पहले पंजाब, गोवा और अब अपने गढ़ दिल्ली में आम आदमी पार्टी से लोगों का मोहभंग क्या एक बार फिर यह साबित करता है कि आंदोलनों से निकली राजनीति या पार्टियों की उम्र लंबी नहीं होती? इसके पहले जेपी आंदोलन से लेकर असम गण परिषद और हाल में मणिपुर में इरोम शर्मिला तक के कई प्रयोगों को नाकाम होते देश देख चुका है। अगप जैसे प्रयोग तो एक क्षेत्र और एक खास मुद्दे से ही जुड़े रहे हैं लेकिन जेपी आंदोलन की ही तरह आप ने समूचे देश में ‘नई राजनीति’ की एक संभावना जगा दी थी। दिल्ली नगर निगम चुनावों में बुरी पराजय क्या यह संकेत है कि ‘नई राजनीति’ की यह संभावना आखिरी सांसें गिन रही है?
हालांकि आप से ‘नई राजनीति‘ की डोर तो 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान ही पुराने ढर्रे की चुनावी जीत की राह पर बढ़ने के साथ ही छूटने लगी थी। लेकिन अन्ना आंदोलन की आंच तब बाकी थी, जिससे लोगों ने उसे कुल 70 में से 67 सीटों में जीत दिलाकर इतिहास रच दिया था। जनादेश की वह भावना शायद आप का नेतृत्व और खासकर अरविंद केजरीवाल शायद ही समझ पाए। दिल्ली में सरकार बनाने के फौरन बाद पार्टी से प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव जैसे नैतिक आग्रह पर जोर देने वाले स्वरों को अलग कर दिया गया या उन्हें टूटकर बाहर जाने दिया गया।
पुराने ढर्रे की राजनीति में बेशक चुनावी जीत और सत्ता के कब्जे पर जोर होता है इसलिए हार देखकर विरोधी स्वरों का उभरना लाजिमी था। पंजाब विधानसभा चुनावों में बेहद खराब प्रदर्शन पर जब केजरीवाल ने ईवीएम में छेड़छाड़ का सवाल उठाकर एक नया मुद्दा खड़ा करने की कोशिश की तो पंजाब में उनके सांसद और सबसे वफादार भगवंत मान ने कहा, ‘सिर्फ ईवीएम का दोष नहीं है।’ दिल्ली नगर निगम चुनावों में हार के बाद तो केजरीवाल के एक समय खास सखा रहे कुमार विश्वास तक ने पार्टी में एक खास मंडली के बोलबाले का मुद्दा उठा दिया। उन्होंने कहा, ‘केजरीवाल एक कोटरी के चंगुल में फंसकर बाकी सबको नजरअंदाज कर रहे हैं।’ अगले ही दिन पार्टी की पॉलिटिकल अफेयर कमेटी (पीएसी) के सदस्य अमानुल्ला खान ने जवाबी हमला किया, ‘कुमार विश्वास भाजपा की शह पर ऐसे सवाल उठा रहे हैं।’ कयास यह भी है कि पार्टी के कुछ विधायक केजरीवाल खेमे से नाराज हैं। यानी वही सब हो रहा है, जो चुनावी राजनीति में आने पर बाकी आंदोलनों से उपजी राजनीति का होता रहा है।
फिर भी आप में केजरीवाल के बाद सबसे अहम दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया आउटलुक से कहते हैं, ‘हम अलग हैं और अलग साबित होंगे’ (देखें बातचीत)। उन्हें सबसे अधिक गुरेज मीडिया से है, जो ‘एंटी-आप ही नहीं, एंटी-नेशनल’ राग अलाप रहा है। उनका कहना है कि दिल्ली नगर निगम में तो दस साल से काबिज भाजपा की साख दांव पर थी लेकिन मीडिया आप का वजूद तलाश रहा था। ये आरोप अपनी जगह हैं लेकिन इनसे आत्मनिरीक्षण की वह बात कहां निकलती है, जो केजरीवाल ने निगम नतीजों के दो दिन तक बाद कही। उन्होंने ट्वीट किया, 'पिछले दो दिनों से मैंने अनेक पार्टी वालंटियरों और वोटरों से बात की। असलियत तो जाहिर है। हां, हमसे गलतियां हुई हैं लेकिन हम आत्मनिरीक्षण करेंगे और अपने में सुधार लाएंगे। खास बात यह है कि केजरीवाल ने इस बार ईवीएम में गड़बड़ी की बात नहीं की है। हालांकि पंजाब चुनाव में हार के बाद से वे ईवीएम में छेड़छाड़ के खिलाफ आंदोलन करने की चेतावनी देने लगे थे।
