राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के छुटपुट विवादों को छोड़ दें तो यह अभी भी फिल्म और उससे जुड़े लोगों के लिए बहुत प्रतिष्ठित पुरस्कार है। जब भी फिल्मों की बात होती है तो हिंदी के अलावा तमाम दूसरी भाषाओं में बन रही फिल्में सराही तो जाती हैं लेकिन 'हल्ला’ हिंदी फिल्मों का ही होता है। जाहिर सी बात है ऐसे में कई बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से जुड़े निर्णायकों पर आरोप भी लगते हैं कि हिंदी के मुकाबले दूसरी भाषाओं से दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। लेकिन फिल्म पर लेखन की बात की जाए तो मामला इसके ठीक उलट होता है। फिल्म समीक्षा हो या फिल्म पर लेख या पुस्तकों की बात हो, इस क्षेत्र में अंग्रेजी का ही दबदबा रहा है। यह बात इसी से समझी जा सकती है कि सन 1953 से शुरू हुए राष्ट्रीय पुरस्कारों में फिल्म समीक्षा लेखन के लिए अब तक हिंदी के लिए चार लेखकों क्रमश: 1987 में ब्रजेश्वर मदान, 1988 में मनमोहन चड्ढा, 2000 में सुरेश शर्मा और 2001 में विनोद अनुपम को यह पुरस्कार मिला है। फिल्म लेखन में किताब के लिए अब तक सात लेखक सम्मानित हुए हैं और पिछले 12 सालों में एक भी हिंदी लेखक इस पुरस्कार को नहीं ले पाया है। जबकि, 2005 में शरद दत्त की किताब कुंदन के बाद फिल्म लेखन का राष्ट्रीय पुरस्कार किसी हिंदी लेखक को नहीं मिला।
12 साल बाद राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का यह सूखा यतीन्द्र मिश्र की पुस्तक लता सुर गाथा ने खत्म किया है। वाणी से प्रकाशित यह किताब लता के जीवन और संगीत यात्रा का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक सन 2016 में आई थी और इसे लिखने में लेखक को करीब सात साल का समय लगा। वह टुकड़ों-टुकड़ों में लता जी से साक्षात्कार रेकॉर्ड करते गए और इस तरह पाठकों को उनकी संगीत यात्रा, संगीत के प्रति उनका प्रेम और उनके जीवन-संघर्ष के बारे में इतने विस्तार से जानने का मौका मिला। पुस्तक लिखने की प्रेरणा पर यतीन्द्र मिश्र ने आउटलुक से बातचीत में बताया, 'लता जी से मुलाकात और उनसे व्यक्तिगत संबंधों के संस्मरण तो बहुत हैं, बचपन में दादी के मुंह से सुने गाने और फिर उनसे साक्षात मिलने तक। मगर इस तारतम्यता को पुस्तक में बैठाना चुनौती थी।’ वह कहते हैं, 'लता जी पर ही इस तरह की किताब लिखने की मन में क्यों सूझी? इस प्रश्न का शिल्पगत उत्तर मेरे पास नहीं है पर यह किताब पाठकों को पसंद आई तो लगता है कि मेहनत सफल हुई। उन पर किताब लिखने का एक कारण तो यह हो सकता है कि मैं उनसे अतिशय प्रेम करता हूं। मैं उनके संगीत का रसिक ही नहीं, अनुयायी या भक्त हूं।’ इस पुस्तक को पढ़ कर लगता है कि लता जी वाकई इस समय में, एकमात्र जीवित महान सांगीतिक उपस्थिति हैं। यतीन्द्र मिश्र कहते हैं, 'कई सालों के लंबे साक्षात्कार (सन 2010-2015), जो छह वर्षों की लंबी अवधि तक फैला है, में उनके सांगीतिक जीवन को ही शामिल नहीं किया गया, बल्कि उसमें आजादी, विभाजन, गांधी जी, साहित्य और संस्कृति के प्रश्न, धर्म और अध्यात्म में उनकी रुचि, रहन-सहन, राजनीतिक शक्चिसयतें, मित्र और परिवार समेत कलाओं की दुनिया के आत्मीय परिसर के लोगों पर उनके विचार बार-बार सामने आते हैं।’
यह किताब दरअसल लता जी की लोकप्रिय छवि से अलग उनके भीतर मौजूद संगीत के गंभीर विचारक रूप को उजागर करने के उद्देश्य से लिखी गई है, जिसमें इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि उनसे किए गए प्रश्नों को इस संदर्भ के तहत देखा जाए कि वह सवाल सिर्फ यतीन्द्र मिश्र के सवाल न होकर उनके करोड़ों प्रशंसकों की भावनाओं का इजहार बन सकें। मिश्र कहते हैं, 'उनके साथ बातचीत में सबसे सुंदर पक्ष यह उभरता है कि एक विषय या किसी व्यक्ति पर सवाल करते ही वे उसी संदर्भ के बहाने तमाम अन्य विषयों पर एक साथ बातचीत की संभावना खोल देती थीं। ऐसे में वह बातचीत कई स्तरों में उतरकर अपने विमर्श के लिए बड़े वैचारिक परिसर में चली जाती थी। यह चुनौतीपूर्ण था, मगर सुखद भी। साथ ही बहुतेरे संदर्भ प्रसंग लिए हुए फिल्मी कहानियों के दिलचस्प संस्मरणों से परिपूर्ण। यह सब कुछ इस तरह से पिछले कई वर्षों में घटित हुआ कि बहुत बार फिल्मी दुनिया की चकाचौंध भरी कहानियों से खुद को निरपेक्ष रखते हुए अपने लेखक मन को यह याद दिलाना पड़ता था कि वह यथार्थ की खुरदुरी जमीन का एक लेखक है न कि सिनेमाई गल्प के सम्मोहन से गढ़ी मायानगरी का नागरिक।’
आज लता मंगेशकर जी के जीवन और उनके सांगीतिक योगदान को अधिकांश लोगों द्वारा जानने समझने की चेष्टा और उत्कंठा देखते हुए यह बात आसानी से समझ में आती है कि उनके फिल्मी गीतों ने जो पिछले लगभग सत्तर वर्षों में सलोना प्रति-संसार रचा है, उसमें आवाजाही के लिए आम जीवन कितनी दिलचस्पी रखता है। यही सबसे बड़ा पुरस्कार है।