दिल्ली भारत की राजधानी होने के कारण देश की राजनीति में हमेशा से एक बड़ा प्रभाव पैदा करती रही है। इधर छह वर्षों में दिल्ली ने जन आंदोलनों में एक केंद्रीय भूमिका निभाकर देश का ही नहीं बल्कि दुनिया का भी ध्यान खींचा है। लेकिन पिछले तीन वर्षों में दिल्ली के मतदाताओं ने तीन चुनावों को अलग-अलग तरीकों से जनादेश देकर लोकतंत्र के पंडितों के लिए भी एक तरह का रहस्य पैदा कर दिया है। अब दिल्ली नगर निगम चुनाव के नतीजे सामने हैं, तीनों नगर निगमों पर भाजपा के प्रबल बहुमत के साथ उसका दस साल पुराना कब्जा बरकरार रहा। वहीं विधानसभा में 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी (आप) एक चौथाई वोट और 18 फीसदी सीटों पर सिमट गई। कांग्रेस की स्थिति तीसरे नंबर की पार्टी के रूप में बेहतर दिखती है, ञ्चयोंकि मतों में उसकी हिस्सेदारी आप से कुछ ही कम रही है।
यह सब कैसे हुआ? इसका मूल प्रश्न आप के पराभव को लेकर है।
क्या दिल्ली का मतदाता आप से मोहभंग का शिकार हो चुका है? या आप के नायक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की मानें तो मतदाताओं के भी ऊपर मशीन की घुसपैठ हुई है और इस चुनाव में चुनाव आयोग ने भाजपा के पलड़े को षडयंत्र कर के झुका दिया है।
चुनाव में मतदान के त्वरित और दीर्घकालिक दोनों कारण होते हैं। दिल्ली में जिस तरह की जनचेतना का निर्माण हुआ है, उसमें दलों के दायरे से ऊपर धनबल, बाहुबल, जातिवाद, संप्रदायवाद के घरौंदे से बाहर मतदान के नए आधार सामने आए हैं। इसमें सुशासन और विकास का दोहरा आग्रह दिखाई पड़ता है।
आप ने अपने दिल्ली सरकार के पहले दो वर्ष में पानी और बिजली के सवाल पर कम आमदनी वाले मतदाताओं के पक्ष में उल्लेखनीय सुधार करके अपनी पारी शुरू की। लेकिन इनके शासन का दूसरा वर्ष दिल्ली की इन प्राथमिकताओं से दूर रहा। शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर जो भी दावे किए गए हों, लेकिन आम नागरिक को कोई फर्क ढूंढ़े नहीं मिलता है। मोहल्ला क्लीनिक की शुरुआत ने देश ही नहीं दुनिया में जिज्ञासा पैदा की लेकिन दिल्ली के पौने दो करोड़ निवासियों के लिए इसका कोई विस्तार दिखाई नहीं पड़ा। लोकतंत्र में एक बार जब उम्मीदें जगा दी जाती हैं तब उसको जल्दी से जल्दी पूरा कर देने में ही सरकारों की खैर है वर्ना मतदाता विकल्पों की तलाश में जुट जाता है। दिल्ली की आबादी के बारे में एक तरह की उदासीनता नगर निगम तंत्र के मुख्य ध्रुवों में रही है। इसलिए आप को आशा थी कि सफाई और स्वास्थ्य व्यवस्था की अराजकता को झेल रही दिल्ली की जनता को बेहतर विकल्प दिए जाएं तो गपमारी विज्ञापनों, आसमानी होर्डिंगों के जरिए वह मतदाताओं की निगाह में ऊपर आ जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ।
वहीं भाजपा ने दिल्ली नगर निगम चुनाव में सही दांव लगाते हुए सभी पुराने पार्षदों का टिकट काट दिया। पर, आप अपने बेलगाम हो चुके विधायकों की हरकतों की अनदेखी करती रही। यही वजह है कि विधानसभा में महाविजय के बाद जनता के साथ किए गए वादों की अनदेखी करने का दंड मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को दिया। फिर भी यह अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि आप का समापन सत्र शुरू हो गया है क्योंकि इसके वोटों का अनुपात एक चौथाई से ज्यादा है। यह मतदाताओं की तरफ से एक तरह का अवमूल्यन आदेश है।