आप से नाउम्मीदी
इसमें दो राय नहीं कि 2011-12 में गांधीवादी समाज सेवी अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उसके बाद 2013 में उससे निकली आप ने देश के अलग-अलग क्षेत्रों में चल रहे छोटे-छोटे आंदोलनों में भी इसके जरिए अपनी बात सुने जाने और सत्ता के चरित्र में बदलाव की आस जगा दी थी। एक नई तरह की बहस की शुरुआत हुई थी। भ्रष्टाचार को ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ या ‘याराना पूंजीवाद’ के प्रश्रय का अनिवार्य अंग माना गया और देश में गैर-बराबरी की चौड़ी होती खाई को कम करने लिए इस पर अंकुश लगाने के उपाय के तौर पर लोकपाल की स्थापना जरूरी मानी गई। इसी मूल अवधारणा पर 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में 28 सीटें जीतकर आई आप ने आठ विधायकों वाली कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाया तो उसने बिजली-पानी सस्ते में सुलभ कराने के लिए सरकारी सब्सिडी दी। लेकिन शर्त यह थी कि वह बिजली आपूर्ति करने वाली निजी कंपनियों का ऑडिट करवाएगी और कीमतों में जुड़े भ्रष्टाचार के घटक को हटा देगी। इस तरह बिजली मुनासिब दाम में उपलब्ध हो जाएगी। भ्रष्टाचार के बारे में इस नई अवधारणा ने देश भर में उम्मीद जगाई। ये उम्मीदें धराशायी होने लगी हैं। कभी प्रशांत भूषण की भ्रष्टाचार और ‘याराना पूंजीवाद’ के खिलाफ कानूनी सक्रियता आप का आधार तय किया करती थी लेकिन बाद में उन्हें बेआबरू करके निकाल दिया गया था। लेकिन नगर निगम चुनावों के बाद उन्होंने कहा कि सब खत्म हो गया है। प्रशांत भूषण आप और अरविंद केजरीवाल के पतन पर निराश दिखाई देते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मैं नहीं मानता कि अरविंद के मन में सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता नहीं है। शायद राजनैतिक सत्ता और वोट जुटाने की चाहत ने उन्हें रास्ते से भटका दिया।
यही वह सच्चाई है जिसके भंवर में फंसकर अधिकांश आंदोलनों से निकले नेता और पार्टियां अंतत: उसी सत्ता-तंत्र का हिस्सा बन जाती हैं जिसे बदलने का सपना लेकर वे चुनावी राजनीति में उतरती हैं। जेपी आंदोलन से निकले नेताओं का सत्ता में पहुंचकर क्या हश्र हुआ, इसकी मिसालें कई हैं। शुरू में लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान वगैरह में कई संभावनाएं दिखी थीं। लेकिन बाद में यथास्थितिवाद और राजनैतिक रसूख कायम रखने के चक्कर में वे कुनबापरस्ती की ओर मुड़ गए। कुछ-कुछ ऐसा ही हाल कांशीराम के सामाजिक न्याय आंदोलन से निकली मायावती की बहुजन समाज पार्टी का भी हुआ। ऐसी मिसालें उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक कई हैं। आंदोलन को व्यवस्थागत राजनीति में बदलने के चक्कर में साख गंवा देने का सबसे ताजा उदाहरण मणिपुर की इरोम शर्मिला का है। उन्होंने सैन्यबल विशेष अधिकार को हटाने के लिए दशक से अधिक समय तक अपनी भूख हड़ताल को खत्म करके हाल के विधानसभा चुनावों में मैदान में उतरने का फैसला किया तो जमानत भी नहीं बचा पाईं।
