बीते मार्च के तीसरे सप्ताह में जब उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सूबे और देवभूमि उत्तराखंड की बागडोर पौड़ी के मूल निवासी दो लोगों के हाथ में जाने की बात तय हुई तो उत्तराखंड वासियों का खुश होना लाजिमी था। त्रिवेंद्र सिंह रावत को उत्तराखंड जबकि योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश जैसे अहम सूबे की कमान मिली। अभी दोनों को ही सत्ता संभाले हुए महीना भर ही बीताहै लेकिन उत्तराखंड में 'हमारा मुख्यमंत्री योगी जैसा क्यों नहीं’ जैसे स्वर सुनाई देने लगे हैं। इसका सीधा-सा कारण योगी आदित्यनाथ की आक्रामक शैली और तुरत-फुरत फैसले लेना है। हाल के चुनाव में पांच राज्यों पंजाब, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश को नए मुख्यमंत्री मिले हैं। उप्र के मुख्यमंत्री ने अखबारों, टेलीविजन, सोशल मीडिया हर मंच पर बाकी चारों को पीछे छोड़ दिया है। पौड़ी के अजय सिंह बिष्ट योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री होने से पहले भी खबरों की दुनिया के सबसे पसंदीदा थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने वही तेवर बनाए रखे और अवैध बूचड़खानों पर कार्यवाही, एंटी रोमियो दल का गठन और तीन तलाक मुद्दे पर मुखर राय से जैसे हर बाजी अपने पक्ष कर ली है। ऐसे में जाहिर सी बात है उत्तराखंड की जनता उनके तेवर देखने के बजाय सिर्फ एक ही क्षेत्र का होने से उनकी तुलना कर रही है। उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष किशोर उपाध्याय ने आउटलुक से बातचीत में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार पर तीखी टिप्पणी की है। उनका कहना है, 'त्रिवेंद्र रावत की सरकार को एक माह बीत चुका है लेकिन राज्य में न गवर्नेंस दिख रहा है न ही गवर्नमेंट कहीं दिख रही है। सरकार खनन माफिया और शराब कारोबारियों के दबाव में काम कर रही है। कानून व्यवस्था गड़बड़ाती जा रही है। इसका सबूत हलद्वानी और हरिद्वार में हुईं बलात्कार की घटनाएं हैं। इसके अलावा जिस तरह से रामनगर में खनन माफिया ने सरकारी कर्मचारी को ट्रैक्टर के नीचे रौंदा वह अपराधियों के बेखौफ होने का सबूत है। हालांकि किसी भी सरकार के कामकाज के आकलन के लिए एक माह का समय कम होता है लेकिन सरकार कुछ अच्छे फैसले तो ले ही सकती है। हमने सरकार को छह माह का समय दिया है। लेकिन जिस तरह के हालात बन रहे हैं वह अच्छी शुरुआत नहीं मानी जा सकती।’
ऐसा लग रहा है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के मुकाबले उनके राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत अभी सत्ता साधने के शुरुआती गुर ही सीख रहे हैं। हालांकि रावत ने शुरुआत में भरपूर तेवर दिखाए थे। सरकार गठन के पहले सप्ताह में ही उन्होंने लोकायुक्त बिल का संशोधित रूप सदन में पेश किया था और मुख्यमंत्री को भी लोकायुक्त जांच के दायरे में रखा गया था। लेकिन इस बिल को पास करने के बजाय अचानक इसे प्रवर समिति को सौंप दिया गया। कर्मचारियों के तबादले का बिल भी सदन में रख इसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित किया गया गया। इस विधेयक को भी प्रवर समिति को भेज दिया। जबकि प्रचंड बहुमत के चलते दोनों ही विधेयकों को आसानी से पास किया जा सकता था। नेता प्रतिपक्ष इंदिरा हृदयेश कहती हैं, 'यदि सरकार भ्रष्टाचार रोकने के लिए ईमानदार है तो उसे लोकायुक्त बिल पास कराना चाहिए। लेकिन सरकार ने अपने कदम पीछे खींचे उससे आम लोग नाउम्मीद हुए।’
यही नहीं कई जगहों पर त्रिवेंद्र सरकार की प्रशासनिक कमजोरी सामने आ रही है। सरकार ने उधमसिंह नगर जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग की जमीन के श्रेणी परिवर्तन में हुए घपले में छह पीसीएस अफसरों को निलंबित करते हुए मामला सीबीआई जांच के लिए भेजा है। इसके लिए त्रिवेंद्र की तारीफ जरूर हो रही है।