आम आदमी पार्टी के लिए ज्यादा गंभीर समस्या उनकी सरकार और संगठन को चला रहे लोग और उनके तौर-तरीके हैं। आप एक वैकल्पिक लोकतंत्र की रचना करने वाली वैकल्पिक राजनीति की संतान है। आप ने संगठन और अरविंद सरकार के रूप में लोगों की आशाओं के विपरीत चालू तौर-तरीके को अपनाया। चुनाव जीतने के बाद राजनीतिज्ञों से यह आशा की जाती रही है कि वह सहज, सरल और सेवा के प्रतीक बनें लेकिन अरविंद केजरीवाल से असहज आचरण की शुरुआत हुई। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे भारत के प्रधानमंत्री और बड़े राज्यों के मुख्यमंत्री से भी दुर्लभ पुरुष बन गए। विनम्रता की जगह अहंकार के किस्से चारों तरफ सुनाई पड़ने लगे। उनकी देखादेखी उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों का आचरण खेदजनक रहा है। कई मंत्रियों को तो मिथ्या आचरण, भ्रष्टाचार और दुराचार के आरोपों में कुर्सी गंवानी पड़ी है। ऐसे सभी सहयोगियों को संगठन तथा अपने सलाहकार मंडल में बनाए रखना केजरीवाल का महादोष माना जाएगा। जहां एक तरफ ढाई साल पहले इनके चुनाव चिह्न के ही भरोसे लोगों ने जाने-अनजाने में उन्हें सर आंखों पर बैठाया। वहीं अब चालीसों उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई है। यह इंगित करना अनुचित नहीं होगा कि मतदाताओं ने आप से एक वैकल्पिक राजनीति की दिशा में सदाचारी जमात के रूप में समर्पित समाज सेवकों की अपेक्षा की थी लेकिन सत्ता के नशे में चूर होते देख मंत्री और विधायकों से उनका मोहभंग होना अस्वाभाविक नहीं है।
एक कमी यह भी रही कि आप ने सरकार बन जाने के बाद संगठन की जरूरत को अप्रासंगिक मान लिया। संगठन की जगह सरकारी नौकरशाहों ने ले ली, इसीलिए आज आप के पास 2013-14 और 2015 वाली स्वयंसेवक शक्ति का भी अभाव है। जहां पहले तीन चुनावों में देश भर की शक्ति दिल्ली के नुक्कड़ और चौराहों पर झाड़ू लेकर फैल गई थी वहीं उसे इस चुनाव में लोगों को भाड़े के मजदूर की तरह लेना पड़ा। आप का सिद्धांतों की बजाय कामचलाऊ कार्यक्रमों की तरफ ज्यादा झुकाव रहा है। यह मान लिया गया कि सैद्धांतिक तौर पर ज्यादा सिर न खपाया जाए ञ्चयोंकि जनता ऐसे पहलुओं पर ध्यान नहीं देती। आप का सौभाग्य और दीर्घकालिक दुर्भाग्य रहा है कि उसे बिना सिद्धांत और संगठन शक्ति के निरंकुश सत्ता पाने का अवसर मिल गया। शुरुआती दौर में इन पर कुछ ठोस पहल करने के आग्रह करने वालों को वोट से मिले जनादेश के बल पर संगठन से बाहर का रास्ता दिखाने में सफलता पाने से यह बीमारी और गहरी हो गई। पिछले ढाई साल में आप और इसकी दिल्ली सरकार की लगाम एक छोटे से आत्ममुग्ध समूह के हाथ में रही है।
लोकतंत्र में हार-जीत के ऊपर नैतिकता की एक रेखा होती है। लोग अपने नायकों के ऊपर स्थापित व्यक्तियों और जमातों की सूक्ष्म निगरानी करते हैं। आप ‘अब न खाता न बही, जो नेता जी कहें वह सही’ वाले अंदाज में चलती रही है और लोगों ने इसे पसंद नहीं किया है, इसीलिए पंजाब से लेकर पटपड़गंज तक अस्वीकार्यता का आदेश आया है। अभी भी देर नहीं हुई ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा, क्योंकि बाकी पार्टियों की तरह आम आदमी पार्टी में भी आत्ममंथन की गुंजाइश है। छोटी पार्टी है और सरकार का ढाई वर्ष का कार्यकाल शेष है। इसलिए जनता के गुस्से के चलते अगर सिद्धांत और संगठन से जुड़े अभाव की तरफ निगाह डाली जाए तो दिल्ली के राजनीतिक इतिहास में अपनी जगह को बचाए रखने की गुंजाइश पैदा हो सकती है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस समय जो दोष आम आदमी पार्टी ने गुण के रूप में अपनाए हैं उससे छुटकारा पाने के लिए वह सक्षम है, अभी तो ऐसे संकेत नहीं दिख रहे हैं।
(लेखक आप की राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य रहे हैं और स्वराज इंडिया के नेता हैं)