मोहभंग का चुनावी गणित
चुनाव आयोग के खंडन के बावजूद ईवीएम में छेड़छाड़ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन आप के लिए सवाल इससे बड़े हैं। 2015 के विधानसभा चुनावों के मुकाबले कांग्रेस का वोट प्रतिशत करीब 9 प्रतिशत से बढक़र निगम चुनावों में 21 प्रतिशत तक पहुंच गया है। भाजपा का वोट प्रतिशत विधानसभा चुनावों के मुकाबले 33 प्रतिशत से मामूली बढ़कर निगम चुनावों में 36 प्रतिशत के आसपास ही पहुंचा है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आप को इस बार हासिल वोट हिस्सेदारी 26 प्रतिशत होने की बड़ी वजह उन वोटों का कांग्रेस की ओर वापस चला जाना है, जो उसे विधानसभा चुनावों में एकमुश्त मिल गए थे। हालांकि विधानसभा चुनावों में आप को मिले 54 प्रतिशत वोटों की एक दूसरी वजह भी है। उस समय कुल मतदान 70 प्रतिशत के आसपास हुआ था जबकि निगम चुनावों में महज 54 प्रतिशत लोग ही वोट करने बाहर आए। यानी आप ने लोगों में जो दिलचस्पी और उक्वमीद विधानसभा चुनावों में जगाई थी, वह निगम चुनावों में नहीं जगा पाई। यही आप के प्रति लोगों के मोहभंग का संकेत है।
इस मोहभंग का एहसास कांग्रेस के अलावा भाजपा को भी शिद्दत से हो गया था। यही वजह है कि भाजपा ने पूर्वांचली वोटरों पर डोरा डाला। खासकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भारी जीत के बाद भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी के नेतृत्व में पूर्वांचल के लोगों पर ज्यादा फोकस किया। इसके बरक्स ‘आप’ के पास इस बार वालंटियरों का भी टोटा था। इससे प्रचार में नकारात्मक मुद्दे ही ज्यादा छाए रहे।
मुक्रत पानी और सस्ती बिजली के लोकप्रिय नारे पर सवार होकर दिल्ली की सत्त में आई ‘आप’ राजधानी की सूरत पर कोई खास असर नहीं डाल सकी जो दिखाई दे सके। आप स्कूलों में सुधार, मोहल्ला क्लीनिक, अस्पतालों में मुफ्त दवाइयों को उपलब्ध कराने जैसे कदमों का दावा करती है। इनसे बेशक गरीबों को लाभ मिला लेकिन मध्यवर्ग को लुभाने के लिए वह खास कुछ नहीं कर पाई। वह लोकपाल या लोकायुक्त भी नहीं नियुक्त कर पाई। भले इसके लिए वह केंद्र को दोष देती है मगर लोग तो नतीजे देखना चाहते हैं। निगम के नतीजे मतदाताओं में आप के प्रति उदासीनता का ही संदेश लेकर आए।
आप का घिरना
इसकी कुछ वजह यह हो सकती है कि दिल्ली की सरकार को सत्ता नगर निगम और केंद्र के साथ साझा करती है जिस वजह से वह बहुत बदलाव नहीं ला सकी। एक वजह यह भी हो सकती है कि पार्टी ने अपने पहले से सीमित संसाधनों का इस्तेमाल पंजाब और गोवा में चुनावों में किया, ताकि आप और केजरीवाल की छवि केंद्र में मोदी सरकार को टक्कर देने वाले की बन सके। हालांकि बड़ी वजह यह भी है कि ‘आप’ अपनी झगड़ालू छवि में फंसकर रह गई। भाजपा बेशक दबाव भी बनाए कि आप सरकार कार्यकाल पूरा न कर पाए। प्रशांत भूषण ने भी संदेह जाहिर किया है कि भाजपा इस चुनाव परिणाम और शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट के हवाले से आप सरकार की वैधता पर सवाल खड़ा कर सकती है। आप के 67 में से 21 विधायक संसदीय सचिव होने के नाते लाभ के पद के आरोप के दायरे में आ सकते हैं।
