दिल्ली के एक आईवीएफ सेंटर में लगे बड़े से एलसीडी टीवी पर किसी पुराने क्रिकेट मैच की रेकॉर्डिंग चल रही है। प्रतीक्षा कक्ष के सोफे पर अधलेटे से कुछ पुरुष, बैचेनी से इधर-उधर निगाहें फेंकती कुछ महिलाएं अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। पहली बार आने वाले दंपतियों को एक छोटा सा पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन देखना जरूरी है जिसमें आईवीएफ द्वारा पहले बच्चे केजन्म से लेकर आईवीएफ की प्रक्रिया तक सब कुछ समझाया जाता है। इससे पहले दंपतियों को क्लिनिक में अपना पंजीकरण कराना होता है और इसकी फीस हजार रुपये है। लगभग हर क्लिनिक का कमोबेश यही तरीका है। पहली बार के पंजीकरण जिसे कंसलटेंसी फीस भी कहा जा सकता है, 800 रुपये से लेकर 1000 रुपये तक है। मुख्य चिकित्सक से मिलने से पहले वहां मौजूद किसी जूनियर डॉक्टर से मिलना पड़ता है जो सूनी गोद को भरने के सपने दंपतियों के दिमाग में भरना शुरू करता है। समझाइश इस तरह होती है कि आने वाले ज्यादातर माता-पिता प्रक्रिया की पहली किस्त जमा करा ही देते हैं। दक्षिणी दिल्ली के ऐसे ही एक आईवीएफ सेंटर के 'कंसल्टिंग डॉक्टर’ ने अपना नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उनका काम आने वाले लोगों का दिमाग पढऩा है। ''ज्यादातर दिमागी रूप से तैयार हो कर ही किसी सेंटर पर जाते हैं। बस अच्छे परिणाम का एक 'धक्का’ उन्हें दूसरे पाले में धकेल देता है।’’ हर आईवीएफ सेंटर के सफलता के अपने दावे होते हैं। निजी सेंटरों केअलावा आजकल बड़े अस्पतालों में भी आईवीएफ विभाग खोले जा रहे हैं। आईवीएफ बिल संसद में विचाराधीन है और इसमें सरोगेसी पर ही ज्यादा जोर दिया गया है।
भारत के तमाम शहरों में अब गली-मोहल्ले में आईवीएफ सेंटर खुल रहे हैं। येन-केन-प्रकारेण बच्चा चाहने वालों की भीड़ इन पर टूट रही है। अब यह प्रक्रिया उद्योग में तब्दील हो गई है। भारत मेडिकल टूरिज्म में सालों से अच्छा प्रदर्शन कर रहा है। विदेशों से कई लोग इलाज के लिए भारत में आते हैं। पिछले कुछ सालों में इसमें आईवीएफ भी जुड़ गया है। हाल ही में सरकार द्वारा सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाने से पहले तक तो भारत को सरोगेसी की राजधानी भी कहा जाने लगा था। डॉ. ऋतु बजाज के मुताबिक 'आईवीएफ तकनीक ने भारत में बहुत तरक्की की है और यहां इस प्रक्रिया का खर्च भी बहुत कम है। महानगरों सहित कई शहरों में आईवीएफ सेंटर्स पर आकर्षक छूट पैकेज भी उपलब्ध होते हैं। जिसमें एक बार से लेकर पांच बार तक की प्रक्रिया पर लगने वाले खर्च में छूट दी जाती है। यह अलग बात है कि अब तक इसके लिए कोई ठोस नियम या कानून नहीं बनाए जा सके हैं। यही वजह है कि हर डॉक्टर अपने नियम खुद बना रहा है।’ आईवीएफ बिल संसद में विचाराधीन है और इसका खामियाजा हर दिन लाखों ऐसे लोग उठा रहे हैं जो इस प्रक्रिया को अपनाना चाहते हैं।
एक्ट न होने के नुकसान
डॉ. विवेक जोशी कहते हैं, ''किसी भी चिकित्सा पद्धति में गाइडलाइंस न होने से सही डेटा नहीं मिल पाता। इसके अलावा एक्ट होगा तो नियम के सख्ती से पालन के रास्ते खुलेंगे। अभी आईवीएफ कराने वाले लोगों को पता ही नहीं होता है कि उन्हें किस तरह के इलाज की जरूरत है। हालांकि ऐसा दूसरे तरह के इलाज में भी होता है। आईवीएफ, आईयूआई, इक्सी इतनी तरह की प्रक्रियाएं हैं कि मरीज समझ नहीं पाता, जबकि अभी भी गाइडलाइंस में स्पष्ट है कि डॉक्टर अपने यहां आने वाले दंपतियों को उनकी शारीरिक हालत को ठीक तरह से समझाए और फिर विकल्प दे।’’ फिलहाल ऐसा नहीं हो रहा है।
