बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला उन 13 नेताओं के राजनीतिक जीवन और संघ परिवार की एक बड़ी मुहिम पर टिप्पणी के साथ ही मौजूदा राजनीति को एक बड़ा मोड़ देने की संभावनाओं से भरा है। अगर इसके साथ मुख्य न्यायाधीश द्वारा कुछ दिनों पहले इस विवाद को सुलझाने की पहल वाली बात को सामने रखें तो साफ लगेगा कि अदालत अपनी भूमिका को लेकर कितनी गंभीर है। अदालत पहले कम गंभीर रही हो यह कहना उचित नहीं है, पर वह तीन दशक से ज्यादा समय से देश की राजनीति और समाज को आंदोलित रखने वाले एक विवाद को सुलझाने की दिशा में इतने साफ ढंग से कभी जुटी हो, यह नहीं लगता। लेकिन जब सभी संबद्ध पक्ष इस विवाद को बढ़ाने और राजनीतिक गोटियां सेंकने में जुटे रहे हों और स्थितियों के संभलने पर अदालत का राग अलापने लगे हों तब यह सक्रियता स्वागतयोग्य है और उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालत ने सुनवाई के तरीके से लेकर निर्णय की जो समय सीमा बांधी है उसके अधीन फैसला आ जाएगा। इस अकेले मामले से बाबरी मस्जिद/राम मंदिर विवाद सुलझ जाएगा यह उम्मीद करना तो कुछ ज्यादा होगा पर मस्जिद गिराने का दोष किसी पर हो ही नहीं, यह मानना न्याय और तर्क को उलटना है। आखिर न तो मस्जिद अपने आप गिरी थी न हजारों लोग यूं ही वहां जमा हो गए थे।
अदालत का फैसला भाजपा के तत्कालीन प्रमुख लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती समेत 13 लोगों को ही साजिशकर्ता मानकर मुकदमा चलाने का है, पर बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद सुलझाना हो तो विध्वंस के इस मामले में न्याय जरूरी ही नहीं, पहली शर्त है, और अदालत ने इतना साफ फैसला देकर न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बढ़ाई है और साथ ही एक साफ जमीन के साथ मामले को निपटाने का आधार बनाना भी शुरू किया है। यह अलग बात है कि अदालत ने एक आरोपी कल्याण सिंह को संवैधानिक पद पर होने का लाभ देते हुए फिलहाल इस दायरे से बाहर रखा है। पर इतने साफ फैसले के बाद कल्याण सिंह या कोई भी किसी संवैधानिक पद की आड़ लेकर अपने को बचाए रखे यह उचित नहीं होगा। इससे पद की गरिमा गिरेगी ही। पर केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने अदालती फैसले पर जो कुछ कहा है वह जरूर ज्यादा चिंता की बात है। यह सही है कि इस प्रकरण ने ही उमा भारती और कई सारे लोगों को नेता बनाया पर उन जैसे लोगों को यह भी सोचना होगा कि संविधान की शपथ लेने के बाद उन्हें कैसा आचरण करना है। उनके या उन जैसे लोगों के लिए यह मस्जिद गिराना पुरुषार्थ की चीज होगी पर हजारों बार अदालती फैसले का सम्मान करने का दावा और संविधान रक्षा की शपथ का भी कोई मतलब होना चाहिए।
इस मामले में उमा भारती या किसी अन्य को भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ही वह मंत्र याद रखना चाहिए कि एक किताब-संविधान ही सर्वोच्च है और उसका पालन करने की जिम्मेवारी प्रधान रूप से हमारी है। पर कई लोग इस मामले में शक की सुई स्वयं प्रधानमंत्री की तरफ भी मोड़ना चाहेंगे क्योंकि जिन नेताओं के खिलाफ मुकदमा चलाने, जज का तबादला न होने, सीबीआई को रोज एक गवाह हाजिर करने का निर्देश देने और दो साल में मामले को नतीजे तक पहुंचाने का साफ फैसला सुनाया गया है उनमें ज्यादातर वे ही हैं जिन्हें नरेन्द्र मोदी ने हशिए पर कर रखा है। और जिन्हें इसके चलते एक सहानुभूति भी मिलती है कि राम मंदिर आंदोलन चलाकर उन्होंने भाजपा की जीत की आधारशिला रखी और अवसर आने पर उन्हें 'मार्गदर्शक’ बनाकर खूंटी से टांग दिया गया। यह सही है कि एक बार मस्जिद गिर जाने के बाद भाजपा ने राम मंदिर निर्माण के सवाल को भी हाशिए पर कर दिया और उसके नेता इसका जिक्र भी मुश्किल से करते हैं, पर यह भी सही है कि बिना मंदिर-मस्जिद विवाद के भी आज की भाजपा का प्रभावी नेतृत्व पहले से ज्यादा हिन्दूवादी लाइन लेने लगा है। पर मोदी जी अपने कोर समर्थकों को नाराज किए बिना ही सही, संविधान की सर्वोच्चता की बात से कभी डिगे नहीं हैं।
दूसरी ओर यह भी हुआ था कि मामला चलते समय लालकृष्ण आडवाणी गृह मंत्री रहे और इसे समाप्त कर दिया गया था। तब भी यह शोर मचा था। लेकिन 1992 के मामले पर अगर 2017 में सुप्रीम कोर्ट को दखल देकर चीजों को लाइन पर लाना पड़े तो हम अपनी अदालती व्यवस्था और सरकार चलाने वालों की नैतिकता और कार्यक्षमता पर सवाल उठाएंगे ही। इस दौरान सात-आठ आरोपी स्वर्ग सिधार गए। और यह तब है जबकि इस केस की गंभीरता बताने की जरूरत नहीं है। सारे देश के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ उत्तर प्रदेश में ही कई दर्जन शहर सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में आए। मुंबई समेत अनेक दूसरी जगहों पर दंगे हुए। इसलिए बाबरी मस्जिद/राम मंदिर विवाद निपटाना हो या फिर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का सवाल, उस दिशा में तभी विवेक और तर्क के साथ बात आगे बढ़ सकती है जब मस्जिद विध्वंस का मामला सुलझे और उसमें न्याय हो। अगर मुख्य न्यायाधीश और यह सरकार इस सवाल पर गंभीर है तो यह फैसला एक अवसर बन सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
