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पानी का सही प्रबंधन ही कुचक्र से बचाएगा

ग‌िरता भूजल च‌िंता का ‌व‌िषय
डॉ. जे.एस. सामरा

औद्योगिकीकरण और जनसंख्या वृद्धि कार्बन कणों के उत्सर्जन, तापमान, प्रदूषण और मौसम की गड़बडिय़ों में बढ़ोतरी के कारण बन रहे हैं। धीरे-धीरे एक सामान्य सीजनल या वार्षिक बदलाव स्पष्ट दिखने लगा है और इसका अनूकूलन तथा प्रबंधन किया जा सकता है। लेकिन कुछ जगहों पर स्थानीय कारणों से तापमान में अचानक परिवर्तन हो रहे हैं। इनके प्रभाव को कम करना या इनका अनुकूलन एक गंभीर और मुश्किल काम है। सामान्य दैनिक जीवन और अर्थव्यवस्था, विशेषकर कृषि और इससे जुड़े उपक्रमों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है।

तापमान में बढ़ोतरी के चलते हिमखंडों और हिमालय की चोटियों पर बर्फ का अत्यधिक पिघलन, शुरुआती वर्षों में नदियों में पानी के बहाव में वृद्धि और पिछली सर्दियों की तरह भारी बर्फबारी आदि अभी नहीं तो कुछ समय बाद अवश्य पानी के संकट के संकेत हैं। नदियों में पानी के बहाव में परिवर्तन के कारण अंतरराज्यीय जल विवाद बढऩे वाले हैं। हिमखंडों में बिखराव और उनके आकार घटने के परिणामस्वरूप ये विलुप्त हो जाएंगे और बड़ी संख्या में जल स्रोत सूख जाएंगे। वर्ष 1962 से भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के साथ-साथ भारत तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों एवं निगमों द्वारा उपग्रह आधारित रिमोट सेंसिंग तकनीक से इकट्ठा किए गए आंकड़ों के अध्ययन से यह बदलाव स्पष्ट जाहिर होता है।

उल्लेखनीय है कि दिन के समय (अधिकतम) तापमान में वृद्धि के मुकाबले रात के समय (न्यूनतम) तापमान में अधिक वृद्धि दर्ज की गई है। मार्च 2017 के अंतिम सप्ताह में जम्‍मू और कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और दिल्ली में अधिकतर स्थानों पर दिन के समय तापमान में सामान्य से 5 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है। रेगिस्तान में मिट्टी की ऊष्मा ग्राह्यता बहुत कम होने के कारण यहां गर्म हवाओं (लू) या शीतलहर का प्रभाव जल्दी होता है। इराक, ईरान और अफगानिस्तान के मरुस्थलों से पैदा होने वाली गर्म हवाएं पाकिस्तान होते हुए राजस्थान पहुंचती हैं और हिमालय से टकराकर पूर्व की ओर बढ़ती हैं। इसी कारण पूर्व और पूर्वोत्तर भारत को छोड़कर अन्य जगहों का तापमान अधिक रहता है। महाराष्ट्र सहित अन्य जगहों से लू के प्रभावों, पानी की कमी और शीतल पेय पदार्थों की मांग बढऩे की खबरें आने लगी हैं। चंडीगढ़ जैसे स्मार्ट सिटी में भी पानी के समुचित बंटवारे, पाइप से कार धोने और 5.30 बजे से 8.30 बजे शाम तक लॉन में पानी देने पर प्रतिबंध सहित पानी के लीकेज पर जुर्माने जैसे नियम लागू कर दिए गए हैं।

बीते कुछ समय से तापमान में महसूस की जा रही यह प्रतिदिन की बढ़ोतरी अधिक चिंता का विषय बन गई है। इससे सरसों की फसल समय से पहले पकने लगी है, फसल खेत से निकल कर मंडी में पहुंच गई है, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल उत्पाद खरीदने की समुचित व्यवस्था नहीं होने के कारण किसान को दबाव में आकर समर्थन मूल्य से कम कीमत पर फसल बेचने को मजबूर होना पड़ रहा है। यही हालत गेहूं के लिए हो सकती है। खासकर मध्य भारत में, जहां फसल सामान्यत: जल्दी पकती है। गेहूं उत्पादन के मुख्य क्षेत्र उत्तरी भारत में तापमान बढऩे से उत्पादन भी घटेगा, विशेषकर पछेती बुआई वाली फसल में, जो आलू निकालने के बाद बोई गई थी। उत्तरी भारत के तलहटी क्षेत्र में देरी से आने वाली फसलों की उत्पादकता में भी भारी कमी आएगी।