प्रक्रिया यूं समझें
आईयूआई : इंट्रा यूटिराइन इनसीमीनेशन। एक तरह से यह कृत्रिम गर्भाधान के सिद्धांत पर काम करता है। अंडा निषेचित होने के बाद कैनूला (कुप्पी) के जरिए पुरुष के वीर्य को साफ कर तरल बना कर स्त्री के गर्भाशय में डाल दिया जाता है। इससे शुक्राणु सीधे गर्भाशय में पहुंचते हैं और यदि किसी स्त्री की फैलोपियन ट्यूब्स बंद हैं या किसी कारणवश क्षतिग्रस्त हो गई हैं तो उनके लिए यह इलाज कारगर होता है। इसका अनुमानित खर्च 60-80 हजार रुपये आता है।
आईवीएफ : इन विट्रो फर्टिलाइजेशन। अंडा और शुक्राणु दोनों बाहर पैट्री डिश में निषेचित किए जाते हैं और ब्लास्टोसिस्ट (निषेचित अंडे की एक अवस्था) को बारीक चिमटी की सहायता से गर्भाशय में रख दिया जाता है। इसका अनुमानित खर्च डेढ़ लाख रुपये है।
इक्सी : इंट्रासाइटोप्लास्मिक स्पर्म इंजेक्शन। पुरुषों में शुक्राणु की कमी के लिए यह प्रक्रिया काम करती है। सिर्फ एक शुक्राणु से अंडे को निषेचित किया जा सकता है। शुक्राणु को सीधे कोशिका के केंद्र यानी बीच में डाला जाता है। अनुमानित खर्च आईवीएफ के आसपास ही है।
अब जानिए पैसे का गणित
संतान न होने के बहुत से कारण होते हैं। कई बार बिना किसी कारण के भी दंपती संतानविहीन रहते हैं। महिलाओं में नि:संतान होने के एंडियोमैट्रियासिस यानी मासिक के बाद भी गर्भाशय का पूरी तरह खाली न होना, फैलोपियन ट्यूब्स का बंद होना या क्षतिग्रस्त होना, अंडे की गुणवत्ता खराब होना जैसे कई कारण हो सकते हैं। जब कोई महिला चिकित्सक के पास जाती है तो वे जान लेते हैं कि आईवीएफ ही एक मात्र उपचार है, बावजूद इसके वे पहले आईयूआई का विकल्प रखते हैं। आईयूआई कम उम्र की महिलाओं पर ही काम कर सकता है और उनमें भी सफलता का प्रतिशत कम होता है। एक महिला को तीन साइकिल आईयूआई की सलाह दी जाती है। इसके बाद आईवीएफ किया जाता है और यदि यह भी सफल न हुआ तो दंपती को सलाह दी जाती है कि वे डोनर एग या स्पर्म (किसी दूसरे से अंडे या शुक्राणु लेना) का विकल्प आजमाएं। यानी एक दंपती पूरा एक साल का समय और लगभग चार से साढ़े चार लाख रुपये लगा कर भी सूनी गोद ही आईवीएफ सेंटर से बाहर आता है। जबकि होना यह चाहिए कि मरीज की केस स्टडी और रिपोर्ट को देखने के बाद डॉक्टर पहले ही बता दें कि वे इस विकल्प पर जाएं तो अच्छे परिणाम मिलेंगे।
इसमें मरीजों का खर्च इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि एक बार सफलता न मिलने पर दंपती तुरंत किसी दूसरे डॉक्टर के पास चला जाता है। यहां फिर से नए सिरे से सभी जांच और दूसरी तरह की प्रक्रिया होती है। जैसे, नया चिकित्सक कोई चांस नहीं लेना चाहता इसलिए सभी जांचें दोबारा होती हैं। पुरुषों के लिए शुक्राणु की गति, गुणवत्ता के अलावा पति-पत्नी दोनों की ही खून की जांच, जिसमें एड्स से लेकर थायराइड तक इतनी जांचे होती हैं कि व्यक्ति खून दे-दे कर पस्त हो जाता है और इसका खर्च कम से कम पांच से छह हजार बैठता है। इसके अलावा महिलाओं के लिए एक हेस्टेरेस्कोपी होती है जिसका खर्च पच्चीस हजार रुपये है। इससे गर्भाशय की अंदरूनी स्थिति का पता लगता है। बड़े अस्पतालों के आईवीएफ विभाग से लेकर छोटे केंद्रों तक ऐसी जांच उनके यहां से बताई गई पैथ लैब में ही करानी होती है। इलाज के दौरान कई बार सोनोग्राफी करानी पड़ती है और हजार रुपये परामर्श शुल्क के अलावा आठ सौ या नौ सौ रुपये का भुगतान इसके लिए अलग से करना पड़ता है।
आंकड़ों के आईने में आईवीएफ
