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अकादमिक उम्मीदों के केंद्र में रस्साकशी

जेएनयू में पीएच.डी. की राह हुई मुश्किल। एक झटके में 83 प्रतिशत सीटों में कटौती हो गई है। क्या यह वैचारिक फलक नियंत्रित करने की कोशिश है
जेएनयू पर‌िसर पहुंचे छात्र

अचानक दो कारणों से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) फिर चर्चा में आ गया है। पहला कारण उम्मीद जगाता है, नेशनल रैंकिंग में जेएनयू को दूसरा स्थान मिला। दूसरा कारण नाउम्मीदी गहराता है, इस बार पीएच.डी. और एम.फिल. की सीटें करीब 83 फीसदी कम कर दी गई हैं। देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. की सीटों में अघोषित और एम.फिल. में घोषित कमी की गई है। यह महज तकनीकी मामला नहीं है क्योंकि इसे जेएनयू के वैचारिक फलक को नियंत्रित करने की नीति के तौर पर भी देखा जा रहा है।

देश के 800 विश्वविद्यालयों में करीब एक चौथाई ऐसे विश्वविद्यालय हैं जिनमें पीएच.डी., एम.फिल. में नियमित रजिस्ट्रेशन हो रहे हैं। बाकी विश्वविद्यालयों में प्रवेश परीक्षाएं सालों के अंतराल पर हो रही हैं। इस बीच अचानक जेएनयू की सीटों में बड़ी कटौती से उन हजारों युवाओं को झटका लगा है जिनके लिए जेएनयू अकादमिक उम्मीदों का केंद्र है। यह भी स्थापित तथ्य है कि जेएनयू में जितनी बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग प्रवेश पाते हैं, उतने शायद ही किसी अन्य विश्वविद्यालय में पाते हों।

दूसरी संस्थाओं में ऊंची फीस भी बड़ा मुद्दा है। जेएनयू में अकादमिक परिषद ने 1408 शोध छात्रों के प्रवेश की अनुमति प्रस्तावित की थी जबकि विश्वविद्यालय प्रशासन ने सत्र 2017-18 के शिक्षा सत्र के लिए केवल 242 शोध छात्रों को ही प्रवेश देने का निर्णय लिया है। करीब 83 प्रतिशत सीटों की कटौती के बाद इतिहास अध्ययन केंद्र, अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं विकास केंद्र, दक्षिण एशिया अध्ययन केंद्र, स्थानीय विकास अध्ययन केंद्र में एक भी सीट पर पंजीकरण नहीं हो पाएगा।

विश्वविद्यालय प्रबंधन द्वारा इसका कारण विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का निर्देश बताया जा रहा है। शिक्षा एवं शोध की गुणवत्ता को बेहतर करने के लिए फैकल्टी और शोधार्थी के लिए अनुपात निर्धारित किया गया है। जेएनयू के कुलपति प्रो. एम जगदीश कुमार का कहना है कि पीएच.डी. और एम.फिल. की आरक्षित सीटों में कोई कटौती नहीं हो रही है बस शोध की गुणवत्ता में सुधार के लिए यूजीसी के रेगुलेशन-2016 को नई दाखिला नीति में लागू किया जा रहा है। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार के शिक्षक डॉ. अजित सिंह का कहना है कि जेएनयू पूर्वाग्रह की नीति का शिकार हो रहा है। यूजीसी की आड़ लेकर सरकार उन लोगों को नियंत्रित करना चाहती है जो उसके खिलाफ मुखर हैं।

ज्ञात रहे कि प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर के निर्देशन में सीटों की संख्या का निर्धारण यूजीसी के रेगुलेशन 2009 में किया जा चुका था। जेएनयू ने तब इसे लागू नहीं किया था। जेएनयू में संचालित 130 पाठ्यक्रमों में लगभग दो हजार छात्रों को दाखिला मिलता है। इस कटौती के बाद इस संख्या में आधे से भी अधिक की गिरावट आएगी। जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार सीटों में इस भारी कटौती को विश्वविद्यालय के खिलाफ साजिश करार देते हैं। इस मामले पर जेएनयू प्रशासन को छात्र संगठनों के भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन के मना करने के बावजूद जनता दल (यूनाइटेड) के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद शरद यादव ने जेएनयू पहुंचकर प्रदर्शनकारी छात्रों का समर्थन किया।

आउटलुक से बातचीत में शरद यादव ने कहा कि अर्जुन सिंह के समय जब ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई थी तो उन्होंने उच्च शिक्षा के बजट में भी भारी बढ़ोतरी की थी। इसका मकसद संस्थाओं में शिक्षकों व सुविधाओं को बढ़ाना था, लेकिन इस पैसे को गैर-जरूरी चीजों पर खर्च किया गया। और अब शिक्षकों की संख्या बढ़ाने के बजाय सीटों की कटौती की जा रही है। जब शरद यादव ने राज्यसभा में यह मुद्दा उठाया तो मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने भरोसा दिलाया कि अगले साल जेएनयू में ज्यादा दाखिले होंगे। अब देखना है कि जावड़ेकर अपने वादे पर कितने खरे उतरते हैं।

