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योगी वादों की कीमत भारी

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ताबड़तोड़ फैसले सरकारी खजाने को कर सकते हैं खाली
फैसलों में समय नहीं गंवाना चाहते योगी, लेक‌िन बजट होगा बड़ा इम्तेहान

करीब डेढ़ दशक बाद उत्तर प्रदेश की सत्ता में लौटी भारतीय जनता पार्टी की सरकार योगी आदित्यनाथ के नेृतत्व में नए-नए फैसलों को लेकर चर्चाओं में है। ‘केंद्र में मोदी, यूपी में योगी’  का नारा साकार होने के बाद ऐसा लग रहा है कि योगी पार्टी के एजेंडे को लागू करने और चुनावी वादों को पूरा करने में एक मिनट भी नहीं गंवाना चाहते हैं। लेकिन किसानों की कर्ज माफी से लेकर 24 घंटे बिजली मुहैया कराने जैसे बड़े फैसलों के लिए सरकारी खजाने को भी बड़ी कीमत चुकानी होगी।

योगी सरकार के अब तक के फैसलों पर नजर डालें तो अकेले फसल कर्ज की माफी पर करीब 36 हजार करोड़ रुपये का खर्च आएगा। इसके लिए राज्य मंत्रिमंडल ने किसान राहत बॉण्ड जारी कर पैसा जुटाने का निर्णय लिया है। इस प्रकार बाजार के जरिए राज्य सरकार फंड तो जुटा लेगी, लेकिन यह पैसा ब्याज समेत लौटाना होगा। इस मामले में उन्हें केंद्र सरकार से शायद ही कोई मदद मिले। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली पहले ही कह चुके हैं कि किसानों की कर्ज माफी राज्य सरकारों को अपने बूते करनी होगी, इस मामले में वह कोई मदद नहीं करेंगे।

अगर मौजूदा यूपी के वित्त वर्ष के बजट में गौर करें तो 2017-18 में 3,63,744 करोड़ रुपये के खर्च के मुकाबले टैक्स के जरिए 2,21,235 करोड़ रुपये की कमाई का अनुमान लगाया गया है। विधानसभा चुनाव की वजह से दिसंबर, 2016 में अखिलेश यादव की सरकार ने अंतरिम बजट पेश किया था, जिसमें सिर्फ पांच महीने (अप्रैल-अगस्त 2017) के खर्च का प्रावधान है। अब नई सरकार को नए सिरे से पूरे साल का बजट तैयार करना है। यहीं योगी सरकार की बड़ी परीक्षा होगी।

अखिलेश सरकार में यूपी के कैबिनेट मंत्री रहे अखिलेश मिश्रा कहते हैं कि इस साल योगी सरकार को कम से कम 3.75 लाख करोड़ रुपये का बजट पेश करना चाहिए। ताकि अपने वादों को पूरा करने के लिए राज्य सरकार के सामने धन की कमी न आए। कर संग्रह पर विमुद्रीकरण के असर को भी ध्यान में रखना होगा। सरकार को राजस्व संग्रह और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए संसाधनों के आवंटन पर खास ध्यान देना होगा। 

फसल कर्ज माफी के अलावा कई अन्य घोषणाएं भी यूपी सरकार के वित्तीय प्रबंधन का गणित बिगाड़ सकती हैं। मिसाल के तौर पर, करीब 63 हजार करोड़ रुपये के घाटे में डूबी बिजली कंपनियों को दो साल के भीतर हरेक परिवार को 24 घंटे बिजली मुहैया करानी है। कॉलेज में दाखिला लेने वाले सभी छात्रों को फ्री लैपटॉप और इंटरनेट, माध्यमिक स्तर तक सभी लड़कों और कॉलेज स्तर तक सभी लड़कियों को नि:शुल्क शिक्षा, असंगठित क्षेत्र के कामगारों को दो लाख का फ्री बीमा, बीपीएल परिवारों को नि:शुल्क बिजली और विधवा पेंशन बढ़ाकर एक हजार रुपये प्रतिमाह करने जैसे फैसले सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ाएंगे, जिसकी हालत पहले ही खस्ता हो चुकी है।

