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रैंकिंग में सुधार, कितने दिन

उपलब्धि से ज्यादा चुनौती है फुटबॉल में मिली कामयाबी
देहरादून के अमर बहादुर एक पत्र‌िका के आवरण पृष्ठ पर

भारतीय फुटबॉल ने हाल ही में फीफा रैंकिंग में 101वां स्थान हासिल कर सभी को चौंका दिया। दो दशक तक विश्व फुटबॉल में लगातार पिछडऩे के बाद भारत ने यह मुकाम हासिल किया है। हालांकि यह छलांग फुटबॉल प्रेमियों और विशेषज्ञों के गले नहीं उतर रही है। तकनीकी रूप से देखा जाए तो एक साल में भारत ने 13 में से 11 मैच जीतकर अपनी रैंकिंग में यह जबरदस्त सुधार किया। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत आज भी कनाडा, जॉर्डन, ओमान और जॉर्जिया जैसे देशों, जो फीफा रैंकिंग में अभी भारत से पीछे हैं को हरा सकता है?

अमूमन यह देखा गया है कि भारत को नेपाल और मॉरीशस के साथ भी जीत के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। रैंकिंग में सुधार के बारे में भारतीय टीम के कोच स्टीफन कांस्टेनटाइन का भी मानना है कि भारतीय फुटबॉल ने अब तक कुछ हासिल नहीं किया है। वह फीफा रैंकिंग में 101वें स्थान पर रहकर एशियाई कप 2019 के लिए क्वालिफाई करना पसंद करेंगे, इसके बजाय कि रैंकिंग 95 हो जाए और क्वालीफाई भी न कर पाएं। यही बात भारतीय कप्तान सुनील क्षेत्री ने भी कही। क्षेत्री का कहना है कि उन्हें भारत की इस उपलब्धि पर गर्व है लेकिन संतोष नहीं। दरअसल भारतीय फुटबॉल को भी बीसीसीआई की तरह जस्टिस लोढ़ा समिति जैसे किसी डंडे की जरूरत है। हालांकि खेल मंत्रालय स्पोर्ट्स बिल के जरिए खेल संघों पर नकेल कसने का प्रयास कर रहा है। इस कानून के लागू होने के बाद खेल संघों पर काबिज कई मठाधीशों को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ सकती है। लेकिन जरूरत इससे कहीं अधिक प्रयासों की है। खासतौर पर फुटबॉल को लेकर व्यापक बदलाव की दरकार है। वरना भारत में फुटबॉल कभी उन ऊंचाइयों को नहीं छू पाएगा, जहां हम इसे देखना चाहते हैं। भारत की श्रेष्ठ फीफा रैंकिंग 94 है जो उसने फरवरी 1996 में हासिल की थी। बाकी सब तो छोडि़ए पिछले दो दशक में हम खुद को ही पीछे नहीं छोड़ पाए, जबकि आज भी फुटबॉल भारत में क्रिकेट के बाद सबसे लोकप्रिय खेल है।

इस खेल को देश में प्रतिष्ठा दिलाने का सबसे अधिक दारोमदार अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ पर है। महासंघ के संविधान के अनुसार, जिन राज्यों के 70 फीसदी जिलों में संबद्ध एसोसिएशन हैं, उस राज्य को महासंघ की सदस्यता मिल सकती है। जिज्ञासावश जुलाई, 2003 में मैंने सूचना के अधिकार के तहत महासंघ से संबद्ध स्टेट एसोसिएशनों की निगरानी की प्रक्रिया के बारे में जानकारी मांगी थी। ताज्जुब होगा कि दो साल के लंबे संघर्ष और केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश के बाद महासंघ ने माना, 'अभी स्टेट एसोसिएशन की मॉनिटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं है। जल्द ही एक कार्यकारी समिति की अनुमति के बाद ऐसी व्यवस्था लागू कराई जाएगी।’ सोचने वाली बात यह है कि जब फुटबॉल महासंघ को पता ही नहीं कि उनकी स्टेट एसोसिएशन्स क्या काम कर रही हैं, फिर सुधार कैसे होगा? फुटबॉल के मामले में हमारा अतीत वर्तमान से बेहतर रहा है। इसलिए मुझे लगता है कि हमें पुराने फामूर्लों को फिर से आजमाना चाहिए। लेकिन फुटबॉल की राष्ट्रीय प्रतियोगिता संतोष ट्रॉफी को आईलीग ने निपटा दिया। अब इंडियन सुपर लीग (आईएसएल) के बाद आईलीग अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। वर्चस्व के इस समानांतर संघर्ष से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।

कोई माने या न माने संतोष ट्रॉफी का जमीनी स्तर के साथ जो जुड़ाव था, वह न आईलीग का है और न आईएसएल उन संबंधों को बना पाई। ऐसे में जरूरत संतोष ट्रॉफी को दम लगाकर फिर से जिंदा करने की है। इसके साथ सेना की टीमों की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी पर भी जोर देना चाहिए। अगर सेना की विभिन्न कमांड को संतोष ट्रॉफी में भाग लेने का मौका दिया जाए तो इससे राष्ट्रीय प्रतियोगिता को एक नया आयाम मिलेगा। मेरा शहर देहरादून 60 और 70 के दशक में भारतीय फुटबॉल का चर्चित नाम था। देहरादून ने भारतीय फुटबॉल को एक दर्जन से अधिक अंतरराष्ट्रीय फुटबॉलर दिए, जिनमें से सात फौज से थे। इनमें श्याम थापा, अमर बहादुर, रंजीत थापा, भूपेंद्र रावत आदि दिग्गज शामिल हैं। अगर देहरादून के सात फौजी भारतीय फुटबॉल टीम में जगह बना सकते हैं तो अन्य स्थानों से क्यों नहीं? इस टैलेंट पूल को इकट्ठा करने की जरूरत है। देहरादून के लोग याद करते हैं कि कैसे फुटबॉल प्रतिभाएं तलाशने लोग वहां आते थे। आज इसका उलटा हो रहा है। प्रतिभाओं को मैनेजरों, फेडरेशनों, प्रमोटरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। पुराने समय के फुटबॉल सिस्टम का जमीनी आत्मीय संबंध था। आज इसकी कमी बेहद खल रही है। बहरहाल, 101वीं रैंक पाने के लिए भारत को बधाई! लेकिन फुटबॉल के लिए जमीनी स्तर पर गंभीरतापूर्वक काम किए बगैर यह रैंकिंग भारत बहुत देर तक नहीं संभाल पाएगा।

(लेखक देहरादून में पत्रकार और देहरादून फुटबॉल डॉट कॉम के सह-संस्थापक हैं।)

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