हालांकि जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व सहसचिव सौरभ शर्मा का कहना है, 'यह सब पूर्ववर्ती सरकारों की शिक्षा संबंधी गलत नीतियों की वजह से हो रहा है। यूजीसी के शोध संबंधी नियमों को लागू किया जाता तो यह परेशानी नहीं होती। जैसे ही फैकल्टी के रिक्तपदों पर भर्तियां होंगी वैसे ही शोधार्थियों के लिए सीटें बढ़ जाएंगी।’

सीट कटौती का मामला छुपे तौर पर सभी विश्वविद्यालयों में चल रहा है। पीएच.डी. से ज्यादा मार एम.फिल. पर पड़ी है। रेगुलेशन-2016 से पहले सभी विश्वविद्यालय अपने संसाधनों के अनुरूप एम.फिल. सीटों का निर्धारण करते थे।

अब प्रोफेसर के लिए तीन, एसोसिएट प्रोफेसर के लिए दो और असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए एक सीट निर्धारित कर दी गई है। इसके चलते ज्यादातर विभागों में एम.फिल. की सीटों की संख्या में कमी आएगी। सेंटर फॉर रशिया एंड सेंट्रल एशिया की शोध छात्रा अंशु कुमार कहती हैं, 'यह सरकार की सुनियोजित रणनीति है, जिसके तहत शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी हो रही है।’

अगले सत्र में 1200 नई सीटें संभव

पिछले दिनों जेएनयू ने अपनी वेबसाइट पर एक सूची जारी की थी, जिसमें शिक्षकों और उनकी देखरेख में पीएच.डी. कर रहे शोधार्थियों की संख्या का उल्लेख किया था। इस ब्यौरे को देखने से साफ होता है कि जेएनयू ने यूजीसी के रेगुलेशन 2009 के अनुरूप पीएच.डी. सीटों का आवंटन नहीं किया था। पीएच.डी./एम.फिल. रेगुलेशन 2009 में प्रावधान था कि प्रोफेसर के साथ आठ, एसोसिएट प्रोफेसर के साथ छह और असिसस्टेंट प्रोफेसर के साथ चार से अधिक शोधार्थियों का पंजीकरण नहीं किया जाएगा। ये प्रावधान, रेगुलेशन 2016 में भी ज्यों के त्यों रखे गए। पहले से ही अधिक संख्या में शोधार्थियों का पंजीकरण है इसलिए मौजूदा सत्र में पीएच.डी. सीटों की संख्या कम हो गई। इस प्रावधान के अगले सत्रों में भी लागू रहने से जेएनयू में पीएच.डी. सीटों की संख्या सीमित रहेगी।

जेएनयू में शिक्षकों के 909 पदों के मुकाबले 586 ही शिक्षक काम कर रहे हैं। यानी हर तीसरा पद खाली है। इस बारे में रजिस्ट्रार ने सार्वजनिक पत्र जारी कर कहा है कि विश्वविद्यालय में 300 पदों पर भर्ती की प्रक्रिया चल रही है। इन पदों पर भर्ती होने के बाद अगले सत्र में संबंधित शिक्षकों के अधीन तय होने वाली सीटों पर भी शोधार्थियों का पंजीकरण किया जाएगा। यदि उपर्युक्त सभी पद भर जाएं और हर शिक्षक के अधीन औसत चार शोधार्थियों का पंजीकरण हो तो अगले वर्ष करीब 1200 नई सीटें उपलब्ध होंगी। लेकिन वर्तमान में कार्यरत ज्यादातर प्रोफेसरों और एसोसिएट प्रोफेसरों के अधीन पहले से ही इतने अधिक पंजीकरण हैं कि उनके मामले में सीटों के रिक्त होने में दो से तीन साल तक का वक्त लग जाएगा।

हर साल 25 हजार छात्रों को मिलती है पीएच.डी.

इस समय पूरे देश में करीब 800 विश्वविद्यालयों और समकक्ष संस्थाओं में पीएच.डी. के लिए शोध कराया जा रहा है। इनके अलावा करीब दो प्रतिशत पीजी कॉलेजों में भी पीएच.डी. के लिए पंजीकरण किया जाता है। इन सभी विश्वविद्यालयों से हर साल करीब 25 हजार शोधार्थियों को पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त होती है। (वर्ष 2015-16 में 24,171 शोधार्थियों ने पीएच.डी. प्राप्त की जबकि उक्तवर्ष में पूरे देश में पीएच.डी. में पंजीकृत शोधार्थियों की संख्या 1,26,451 थी।) औसत के आधार पर देखें तो हर विश्वविद्यालय प्रतिवर्ष 300 शोधार्थियों को डॉक्टरेट प्रदान करता है। पिछले कई सालों में जेएनयू का आउटपुट कई गुना था। इस बार सीटों की संख्या के लिहाज से जेएनयू भी 300 के औसत के करीब आ गया है।

 साथ में सुशील उपाध्याय

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