोग हैं जो समाज को दो अलग-अलग खांचों में बांट कर फिर से औरतों को एक छवि में कैद कर देना चाहते हैं। दरअसल समाज की सोच यही है कि स्त्री के दो ही रूप अच्छे लगते हैं, देवी या दुष्टा। यदि वह खलनायिका है तो भी सर माथे और देवी है तो खैर कहने ही क्या। यही सोच है जो औरतों को अपनी इच्छाओं के बारे में बात करने से रोकती है। देवी या खलनायिका के रूप में निरुपित करना बरसों पुराना खेल है। परदे पर भी स्त्री को समाज के नियम-कायदे के अनुरूप ही दिखाया जा सकता है। यदि इस रेखा के पार जाकर कोई हिम्मत करे तो फिर उसकी खैर नहीं। अनुराग कश्यप की देव डी फिल्म का वैसे तो कोई विरोध नहीं हुआ लेकिन जब भी फिल्म की बात होती है पारो और चंद्रमुखी दो स्त्री किरदारों की व्याक्चया अलग ढंग से की जाती है। दोनों स्त्रियां अपने तन से जुड़ी इच्छाओं को सामने रखती हैं और जताती हैं कि उनका दिल भी मचलता है।
नाम शबाना और पिंक में लड़कियां लड़ रही हैं तो ठीक लेकिन लिपस्टिक अंडर माय बुर्का में लड़कियां अपनी इच्छाएं जताने लगें तो बवाल मच जाता है। दोनों ही बातें सिनेमा के माध्यम से ही बाहर आती हैं लेकिन एक श्रेणी वाहवाही लूटती है और दूसरी प्रदर्शन के लिए भी तरस जाती है। स्त्री की लड़ाकू छवि पर ताली पीटने वाले उसकी विद्रोही छवि पर अवाक रह जाते हैं और यही छवि यदि मुखर हो कर अपनी इच्छा कह दे तो समझो धरती के नष्ट होने का खतरा बन जाता है। घिसे-पिटे शब्दों में यह दोहरा मापदंड सिर्फ सुनहरे परदे को ही नहीं समाज को सुनहरा करने के लिए भी बाधक है।