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में करीब 1.90 करोड़ दंपती किसी न किसी प्रकार की नपुंसकता के शिकार हैं। पैंतीस साल से कम उम्र में सफलता का प्रतिशत 40-45 फीसदी होता है। आईवीएफ की एक साइकिल का अनुमानित खर्च 1.5 लाख रुपये है। कुछ सेंटर तीन साइकिल का ऑफर देते हैं जिसका अनुमानित खर्च 3.5 लाख रुपये आता है। डोनर एग यानी किसी और के अंडे से आईवीएफ कराना हो तो इसके लिए दंपती को 35 हजार से लेकर 70 हजार रुपये अतिरिक्त रूप से खर्च करने पड़ते हैं। भारत में आईवीएफ का कुल उद्योग लगभग 750 करोड़ रुपये का है। इसमें आईवीएफ, सरोगेसी, एआरटी बैंक शामिल है। इसमें से जब तक सरोगेसी पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया था तब तक इस पर सालाना 54 करोड़ रुपये खर्च होते थे। हाल ही में स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक कमेटी का गठन किया है जो इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट (आईएमसी एक्ट) के मौजूदा नियमों की जांच कर बदलावों की सिफारिश करेगी। नीति आयोग की भी एक कमेटी जल्द ही एमसीआई के काम-काज पर अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपने वाली है।
प्रतिबंध के बजाय नियम बने
इंडियन फर्टिलिटी सोसायटी के पूर्व अध्यक्ष और पूर्वी दिल्ली में आईवीएफ सेंटर के निदेशक डॉ. कुलदीप जैन का मानना है कि आईवीएफ पर हर कोण से सोचने और उस पर बातचीत कर वस्तुस्थिति जान कर नियम बनाएं जाएं इससे भारत में चल रहे मेडिकल टूरिज्म में और इजाफा ही होगा।
आईवीएफ को लेकर क्या नियम हैं?
इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) की गाइडलाइंस हैं। अभी तक कोई एक्ट नहीं बना है।
गाइडलाइंस में किस तरह की बातें हैं?
बहुत से नियम हैं। अभी आईवीएफ सेंटर्स सेल्फ रेगुलेशन से चलते हैं। एक्ट बन जाएगा तो फिर एक नियम बनेगा और सभी को उसी पर चलना होगा। लेकिन उसकी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि एक्ट बनने के लिए जो प्रस्ताव हैं उनमें बहुत सी बातें अव्यावहारिक हैं। जो भी रेगुलेशन के लिए ठीक है वह किया जाना चाहिए। पर अभी पूरा ध्यान सरोगेसी पर है।
सरोगेसी पर जो नियम है वह क्या कहता है?
हाल ही में सरोगेसी पर प्रतिबंध लगा है। अब सिर्फ अलट्रस्टिक यानी परोपकार से इसे जोड़ दिया गया है। इसे यूं समझिए कि यदि कोई महिला गर्भधारण करने में सक्षम नहीं है तो उसके परिवार की किसी महिला से ही सरोगेसी कराई जा सकती है। लेकिन अब एकल परिवार बढ़ रहे हैं। सभी की अपनी व्यस्तताएं हैं। ऐसे में परिवार में ही सरोगेट खोजना आसान नहीं होगा।इसके अलावा एक्ट में क्या कमी है?
इन्हें कमी नहीं कहा जा सकता, अव्यावहारिकता कहा जा सकता है। आईवीएफ प्रक्रिया में अल्ट्रासाउंड, एआरटी बैंक (स्पर्म-एग बैंक) शामिल होते हैं। एआरटी को आईवीएफ से अलग कर यह बैंक अलग से बनाने की बात है। इससे एग या स्पर्म किस व्यक्ति के लिए जा रहे हैं, वह इसके लिए पात्र है या नहीं, यह बातें चिकित्सक की पहुंच से दूर हो जाएगी। क्योंकि यह बैंक कोई भी ऐसा व्यक्ति खोल सकता है जिसके पास पर्याप्त मशीनें हों और इस प्रक्रिया का तकनीकी ज्ञान हो। संभव है तब कमीशन पर काम कराने वाले लोगों का बोलबाला हो जाए।
आईवीएफ प्रक्रिया में खर्च होने वाली रकम एक सी हो ऐसा कैसे संभव है?
यह तो संभव नहीं है। प्रक्रिया भले ही एक सी हो लेकिन कई बार आईवीएफ कराने वाली महिलाओं की स्थिति में अंतर होता है। किसी को हो सकता है ज्यादा दवा या इंजेक्शन की जरूरत हो। ऐसे में सभी आईवीएफ सेंटर एक जैसा पैसा नहीं ले सकते हैं। वैसे भी भारत में एक साइकिल के अनुमानित खर्च में उन्नीस-बीस का ही फर्क आता है।