योगी सरकार के दावों पर तंज कसते हुए कांग्रेस के पूर्व विधायक अखिलेश प्रताप सिंह कहते हैं कि यह सरकार झूठ परोसने और लोगों को ठगने में उस्ताद है। चुनाव से पहले किसानों की कर्ज माफी का वादा किया गया था, लेकिन सिर्फ फसल कर्ज माफ करने का ऐलान हुआ है। यानी करीब 92 हजार करोड़ रुपये के कृषि ऋण के बजाय 36 हजार करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया जाएगा। यह पैसा भी सरकारी खजाने से खर्च करने के बजाय बॉण्ड के जरिए जुटाया जा रहा है। इसी तरह उन्होंने यांत्रिक बूचड़खानों को बंद करने का वादा किया था, लेकिन ऐसे सभी बूचड़खने धड़ल्ले से चल रहे हैं। गन्ना किसानों का बकाया भी चार हजार करोड़ रुपये से ऊपर पहुंच गया है। इससे साबित होता है कि यह सरकार पूंजीपतियों से मिली हुई है।

 खजाने की हालत

यूपी की माली हालत पर गौर करें तो पता चलता है कि अखिलेश यादव के राज में सूबे का वित्तीय घाटा लगातार बढ़ता गया। दरअसल, सपा सरकार अपनी प्रमुख योजनाओं को अमलीजामा पहनाने में पैसे की कमी आड़े नहीं आने देना चाहती थी। जबकि इस दौरान प्राइवेट सेक्टर से कोई खास मदद नहीं मिली। आगरा-लखनऊ एक्सप्रेसवे का पूरा खर्च सरकार ने उठाया, प्राइवेट सेक्टर का इसमें एक पैसे का निवेश नहीं था। कन्या विद्या धन, फ्री लैपटॉप, बेरोजगारी भत्ते और पेंशन योजनाओं का बोझ भी सरकारी खजाने पर ही पड़ा। नतीजा, सपा शासन के पांच वर्षों में वित्तीय घाटा बढक़र लगभग दोगुना हो गया।

अगर थोड़ा पीछे जाएं तो मायावती सरकार के शुरुआती दो वर्षों में वित्तीय घाटा बढ़ने के बाद काबू में आने लगा था। इसकी एक वजह उस दौर में यमुना एक्सप्रेसवे जैसी अहम परियोजनाओं में प्राइवेट सेक्टर की बड़ी भागीदारी थी। इसके अलावा मायावती सरकार ने घाटे में चल रही चीनी मिलों जैसे कई सरकारी उपक्रमों को बेच दिया था। इससे न सिर्फ सरकार को कमाई हुई बल्कि घाटे में चल रही फैक्ट्रियों पर होने वाला खर्च भी बचा। जबकि अखिलेश राज में इसका ठीक उलटा हुआ। उन्होंने वित्तीय घाटे को राज्य की जीडीपी के 3 फीसदी के अंदर सीमित रखने का वादा किया था, जो 2015-16 में 5 फीसदी तक पहुंच गया।

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को मिली करारी हार के बाद तो यूपी का वित्तीय घाटा तेजी से बढ़ा। क्योंकि 2017 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मतदाताओं को लुभाने के लिए सपा ने अपनी सरकार से बेतहाशा खर्च कराया। हालांकि, वित्तीय मजबूरियों के चलते अखिलेश यादव को अपनी कई शुरुआती योजनाएं बंद करनी पड़ीं या फिर उनके खर्च में कटौती की गई।