हालांकि आप की निगम चुनावों में हार उतनी बड़ी नहीं है या कह सकते हैं कि वोट हिस्सेदारी के मामले में भाजपा की जीत कोई बड़ी नहीं है। जनता दल (यू) के नेता सांसद शरद यादव कहते हैं, ‘केंद्र में मोदी सरकार के साथ तीखे सौतेले रवैए के बावजूद आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन कोई खराब नहीं है। इससे आप को खत्म हुआ मानने का निष्कर्ष निकालना सही नहीं है।’ हालांकि ऐसा तो जरूर लगता है कि 2015 के दिल्ली में अभूतपूर्व चुनावी जीत हासिल करने के बाद आप वैकल्पिक राजनीति का वादा बहुत हद तक भूल गई। ‘आप’ की यही नाकामी है कि उसकी ओर मुखातिब हुए मतदाता अब कांग्रेस और भाजपा की परंपरागत राजनीति की ओर रुख कर रहे हैं।
दरअसल आप से मोहभंग के शिकार कई लोगों का मानना है कि लोगों की परंपरागत राजनीति की ओर वापसी के दोषी केजरीवाल ही हैं। प्रशांत भूषण तो कह चुके हैं कि केजरीवाल ने वैकल्पिक राजनीति के सरोकार को सिर्फ इसलिए पीछे कर दिया ञ्चयोंकि वे चुनावी जीत-हार के अलावा किसी और विचार से दूर होते गए हैं और आलोचनाएं बर्दाश्त नहीं कर पाते।
क्या केजरीवाल अपनी राहें मोड़ सकते हैं? क्या वे दोबारा आंदोलन से उपजी गैर-परंपरागत राजनीति के डगर पर जा सकते हैं? जाहिर है, यह आसान नहीं है। योगेंद्र यादव को लगता है कि अब यह नहीं हो सकता। यह बात अलग है कि उनकी अपनी पार्टी ‘स्वराज इंडिया’ इन चुनावों में कुछ नहीं कर पाई। यानी फिर वही सवाल खड़ा है कि आंदोलनों से उपजी राजनीति क्यों दम तोड़ने लगती है?
अभी नहीं टूटी आस
कम नहीं हुआ आप के युवा उम्मीदवार डॉ. विकास का हौसलाडॉ. विकास कुमार सिंह वार्ड नंबर 35 दिलशाद गार्डन से दिल्ली नगर निगम का चुनाव हार गए, लेकिन आम आदमी पार्टी में उनका विश्वास कायम है। 26 वर्षीय विकास इन चुनावों में पार्टी के सबसे युवा उक्वमीदवारों में से एक थे। जीटीबी अस्पताल की नौकरी छोडक़र राजनीति में उतरे विकास ने एक साल पहले ही चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी थीं।
इतनी कम उम्र में राजनीति में आने का फैसला कैसे लिया? इस सवाल के जवाब में विकास बताते हैं, ‘मैं डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था। इसी दौरान 2011 में अन्ना आंदोलन चला और मैं इससे काफी प्रभावित हुआ। मेडिकल कालेज में पढ़ रहे अपने साथियों के साथ इस आंदोलन में बढ़-चढक़र हिस्सा लिया। तभी मैंने राजनीति से जुडक़र लोगों की सेवा करने का सपना देखा था। आप से जुड़कर और अब नगर निगम का चुनाव लडक़र यह सपना साकार हुआ। लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है।’
विकास मानते हैं कि उनके लिए आप एक विचारधारा है। इसने उन्हें बेहतर देश और सुशासन का एक नजरिया दिया। आज अरविंद केजरीवाल के मुद्दों को भाजपा दिखावे के लिए ही सही, लेकिन अपना रही है। चुनावी हार-जीत अपनी जगह है, लेकिन भारतीय राजनीति में आप की जगह और छाप बनी रहेगी। पार्टी के मकसद और सिद्धांतों को लेकर विकास कुमार की राय एकदम स्पष्ट है। राजनीति को खराब बताने वाले रवैए को बदलकर युवाओं को आगे आने के लिए प्रेरित करने में आम आदमी पार्टी ने बड़ी भूमिका निभाई है। यह बात विकास से बात करते हुए साफ दिखाई पड़ती है। विकास कहते हैं कि अब अन्य दल भी आप की विचारधारा और लोगों से सीधे जुड़ाव के तौर-तरीकों को अपना रहे हैं। बेशक निगम चुनावों में पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली, लेकिन राजनीति में हार-जीत लगी रहती है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि आम आदमी पार्टी दोबारा जनता का विश्वास जीतने में कामयाब होगी। यह एक अस्थायी दौर है।
