केंद्र सरकार ने देश बदलने का बीड़ा उठाया है। कहा जा रहा है कि देश बदल रहा है। देश के लोगों का जीवन बेहतर करने का जिम्मा नीति आयोग नाम की नई संस्था को दिया गया है। मगर दिलचस्प यह है कि नीति आयोग काम तो करता है देश के लिए पंचवर्षीय योजनाएं बनाने वाले योजना आयोग की बिल्डिंग में ही। लेकिन अब वह पांच की बजाय पंद्रह साल की योजना बना रहा है। इसलिए नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय ने सरकार की कमाई बढ़ाने का एक नया रास्ता खोज निकाला है। उनका सुझाव है कि किसानों पर इनकम टैक्स लगाया जाए। देबरॉय के मुताबिक, देश में किसान अच्छी-खासी आमदनी करते हैं लेकिन आय कर नहीं चुकाते हैं। हालांकि उनको पता है कि देश का कानून इसकी इजाजत नहीं देता। आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 10(1) में कृषि आय को कर मुक्त रखा गया है।
बिबेक देबरॉय के बयान के बाद राजनीतिक हलकों से लेकर किसान संगठनों की ओर से कृषि आय पर कर की मुखालफत की आवाजें उठीं। सो, आईएमएफ की बैठक में आर्थिक सुधारों के एजेंडा से फ्री होकर आए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फौरन बयान जारी किया कि देश में कृषि आय पर कर लगाने का कोई प्रावधान ही नहीं है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगढ़िया ने भी कहा कि नीति आयोग कृषि आय पर कर के पक्ष में नहीं है। जाहिर है, यह मामले को ठंडा करने की कोशिश थी। लेकिन सरकार के नीति-निर्धारकों में गजब के तालमेल का जरा नमूना देखिए। वित्त मंत्री की सफाई के कुछ दिन के भीतर ही मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने बिबेक देबरॉय के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि बड़े किसानों पर कर लगाने का समय आ गया है।
दिलचस्प है कि पानगढ़िया के मातहत की राय पानगढ़िया से अलग है। इसी तरह वित्त मंत्री और उनके मातहत काम करने वाले अरविंद सुब्रमण्यन अलग राय रखते हैं। यानी इतने गंभीर मुद्दे पर नीति आयोग और वित्त मंत्रालय के दो बड़े लोगों की राय एक जैसी नहीं है। खास बात यह है कि यह मामला देश के 13.8 करोड़ किसानों से जुड़ा है। इनमें से करीब 95 फीसदी किसान ऐसे हैं जिनकी जोत का आकार 10 एकड़ से कम है। यही नहीं, 80 फीसदी से ज्यादा किसानों की जोत का आकार दो हेक्टेयर से कम है। इसके साथ ही अधिकांश किसानों की औसत आय सात हजार रुपये महीने से भी कम है। एक ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने की बात कर रहे हैं लेकिन विडंबना देखिए कि उनकी सरकार के शीर्ष नीति-निर्माता पहले ही किसानों को आय कर देने वाले लोगों की श्रेणी में देख रहे हैं।
हालांकि इसके पक्ष में दलील यह दी जा रही है कि बहुत सारे अमीर लोग अपनी आय को कृषि आय दिखाकर कर चोरी कर रहे हैं। कृषि आय पर कर लगाने से यह चोरी रुक जाएगी। लेकिन 95 फीसदी से अधिक किसानों की जोत का आकार ही इतना छोटा है कि उनकी पूरी आमदनी ही सालाना पांच लाख रुपये से कम रहेगी, जिस पर कर छूट प्रावधानों के बाद शून्य कर-देयता बनती है। दूसरे, अगर सरकार कृषि को बिजनेस मान लेती है तो लागत के बाद जो कमाई होगी, वह बेहद मामूली होगी। उसके लिए किसान कहां हिसाब-किताब रखेंगे। जिन लोगों की आय ही कुछ हजार रुपये महीने की हो, वह इनपुट लागत, डेप्रिसिएशन, लैंड रेंट, फैमिली लेबर जैसे पचड़ों को कहां समझ पाएंगे।
असल में यह सारा मामला देश के मौजूदा नीति-निर्धारकों की समझ और कृषि क्षेत्र की जमीनी हकीकत के बीच लंबे फासले को दर्शाता है। जिन किसानों को कर (लगान) से मुक्ति दिलाने के लिए गांधी जी को सौ साल पहले देश का पहला किसान आंदोलन चंपारण में खड़ा करना पड़ा, उन्हीं पर अब फिर कर लगाने की कोशिश हमारे नए हुक्मरान कर रहे हैं। किसानों के हितों की आवाजें कमजोर होने से ही शायद यह चर्चा नए सिरे से उभर आई है। यह चर्चा उद्योग संगठनों के मंचों पर ज्यादा तेज होती है जिनके सदस्य बैंकों का लाखों करोड़ रुपये का सरकारी बैंकों का कर्ज नहीं लौटा रहे हैं। लेकिन यह देश बदलने का दौर है और यहां सब कुछ बदल रहा है।
इस अंक की हमारी आवरण कथा भी राजनीति में कुछ अलग तरह के बदलाव के प्रतीक के रूप में उभरी आम आदमी पार्टी पर है। बदलते देश के दौर में यह पार्टी भी ऐसे बदल रही है कि उसकी नई राजनीति पर पुराना ढर्रा ज्यादा हावी हो चला है।
किसानों के हितों की आवाजें कमजोर होने से ही शायद यह चर्चा उभर आई है। खेती पर टैक्स लगाने की बातें उद्योग संगठनों के मंचों पर ज्यादा होती हैं जिनके सदस्य बैंकों का लाखों करोड़ का कर्ज नहीं लौटा रहे हैं। यह देश बदलने का दौर है और यहां सब कुछ बदल रहा है।