योगी की चुनौतियां

अब योगी सरकार के सामने राज्य की वित्तीय स्थिति को संभालते हुए अपने वादों पर खरा उतरने की चुनौती है। सातवें वेतन आयोग की वजह से राज्य सरकार का वेतन व पेंशन पर होने वाला खर्च 12 फीसदी से ज्यादा बढ़ गया है। इन सिफारिशों को लागू करने के लिए करीब 28 करोड़ रुपये की अतिरिक्त धनराशि की जरूरत है। उल्लेखीय है कि यूपी में करीब 16.52 लाख सरकारी कर्मचारी और 10.50 लाख पेंशनभोगी हैं। आमदनी और खर्च के बीच संतुलन बनाने के लिए यूपी सरकार के तमाम महकमों को खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। पिछले महीने भर से योगी आदित्यनाथ के सामने प्रेजेंटेशन देने वाले आला अधिकारियों लाइन लगी रहती है।

यूपी सरकार के वित्त विभाग में कार्यरत एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि विभिन्न महकमों के आला अधिकारियों को उनसे संबंधित भाजपा की चुनावी घोषणाओं की पहचान करने के लिए कहा जा चुका है। इस बाबत सभी विभागों के सचिवों, प्रमुख सचिवों और अतिरिक्त मुख्य सचिवों को एक दस्तावेज भी भेजा गया है। वित्त सचिव मुकेश  मित्तल की ओर से 10 अप्रैल, 2017 को जारी इस पत्र के मुताबिक,  ‘सरकार की प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए 2017-2018 के सालाना बजट के लिए विभाग के मंत्री/मुख्यमंत्री के स्वीकृत अपने प्रस्ताव 30 अप्रैल, 2017 तक भेजिए।’

मोदी से मदद

इसमें दो राय नहीं कि ‘केंद्र में मोदी और यूपी में योगी’  का होना उत्तर प्रदेश के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। भाजपा 2019 में भी 2014 वाली कामयाबी दोहराना चाहेगी। अस्सी में से 71 सीटें भाजपा और दो सीटें उसके सहयोगी अपना दल के खाते में डालने वाले उत्तर प्रदेश की अनदेखी का जोखिम मोदी सरकार भी नहीं उठाना चाहेगी। इसलिए जानकारों का मानना है कि यूपी सरकार को विभिन्न मदों में केंद्र से अतिरिक्त फंडिंग मिल सकती है।

यही कारण है कि मुख्यमंत्री योगी और उनके मंत्रियों ने अपने-अपने विभागों के आला अधिकारियों को केंद्र से मिलने वाली फंडिंग की संभावनाएं तलाशने के काम में लगा दिया है। योगी सरकार के सत्ता में आने के बाद राज्य विधानसभा का पहला सत्र 15 मई से शुरू होगा और सप्ताह भर चलेगा। चूंकि केंद्र सरकार अपना बजट पेश कर चुकी है, इसलिए विभिन्न केंद्रीय योजनाओं के तहत यूपी को मिलने वाले फंड के इस्तेमाल के लिए राज्य सरकार पहले ही कमर कस चुकी है। अतिरिक्त मुख्य सचिव अनूप चंद्र पांडे ने पिछले महीने इस बाबत एक पत्र सभी विभागों को भेजा है।

 योगी से चमत्कार की उम्मीद

मायावती के शासन में अहम जिम्मेदारियां संभालने वाले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव अतुल कुमार गुप्ता कहते हैं कि अपने एजेंडे को अमलीजामा पहनाने के लिए योगी सरकार को प्रशासनिक और वित्तीय मोर्चों पर खरा उतरना होगा। इनमें प्रशासनिक मामला उतना मुश्किल नहीं है क्योंकि इसके लिए अहम पदों पर सही अधिकारियों को नियुक्त करने की जरूरत है और राजनैतिक इच्छाशक्ति से यह संभव है। वित्त से जुड़ा पहलू थोड़ा जटिल है। हालांकि, यह भी असंभव नहीं है। इसके लिए कुशल नियोजन और मौजूदा संसाधनों की बर्बादी को रोकना पड़ेगा।

