चंपारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर मुजफ्फरपुर स्टेशन पर जमा करीब 25 हजार लोगों की भीड़ का उत्साह देखते ही बनता था। 10 अप्रैल 2017 को लोगों का उत्साह देखकर ऐसा लगा मानो समय चक्र 1917 में लौट गया है। महात्मा गांधी की चंपारण यात्रा की शताब्दी को यादगार बनाने के लिए उस समय की घटनाओं का नाट्य रूपांतरण किया गया था। 1917 में गांधीको मुजफ्फरपुर स्टेशन से आचार्य जे.बी. कृपलानी के नेतृत्व में युवाओं के विशाल हुजूम ने खुद गाड़ी खींचकर कृपलानी के आवास तक पहुंचाया था। उस दौरान गांधी का कई अजीब स्थितियों से सामना हुआ था और भावी इतिहास को बदल देने वाली कई हस्तियां भी उन्हें मिली थीं। स्थानीय किसान नेता राजकुमार शुक्ल की जिद के चलते अनमने भाव से किसानों की दुर्दशा और नीलहे गोरों का जुल्म देखने पहुंचे गांधी को यहां उस जनता-जनार्दन के दर्शन हुए, जिसने उनके महात्मा बनने की राह को सुगम कर दिया।
इस पूरे घटनाक्रम को फिर से याद करने के लिए 2017 में ठीक उसी दिन उसी समय जब गांधी के वेश में लोग मुजफ्फरपुर स्टेशन पर उतरे तो करीब 25,000 की भीड़ उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ी। इसके साथ ही पटना से लेकर बेतिया-मोतिहारी तक पूरे कार्यक्रम के दौरान जो उत्साह देखने को मिल रहा है, वह कोई बनावटी सरकारी कार्यक्रम की बदौलत रूपायित नहीं हो सकता है।
सवाल उठता है कि चंपारण सत्याग्रह को गांधी ने कैसे सफल बनाया? कैसे-कैसे कार्यक्रमों के जरिए वे आंदोलन खड़ा कर पाए? गांधी वहां लगभग साढ़े नौ महीने रुके रहे तो उन्होंने कैसे यहां के समाज में बदलाव के बीज बोए? लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में जब गांधी को बुलाने राजकुमार शुक्ल गए थे, तब चंपारण के किसान और आम लोग शोषण और राज भय से बुरी तरह ग्रस्त थे। जमींदारों के आगे उनकी एक नहीं चलती थी। उस समय की अंग्रेज सरकार के कानूनों के मुताबिक किसानों द्वारा तैयार की गई सबसे अच्छी जमीन, जो उस किसान की कुल जमीन का कम से कम छठा हिस्सा होना चाहिए था, अंग्रेजी कोठी या उसके गुमास्ता जमींदारों द्वारा लगान के रूप में कब्जा कर ली जाती थी और उस पर नील की खेती होती थी। कई जगहों पर यह लगान तीन कठिया के नाम से कुख्यात था यानी तीन कट्ठा में एक कट्ठा जमीन में नील की खेती। इसके अलावा जो किसान जमीन की मालगुजारी देने में अक्षम होते थे, (वास्तव में मालगुजारी इतनी ज्यादा थी कि कोई किसान शायद ही इसे चुका पाने की स्थिति में होता था) तो उनके घर जला दिए जाते थे, उन्हें घोड़े के पीछे बांधकर घसीटा जाता था या कोड़ों से पीटा जाता था। किसानों के खाने-पहनने की दयनीय दशा का आकलन तो गांधी के साथ घटी एक घटना से ही हो जाती है।
गांधी जब चंपारण पहुंचे तो उन्होंने पूरे इलाके का सर्वे कराया। इस सर्वे के दौरान पुरुष किसान तो कार्यकर्ताओं के सामने आ जाते थे, लेकिन महिलाएं कभी नहीं आ पाती थीं। गांधी को लगा कि ऐसा परदा प्रथा के कारण हो रहा है। इसलिए गांधी ने अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ कुछ महिला कार्यकर्ताओं को घरों में जाकर महिलाओं से बातचीत करने को कहा। ये महिला कार्यकर्ता बा के साथ गांव-मुहल्लों के घरों में पहुंची तो घर अंदर से बंद मिले। टूटे-फूटे दरवाजों पर आवाज देने पर भी अंदर से कोई जवाब नहीं आया। कार्यकर्ता शिविरों में लौट गईं। दूसरे दिन फिर यही कोशिश हुई। फिर नाकामी हाथ लगी। लेकिन गांधी ने ठान लिया था कि वे महिलाओं को घरों से निकालकर आगे लाएंगे। कई दिन की कोशिश के बाद एक दिन महिला कार्यकर्ताओं को अंदर से आवाज सुनने को मिली। घर के अंदर से महिलाओं ने कहा कि हम आप लोगों के साथ नहीं आ सकतीं। कस्तूरबा के साथ आई महिला कार्यकर्ताओं ने उन्हें लाख भरोसा दिलाने की कोशिश की कि उनके साथ कोई पुरुष नहीं है और वे कोई असहज सवाल नहीं पूछेंगी।