वातावरणीय बदलाव के प्रभाव में आने वाले समय में एक तरफ पानी की आपूर्ति घटेगी और दूसरी तरफ फसलों सहित अन्य कार्यों के लिए पानी की जरूरत बढ़ेगी। पंजाब में भूजल का निर्धारित सीमा से 172 फीसदी अधिक दोहन हो रहा है, जबकि रीचार्ज सिर्फ  85 फीसदी ही हो रहा है। स्थानीय स्तर पर पानी के अति दोहन की स्थिति और भी विकट है। उदाहरण के लिए, संगरूर ब्लॉक में 283 फीसदी और कपूरथला ब्‍लॉक में 234 फीसदी सहित पांच अन्य ब्लॉक में भी इसी तरह दोहन हो रहा है। दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान सहित अन्य राज्यों में भी इसी दर से भूजल स्तर में गिरावट आ रही है। भूजल स्तर में गिरावट के चलते इसके दोहन के लिए उपयोग में लाई जाने वाली मशीनरी में निवेश बढ़ रहा है। ऊर्जा की अधिक खपत और पानी की लागत बढऩे से कर्ज के हालात और मुनाफे में कमी के परिणाम स्वरूप किसान तनाव में जी रहा है और आत्महत्या की स्थितियां बढ़ रही हैं।

सूखा कुआंः पानी का दोहन कई राज्यों में हद से ज्यादा बढ़ गया है

इस कुचक्र से बचाव के लिए किसानों को कुछ विशेष प्रयास करने होंगे। अब जब सरसों और गेहू की फसल जल्दी पकने से खेत जल्दी खाली हो जाएंगे, तो किसानों को पानी की उपलब्‍धता होने पर गर्मी के मौसम की फसलें, जैसे मूंग, मोठ या चारा फसलें बोनी चाहिए। विदेशी मुद्रा भंडार में कमी और आयात को रोकने के लिए तिलहन और दलहन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में अच्छी-खासी बढ़ोतरी की गई है।

तापमान में अचानक वृद्धि का अपने आप उगने वाली घास, पेड़ों की नई कोपलों और जंगलों में वनस्पतियों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वन्य जीवों के जल स्रोत भी जल्दी सूख जाएंगे और वन क्षेत्रों में दावानल आदि की घटनाओं से उनके आश्रय स्थलों को नुकसान होने के साथ-साथ सामान्य वनों को भी हानि होगी। इस नुकसान की भरपाई के लिए मानसून के आने से पहले वर्षा जल संग्रहण और भूमि संरक्षण के सभी मौजूदा ढांचों को ठीक करने तथा पुनर्निर्मित करने के साथ-साथ ऐसे अन्य उपाय किए जाने की सक्‍त आवश्यकता है। दुधारू पशुओं को छाया में रखने और दोपहर के समय बाहर विचरण से रोकने की व्यवस्था करनी चाहिए।

वास्तव में उपलब्ध जल का सभी कामों के लिए समुचित उपयोग, प्रदूषित पानी को साफ करने और इसके पुर्नउपयोग के अलावा इस कुचक्र से निकलने का कोई और रास्ता नहीं है। बढ़ते तापमान पर नियंत्रण के लिए भारत में पवन तथा सौर ऊर्जा जैसे नवीनीकृत स्रोतों के इस्तेमाल सहित अन्य उपायों पर अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में कई वर्षों से बहस हो रही है। प्रदूषण करने वाले और पर्यावरण बिगाड़ने वाले को अधिक कीमत चुकाने की राजनीति भी चल रही है। इस सबके बीच वैकल्पिक ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना ही उपयुक्त नीति है, क्योंकि इन स्रोतों से ऊर्जा उत्पादन की लागत घट रही है।

(लेखक नेशनल रेनफेड एरिया अथॉरिटी के पूर्व सीईओ हैं।) 

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