निगम चुनाव में विकास को कुल 4,500 मत मिले और वह चुनाव हार गए। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि एक साल तक लोगों से संपर्क करने के बाद पराजय का सामना करना पड़ेगा। वह बताते हैं, ‘मेरे इलाके में ज्यादातर जनता फ्लैट्स हैं। यहां ज्यादातर मध्य वर्ग व निम्न मध्यवर्ग के लोग रहते हैं। इलाके की मूल समस्या सफाई व पार्कों की है। भाजपा शासित निगम की ओर से इलाके के विकास की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया।’ अपनी हार के लिए विकास आखिरी समय में चली मोदी लहर को जिम्मेदार मानते हैं। उनका मानना है कि दूसरों की आलोचना के बजाय आम आदमी पार्टी चुनाव में अपने कामों पर ही फोकस करती तो बेहतर होता।
काम आया जमीन से जुड़ाव
विमलेश के चुनाव क्षेत्र में ज्यादातर झुग्गी-बस्तियां हैं। इसी बस्ती में उनके पिता घर में ही परचून की छोटी-सी दुकान चलाते हैं। यह दुकान ही विमलेश का चुनाव कार्यालय है। यहीं लोगों से मिलते-जुलते उन्होंने एक नई तरह की राजनीति का ख्वाब देखा और उसे साकार करने के लिए आम आदमी पार्टी में शामिल हुईं।
नगर निगम चुनाव में विमलेश को कुल 13530 मत मिले और वह 5535 मतों से जीती हैं। दिल्ली का यह इलाका मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कर्मभूमि भी रहा है। साल 2013 व 2015 के विधानसभा चुनाव में भी इस क्षेत्र में आप को कामयाबी मिली थी। मोदी लहर के बावजूद 2014 के लोकसभा चुनाव में यहां सबसे ज्यादा वोट आप को मिले।
विमलेश बताती हैं कि इस वार्ड की मुख्य समस्या सफाई, पार्क, स्ट्रीट लाइट, नालियों की है। उन्हें खुशी है कि आप ने महिलाओं को चुनाव लडऩे का खूब मौका दिया। उन्होंने पार्टी के साथ मिलकर झुग्गी-बस्तियों में बहुत काम किया है। इसका परिणाम लोगों के भरोसे के तौर पर उनके सामने आया है।
पार्टी में अपने अनुभवों के बारे में बताते हुए विमलेश के चेहरे पर चमक आ जाती है। वह कहती हैं, ‘मैं अरविंद केजरीवाल से उस समय से जुड़ी हूं जब सुंदरनगरी से उन्होंने अपने एनजीओ ‘परिवर्तन’ की शुरुआत की थी। सन 2003 में एक्शन इंडिया एनजीओ में काम कर रही थी, तब पता चला कि अपने एनजीओ के जरिए केजरीवाल फर्जी राशनकार्ड और पानी के निजीकरण के विरोध में अलख जगा रहे हैं तब मैं भी उनके एनजीओ से जुड़ गई।’ विमलेश को भरोसा है कि भविष्य में आप मजबूत होकर उभरेगी। यह खत्म होने वाली पार्टी नहीं है।
चुनौतियों से टकरा कर हासिल की जीत
दिल्ली नगर निगम में जबर्दस्त जीत से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी उत्साह से भरे हैं। उनसे चुनौतियों और योजनाओं पर आउटलुक के विशेष संवाददाता शशिकांत वत्स ने बात की। प्रमुख अंश
पार्टी की कमान मिली तब इसे लेकर क्या नजरिया था आपका?