नई सरकार को खनन पर लगी हाईकोर्ट की रोक और राष्ट्रीय राजमार्ग से शराब की दुकानें हटाने के लिए दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पैदा स्थितियों से भी जूझना पड़ा। राष्ट्रीय राजमार्ग से शराब की दुकानें हटाने का आदेश काफी पहले आ चुका था लेकिन सरकार 31 मार्च तक हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। एक अप्रैल से शराब के ठेकेदारों ने राष्ट्रीय राजमार्ग से पांच सौ मीटर दूर गली-मोहल्लों में शराब के ठेके खोलने शुरू किए और शराब विरोधी आंदोलन ने पूरे राज्य में जोर पकड़ लिया। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन, तोडफ़ोड़ हुई। दस दिन अफरा-तफरी के हालात बने रहे लेकिन शराब से कमाई का रास्ता तलाश रही सरकार दुकानें बंद करने का नैतिक साहस नहीं दिखा पाई। आखिरकार सरकार ने दस दिन बाद राष्ट्रीय राजमार्ग की परिभाषा बदल कर शराब की दुकानों को पुरानी जगह पर बने रहने का रास्ता दे दिया। शराब की दुकानों को यह तोहफा राज्य की पहली कैबिनेट में दिया गया। इस कैबिनेट एजेंडे में शराब के अलावा और कोई मुद्दा शामिल नहीं था। इससे जनता के बीच संदेश गया कि त्रिवेंद्र सरकार भी पुरानी हरीश रावत सरकार की तरह शराब कारोबारियों की हमदर्द है। पर्यावरणविद डॉ. अनिल जोशी का कहना है, 'मुख्यमंत्री को राजस्व कमाने के दूसरे विकल्पों पर सोचना चाहिए। शराब का पूरे प्रदेश में विरोध है। महिलाएं आंदोलन कर रही हैं।’
उत्तराखंड की जनता सरकार द्वारा लिए गए फैसलों पर योगी की छाप चाहती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने जब अवैध बूचड़खानों को बंद करने का फैसला लिया तो उत्तराखंड में कई जगह अधिकारी स्वप्रेरणा से अवैध बूचड़खाने बंद कराने निकल पड़े। देहरादून में तो बाकायदा टीम बनाकर पुलिस प्रशासन ने सुबह चार बजे कई जगह छापेमारी की। योगी की निरंतरता न सिर्फ बनी हुई है बल्कि अपनी कार्यशैली से वह भारतीय जनता पार्टी काडर के लिए रोल मॉडल बनते जा रहे हैं। यही वजह है कि स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता और भाजपा समर्थक त्रिवेंद्र सिंह रावत की कार्यशैली को योगी से तौल रहे हैं। दोनों के एक ही जिले से और एक ही पार्टी के होने से लोगों की अपेक्षाएं बड़ी हो जाती हैं। योगी जिस तेजी से फैसले लेते और उन्हें लागू करते हैं उस पैमाने पर रावत कहीं नहीं ठहरते। बहुमत के बाद स्वाभाविक तौर पर यह अपेक्षा पैदा होती है कि सरकार राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को किनारे रखकर लोगों की अपेक्षाओं के अनुरूप काम शुरू करें। फिलहाल त्रिवेंद्र सिंह रावत माहौल अपने पक्ष में मोड़ने में असफल नजर आ रहे हैं।
मुकदमे होंगे वापस
रावत सरकार विधायकों के मुकदमे वापस लेने की तैयारी कर रही है। राज्य के 70 में से 22 विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बीजेपी के 17, कांग्रेस के 4 और 1 विधायक निर्दलीय है। सरकार में शामिल दस में से चार मंत्रियों पर भी मुकदमे चल रहे हैं। इनमें से एक मंत्री पर गंभीर आपराधिक मामला दर्ज है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और विधायक मुन्ना सिंह चौहान का कहना है, 'सार्वजनिक जीवन में गलत मुकदमों का सामना करना पड़ता है और इसलिए इनकी समीक्षा की जानी चाहिए।’ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय का कहना है, 'ऐसा कोई भी फैसला प्रदेश की जनता का अपमान होगा क्योंकि जनता ने ऐसे कामों के लिए प्रचंड बहुमत नहीं दिया है।’