क्या हैं केस नंबर 197 और 198
वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के आरोप में दो मामले दर्ज हुए थे। पहला मामला कारसेवकों के खिलाफ केस नंबर 197 के तहत दर्ज हुआ था। दूसरा मामला 198 के तहत अयोध्या में मंच पर मौजूद भाजपा, विहिप और बजरंग दल के लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार समेत 21 नेताओं के खिलाफ था। केस नंबर 197 की सुनवाई के लिए लखनऊ में दो विशेष अदालतों का गठन हुआ जबकि पहले लखनऊ और फिर रायबरेली की अदालत में 198 की सुनवाई हुई। केस नंबर 198 के तहत रायबरेली में चल रहे मामले में नेताओं पर धारा 120बी नहीं लगाई गई थी लेकिन बाद में सीबीआई ने इसमें आपराधिक साजिश का मामला पाया और इसे जोड़ने की इजाजत कोर्ट से मांगी जो दे दी गई। वर्ष 2001 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पाया कि लखनऊ की कोर्ट को केस नंबर 198 पर सुनवाई का अधिकार नहीं था क्योंकि इसे लखनऊ की स्पेशल कोर्ट में ट्रांसफर करने से पहले चीफ जस्टिस से इसकी इजाजत नहीं ली गई थी इसलिए इस मामले को रायबरेली स्थानांतरित कर दिया गया। इसके बाद रायबरेली अदालत ने इस मामले में आडवाणी समेत अन्य नेताओं पर से तकनीकी वजहों से साजिश का आरोप हटा दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 20 मई 2010 के आदेश में ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही ठहराया। सीबीआई ने इस फैसले को 2011 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। इसी याचिका पर गौर करते हुए न्यायमूर्ति पी.सी. घोष और न्यायमूर्ति रोहिंग्टन नरीमन ने कहा कि महज तकनीकी कारणों से किसी आरोपी को नहीं बचाया जा सकता इसलिए इन नेताओं पर साजिश का मामला चलेगा। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि जरूरत पडऩे पर केस नंबर 197 और 198 दोनों को लखनऊ की अदालत में एक साथ चलाया जा सकता है।
तारीखों में बाबरी विवाद
1949: बाबरी मस्जिद में राम की मूर्ति रख दी गई। इस पर विवाद हुआ तो सरकार ने विवादित स्थल पर ताला लगा दिया।
1984: विश्व हिंदू परिषद ने एक समिति का गठन किया और उस समिति को राम लला का मंदिर बनाने का जिम्मा सौंपा गया।
1986: जिला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं को प्रार्थना करने के लिए विवादित स्थल के दरवाजे का ताला खोलने का आदेश दिया। मुस्लिम समुदाय ने बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया।
1989: विश्व हिंदू परिषद ने विवादित स्थल के नजदीक राम मंदिर की नींव रख दी।
1992: कारसेवकों ने छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद ढहा दी। इसके बाद देश भर में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे भडक़ उठे जिसमें 2000 से ज्यादा लोग मारे गए।
1992: बाबरी मस्जिद ढहाए जाने की जिम्मेदार स्थितियों की जांच के लिए एम.एस. लिब्रहान आयोग का गठन हुआ।
12 फरवरी 2001: हाईकोर्ट ने 8 अक्टूबर 1993 की दोषपूर्ण अधिसूचना के आधार पर आडवाणी समेत आठ आरोपियों के खिलाफ अभियोग को वापस लिया।
मई 2003: सीबीआई ने 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में लालकृष्ण आडवाणी सहित आठ लोगों के खिलाफ पूरक आरोपपत्र दाखिल किए।
6 जुलाई 2005: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के दौरान भड़काऊ भाषण देने के मामले में लालकृष्ण आडवाणी को भी आरोपी बनाने का आदेश दिया। इससे पहले उन्हें बरी कर दिया गया था।
30 जून 2009: लिब्रहान आयोग ने 17 वर्षों बाद अपनी रिपोर्ट तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी।
सितंबर 2010: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि विवादित स्थल को हिंदू और मुसलमानों में बांट दिया जाए।
मई 2011: सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को निलंबित कर दिया।
मार्च 2017: रामजन्म भूमि और बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दोनों पक्षों को यह विवाद आपस में सुलझाना चाहिए।
19 अप्रैल 2017 : सर्वोच्च न्यायालय ने लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी समेत 13 नेताओं पर साजिश की धारा में मुकदमा चलाने का निर्णय दिया।