जब मुझे यह जिम्मा सौंपा गया तो मेरे शुभचिंतकों ने कहा कि आपको निपटाने के लिए ही यह जिम्मेदारी सौंपी गई है क्योंकि निगम में तो भाजपा आएगी नहीं। लेकिन मेरा मिजाज हमेशा चुनौतियों से लड़ने का रहा है सो मैंने जिम्मेदारी ले ली। मेरा मोदी जी में अटूट विश्वास है। मैंने कार्यकर्ताओं की नब्ज टटोलनी शुरू की और कार्यकर्ता के द्वार चाय पीने का कार्यक्रम शुरू किया। इसके बाद जो नतीजा आया वह सबके सामने है।
आम लोगों से जुडऩे के लिए किस तरह की रणनीति पर काम करना शुरू किया?
दिसंबर 2016 की रात को मैंने झुग्गी बस्ती में बिताने का फैसला लिया। टोडापुर की गैस गोदाम बस्ती में जाकर लोगों की जिंदगी के बारे में बारीकी से जाना। लोग पानी के लिए परेशान नजर आए। वे बिल का भुगतान करना चाहते हैं लेकिन पानी की समस्या से जूझते मिले, जिससे केजरीवाल की मुक्रत बिजली-पानी की सच्चाई भी उजागर हो गई। किसानों को कमर्शियल बिजली दी जा रही है और उनका किसान का स्टेटस खत्म कर दिया गया। बस पकड़ ली नब्ज और यहीं से जमीनी स्तर से जुडऩे की रणनीति मिल गई।
पार्षदों को टिकट न देने का फैसला लिया?
जब झुग्गियों में घूमना शुरू किया तो हर जगह बड़ी खराब छवि थी पार्षदों की। वह भ्रष्टाचार की जानकारी तो नहीं दे पाते थे लेकिन बार-बार पार्षदों के अति करने की बात करते रहे। बेहतर काम का भी जिक्र करते थे लेकिन लोगों में पार्षदों की छवि को लेकर एक परसेप्शन था। सभी को बदलना भी बड़ी चुनौती थी। सबका मानना था कि आखिर बिल्ली के गले में कौन घंटी बांधेगा। इस मुद्दे को शीर्ष नेतृत्व को विश्वास में लिया और आम सहमति बनने के बाद यह फैसला हुआ।
आंदोलन से खड़ी पार्टी का राजनीति में क्या भविष्य मानते हैं?
आंदोलन के जरिए खड़ी होने वाली पार्टी का क्या स्कोप है यह केजरीवाल ने खत्म कर दिया है। यह ऐसे लोगों के लिए सेटबैक ही होगा। कुछ लोग समाज में नया करने की कोशिश करेंगे भी तो इस तरह के कदम के लिए आप का हश्र देखकर हिम्मत नहीं कर पाएंगे।
राज्य चुनाव नतीजों का क्या एमसीडी नतीजों पर कोई असर देखते हैं?
राज्यों के चुनाव नतीजों का एमसीडी नतीजों पर सकारात्मक असर पड़ा। एक ओर आप का गिरता ग्राफ और दूसरी ओर तीन साल में केंद्र सरकार के कामकाज का सकारात्मक प्रभाव। इसके साथ गोवा व पंजाब में आप की हार। इन सबने लोगों के मन में असर डाला और लोगों ने इसी आधार पर निगम चुनाव में भाजपा को जीत दिलाने में खासी भूमिका निभाई।
आपका एमसीडी का एजेंडा क्या है?
भाजपा का पहला एजेंडा स्वच्छता का है जो मोदी जी का सपना है और निगम का प्राथमिक काम भी है। चार माह में दिल्ली को कूड़ा मुक्त कर देंगे। इस बात की कोशिश होगी कि कूड़ा समय से एकत्रित हो और कहीं खुले में कूड़ा पड़ा है तो समय से उठे या उसे ढका जाए। इसके साथ ही आगामी समय मच्छरों का होगा और बीमारियां फैलने का खतरा रहेगा। इसके लिए दवाओं का छिडक़ाव कराया जाएगा ताकि लोग बीमार न हों। मलेरिया व डेंगू से बचाव के कदम उठाए जाएंगे।
क्या तीनों निगमों को एक करने की तैयारी है?
मौटे तौर पर भाजपा इसके पक्ष में है ताकि तीनों निगमों के बीच आर्थिक असंतुलन को कम किया जा सके लेकिन इसमें थोड़ा समय लग सकता है। पहले लोगों की समस्याएं दूर करने को प्राथमिकता देंगे।