लेकिन महिलाएं घर से बाहर आने को तैयार नहीं हुईं। काफी मान-मनौवल के बाद एक महिला दरवाजा बिना खोले ही अंदर से बात करने को तैयार हुई। घर की मालकिन ने जो बताया, वह अंग्रेजी राज के शोषण और जुल्म की ऐसी कहानी थी, जो अवाक कर देने वाली थी। मालकिन ने अंदर से बताया कि उनके पास पहनने को पूरे कपड़े नहीं हैं इसलिए बाहर आना मुमकिन नहीं है। किसी काम से बाहर जाना कैसे होता है? इस सवाल पर अंदर से आवाज आई,'उनके घर में कई महिलाएं हैं और एक ही साड़ी है। बारी-बारी से वही एक साड़ी पहनकर कोई एक बाहर जा पाती है। अभी कोई बाहर गई हुई है, इसलिए अब कोई बाहर आकर उनसे बात नहीं कर सकता।’ गांधी के लिए यह वाकया भारत की दुर्दशा और जनता-जनार्दन की बेबस स्थिति से पहला साक्षात्कार था।
दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजी साम्राज्य को झुका देने वाले अजेय योद्धा गांधी ने तय कर लिया कि इन किसानों को मुक्ति दिलाकर ही रहेंगे। कुछ दिनों के लिए किसानों की स्थिति का सर्वे करने आए इस बैरिस्टर को महात्मा बनने की राह इसी चंपारण से दिखाई दी थी। गांधी ने अंग्रेजी अन्याय के खिलाफ न सिर्फ महिलाओं, किसानों को एकजुट किया, बल्कि बड़ी संख्या में दलितों को भी संघर्ष का साथी बना लिया। हालांकि तब छुआछूत की समस्या भी विकराल थी। फिर भी, गांधी की कोशिशों से अंग्रेज सरकार को ज्ञापन देने वाले प्रतिनिधिमंडल में जिन दस लोगों का चयन हुआ, उनमें चार या पांच दलित थे। जांच समिति के सामने सबसे तगड़ी गवाही देने वाले भी बिगु दलित ही थे।
अंग्रेजों को गांधी से कड़ा साबका दक्षिण अफ्रीका में पड़ चुका था। चंपारण में गांधी की गतिविधियों से अंग्रेजों का माथा ठनक चुका था। प्रशासन ने तत्काल गांधी को जिलाबदर का हुक्म सुना दिया। लेकिन गांधी ने अंग्रेजों के इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया। गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया। उनसे जमानत लेने को कहा गया लेकिन गांधी ने इनकार कर दिया। उनके इस फैसले ने अंग्रेजों के दमन से त्रस्त स्थानीय आबादी में आत्मविश्वास भर दिया। ऐसा लगा जैसे लोगों के मन से अंग्रेजी राज का डर भागने लगा है। गांधी की लोकप्रियता शिखर चूमने लगी।
अहमदाबाद की बार कौंसिल ने तत्काल उन्हें अपना अध्यक्ष मनोनीत कर दिया। बेतिया से जब गांधी चले तो उन्हें विदा करने के लिए स्टेशन पर विशाल जन समुद्र मौजूद था। अगले तीन साल में गांधी ने तिलक की मृत्यु के बाद कांग्रेस की कमान संभाल ली। चंपारण से मिले सूत्र आगे चलकर असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो जैसे निर्णायक आंदोलनों के आधार बने।
वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर के अनुसार, गांधी जी ने चंपारण में देखा कि समस्या सिर्फ नीलहे किसानों पर अमानवीय जुल्म की नहीं है, समस्या यह भी है कि गांवों में साफ-सफाई नहीं है, बच्चों के लिए स्कूल नहीं है, दाल-भात के साथ खाने के लिए सब्जी नहीं है। शराब का सेवन भी बढ़ा हुआ था, जिससे किसानों की मेहनत की कमाई नशे में गर्क हो जाती थी और स्त्रियों को तरह-तरह के कष्ट भोगने पड़ते थे। गांधी जी ने अपने साथियों की सहायता से इन सभी मोर्चों पर एक साथ काम शुरू कर दिया। उनके इन्हीं चौतरफा प्रयासों का नतीजा था कि जब गांधी जी को चंपारण छोड़ने का आदेश न मानने के लिए गिरफ्तार करने के बाद अगले दिन मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश किया गया, तो वहां हजारों की संख्या में लोग जमा हो गए थे। मजिस्ट्रेट ऐसी परिस्थितियों में शासन की सीमाएं जानता था, तब जालियांवाला बाग जैसी बर्बर हिंसा के बारे में शायद अंग्रेज नहीं सोच पाए थे, इसलिए गांधी को बिना जमानत के छोडऩे का आदेश दिया। पर गांधी ने कहा कि मुझे रिहाई नहीं, सजा चाहिए, क्योंकि आप के कानून के अनुसार मैंने अपराध किया है। तब मजिस्ट्रेट निरुत्तर हो गया और उसने अदालत की कार्यवाही स्थगित कर दी। इस तरह गांधी तो आजाद हुए ही, उन्होंने आंदोलन में शामिल लोगों के दिल से राज भय को निकाल बाहर किया।
ऐसे चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी पर लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। इसका राजनीतिक लाभ उठाने के लिए केंद्र और बिहार सरकार ने भी कम उत्साह नहीं दिखाया। बिहार सरकार ने चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोहों के आयोजन पर करीब सौ करोड़ रुपये खर्च किए। पटना, मुजफ्फरपुर से लेकर मोतिहारी-बेतिया तक में कार्यक्रम किए गए। लेकिन सवाल है कि हमारी सरकारें चंपारण सत्याग्रह से क्या सीख ले रही हैं? क्या किसानों की आज की दुर्दशा के प्रति वे संवेदनशील हैं?
किसान दिनोदिन कमजोर होता गया है। अब वह आत्महत्या करने पर मजबूर है। खेती-किसानी की दशा बदतर हुई है। स्थिति यह है कि किसान परिवार खेती छोड़ मजदूरी के लिए बड़े शहरों का रुख कर रहे हैं। किसानों पर कर्ज को कभी-कभार सरकारों द्वारा माफ करने का कुछ रस्मी लोक लुभावन आयोजन किया जाता है। लेकिन किसान पूरे देश में आत्महत्या को मजबूर हैं। आंकड़ों को देखें तो पिछले 15 साल में ही ढाई लाख किसानों ने कर्ज के बोझ तले दबने से मुक्ति के लिए आत्महत्या की है। सरकार की कृषि नीति जिस तरह से मशीनों और बड़ी कंपनियों के खाद-बीज पर आश्रित होती जा रही है, उसमें इनके कल्याण का कोई चारा भी नहीं दिखता। बड़े कॉरपोरेट खेती में उतर रहे हैं और भूमि बैंक जैसे कारपोरेट खेल चल रहे हैं। नई दिल्ली के जंतर मंतर पर तमिलनाडु के किसानों के एक महीने से अधिक से चल रहे धरने के बावजूद सरकार ने उनकी सुध लेना जरूरी नहीं समझा। कोई समाधान होता न देख इन किसानों को प्रधानमंत्री कार्यालय के समक्ष नग्न प्रदर्शन तक करना पड़ा। यह राष्ट्रीय शर्म का बात होनी चाहिए थी।
चंपारण सत्याग्रह को सही रूप में याद करने का तरीका तो यही हो सकता है कि तड़क-भड़क वाले आयोजनों के बजाय किसानों की समस्या दूर की जाए। सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए जो किसानों को किसी अन्य पेशे की तुलना में श्रेष्ठता का बोध कराए। चाहे वह आर्थिक आमदनी के स्तर पर हो या सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर। तभी सौ साल पहले गांधी के शुरू किए यज्ञ पूर्णाहूति की ओर देश बढ़ेगा।