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कैसे हो रही है अधिकारों के 'आधार’ पर चोट | विराग गुप्ता

‌व‌िचार
file photo

केंद्र सरकार ने जनवरी 2009 में भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) का गठन किया था। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर बनाई गई इस योजना का बेजा फायदा 3.5 करोड़ से अधिक विदेशी घुसपैठिए ले रहे हैं। शिकायतों के बावजूद इसे रोकने के लिए पुख्ता व्यवस्था नहीं बन पाई है। आधार योजना शुरू होने के 7 साल बाद वर्ष 2016 में संसद ने आधार को मनी बिल के रास्ते कानूनी तो बनाया पर प्राइवेसी (निजता का अधिकार) में सूराख छोड़ दिया। देश की 88.2 फीसदी आबादी यानी 112 करोड़ लोगों को 12 अंकों का आधार नंबर आवंटित करने के बाद सरकार कह रही है कि संविधान के अनुसार जनता को निजता का अधिकार नहीं है।  

सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों के माध्यम से अनुच्छेद 21 को परिभाषित करते हुए निजता को जीवन के अधिकार का हिस्सा माना है। आधार मामले में सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने यदि प्राइवेसी को मूलभूत अधिकार मान लिया तो सरकार सिर्फ आपातकाल के दौरान ही प्राइवेसी के अधिकार को निरस्त कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय की 8 सदस्यीय खंडपीठ ने 1954 में एमपी शर्मा तथा 1962 में खड़ग सिंह मामले में सरकार के अधिकारों की पुष्टि की, पर जस्टिस सुब्बाराव ने असहमति व्यक्त करते हुए प्राइवेसी को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सर्वोच्च बताया। वर्ष 1975 में सर्वोच्च न्यायालय की 6 सदस्यीय खंडपीठ ने गोविंद मामले में संवेदनशील व्यक्तिगत सूचनाओं यथा मेडिकल रेकॉर्डस को प्राइवेसी के अधिकार के तहत मान्यता दी। सर्वोच्च न्यायालय की 3 सदस्यीय खंडपीठ ने सन 2010 में सेल्वी मामले में अनुच्छेद 20 की व्याख्या करते हुए यह कहा कि जनता को अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। यूरोपियन यूनियन (ईयू) ने इंटरनेट से व्यक्त‌िगत डेटा हटाने को 'राइट टू फॉरगटन’ का प्रावधान किया है। इसे प्राइवेसी से जोड़ा और जनता का कानूनी हक माना। इसके तहत व्यक्ति की किसी भी तरह की निजी जानकारी सर्च इंजन में नहीं आ सकती। बाद में इसी तर्ज पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सरकार से जवाब मांग कर सुनवाई का फैसला लिया। सरकारी योजनाओं में दुरुपयोग रोकने के लिए आधार की व्यवस्था बनी जहां सर्वोच्च न्यायालय ने इसे जरूरी बनाने पर रोक लगा दी। फिर ईपीएफ में अपना पैसा, पासपोर्ट और जेल में परिजनों द्वारा बंदियों से मिलने जैसे संवैधानिक अधिकार को आधार नंबर न होने पर किस बिना पर रोका जा सकता है? नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि पर भारत ने वर्ष 1979 में ही हस्ताक्षर कर दिए थे, जिसमें अनुच्छेद 17 के तहत प्राइवेसी के अधिकार के लिए भारत प्रतिबद्ध है। भारत में प्राइवेसी को अनेक वर्तमान कानूनों के तहत मान्यता मिली है। इसके तहत :

 - आरटीआई कानून में लोगों की निजी जानकारी तीसरे व्यक्ति को नहीं दी जा सकती।

 - आईपीसी कानून के तहत लोगों के निजी जीवन में ताक-झांक करना कानूनी अपराध है।

 - संदिग्ध अपराधियों के डीएनए टेस्ट या ब्रेनमैपिंग करने के लिए अदालत की अनुमति की आवश्यकता होती है।

 - लोगों के घरों में छापा मारने के लिए पुलिस को अदालत से अनुमति लेनी पड़ती है।

 - कोई भी निजी एजेंसी आम जनता के टेलीफोन टेप नहीं कर सकती।

 - सरकार द्वारा टेलीफोन टेप करने के लिए टेलीग्राफ कानून के तहत सक्चत नियम बने हैं जिनको पीयूसीएल मामले में वर्ष 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने मान्यता दी।

 - इंटरनेट की दुनिया में सभी इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स (आईएसपी) कंपनियों को जनता के हितों को सुरक्षित रखने के लिए प्राइवेसी पॉलिसी का पालन करना जरूरी है।

योजना आयोग ने पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समूह गठित किया, जिसने वर्ष 2012 में अपनी विस्तृत रिपोर्ट दी। इसके बावजूद पूर्ववर्ती और वर्तमान सरकार संसद के माध्यम से वृहद प्राइवेसी कानूनी बनाने में विफल रही है। अमेरिका और यूरोप में डेटा की सुरक्षा तथा प्राइवेसी के लिए सख्त कानून तथा अदालती प्रक्रिया है। विदेशी इंटरनेट एवं भारतीय मोबाइल कंपनियां जनता की निजी जानकारी तथा डेटा को बेचकर भारी मुनाफा कमा रही हैं जिस पर सरकार की चुप्पी से भारतीय अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। केंद्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आधार में दी गई निजी सूचनाओं को सार्वजनिक करने को गैर-कानूनी बताते हुए प्राइवेसी के अधिकार की ट्वीट से पुष्टि कर दी है तो फिर सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामले की दुहाई क्यों दी जा रही है। आधार के तहत सरकार यदि लोगों की निजी सूचनाएं और बायोमेट्रिक्स लेती है तो सूचना प्रौद्योगिकी कानून (आईटी एक्ट) की धारा 43, 43 ए, 72 ए और डाटा सुरक्षा के लिए बनाए गए 2011 के नियम के तहत सूचनाओं को गोपनीय और जनता की प्राइवेसी सुरक्षित रखने के लिए जवाबदेही भी तो उसी की है। यून‌िक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया (यूआईडीएआई) द्वारा आधार कार्यक्रम को 556 एनरोलमेंट एजेंसी और 125 रजिस्ट्रार के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है। धोनी के आधार कार्ड विवरण को ट्वीट के जरिए सार्वजनिक करने वाली निजी एजेंसी को 10 सालों के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। लेकिन आधार योजना के विरुद्ध अभी तक दर्ज 1390 शिकायतों में से सिर्फ 3 मामलों में पुलिस शिकायत दर्ज कराई गई। डेटा लीक और बेचने जैसे मामलों के अनुसार हर्जाने की जवाबदेही तथा आपराधिक दंड के कानून लागू करके भारत की जनता की प्राइवेसी को 'आधार’ देने का वक्त अब आ गया है।

(लेखक सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता और संवैधानिक तथा साइबर मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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