गुप्ता के मुताबिक, वास्तव में चुनावी वादों को पूरा करना मुश्किल नहीं है। बशर्ते इसके पीछे कोई छिपी मंशा या गलत एजेंडा न हो और शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व लक्ष्यों को लेकर लचीला रुख अपनाए। राज्य सरकर अगर कोशिश करे तो सरकार और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के जरिए काफी पैसा बचा सकती है। मगर इसके लिए पीपीपी के बेहतर तरीके निकालने होंगे। इस तरह हुई बचत का इस्तेमाल सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में कर सकती है। इसके अलावा खर्च के बोझ को विभाजित करने के लिए बड़ी योजनाओं के खर्च को एक से ज्यादा वर्षों में बांटना भी एक उपाय है।

 मानसून और जीएसटी का सहारा

अपने एजेंडे को लागू करने में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अच्छे मानसून और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) से मदद मिली सकती है। जीएसटी लागू होने से राज्य का कर संग्रह बढ़ेगा क्योंकि यूपी मूलत: सेवाओं और वस्तुओं का उपभोग करने वाला राज्य है। मौसम विभाग ने भी इस साल मानसून तकरीबन सामान्य रहने की उम्मीद जताई है। कृषि पैदावार अच्छी रही तो सूबे की समूची अर्थव्यवस्था को इसका लाभ मिलेगा जिससे सरकारी राजस्व भी बढ़ेगा। जहां एक ओर बड़ी-बड़ी घोषणाओं के लिए फंड की चिंता है, वहीं राज्य सरकार के कई महकमे अपना पूरा बजट खर्च भी नहीं कर पाते। बजट आवंटन का पूरा फायदा उठाने के लिए बरसों से चली आ रही इस परंपरा को भी बदलना होगा।        

 गेहूं खरीद भी लक्ष्य से दूर

योगी सरकार ने इस रबी मार्केटिंग सीजन में 80 लाख टन गेहूं खरीदने का ऐलान किया है। जबकि इस साल राज्य में 340 लाख टन गेहूं उत्पादन होने का अनुमान है। जमीनी हकीकत यह है कि राज्य की विभिन्न एजेंसियों ने पांच हजार खरीद केंद्रों पर अभी तक केवल सात लाख टन गेहूं की खरीद की है। खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग के मुख्य विपणन अधिकारी एके सिंह ने बताया कि आने वाले सप्ताह में खरीद में तेजी आने की उम्मीद है। गेहूं के भंडारण की व्यवस्था में कोई कमी नहीं है।

सिर्फ एक फीसदी आलू खरीद

योगी सरकार ने इस वर्ष आलू के रिकार्ड 155 लाख टन उत्पादन में से केवल एक लाख टन सरकारी खरीद करने की घोषणा की है। इसका अर्थ यह है कि आलू उत्पादक किसानों को अपनी 99 प्रतिशत फसल खुले बाजार में बेचनी पड़ेगी। यूपी के आलू किसानों को मिल रहे भाव और आम उपभोञ्चता को बाजार में मिल रहे आलू की खुदरा कीमतों में भारी अंतर है। कृषि मंडियों में आलू का भाव 300 से 680 रुपये प्रति क्विंटल है जबकि खुदरा बाजार में आलू 10 से 14 रुपये प्रति किलो अर्थात 1000 रुपये से 1400 रुपये प्रति क्विंटल के भाव पर बिक रहा है।

गन्ना किसानों का 4000 करोड़ बकाया

यूपी के गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर 4000 करोड़ रुपये से अधिक का बकाया है। मुख्यमंत्री ने चीनी मिलों को 23 अप्रैल तक बकाया भुगतान का अल्टीमेटम दिया था। इस बार अधिक गन्ने की पेराई होगी और गन्ने का मूल्य अधिक होने के कारण इस सीजन में गन्ना किसानों को लगभग 26,000 करोड़ रुपये के भुगतान की उम्मीद है। पिछले कई महीनों से चीनी के दाम मजबूत बने हुए हैं। जिससे चीनी मिलों को फायदा हो रहा है। लेकिन किसानों को फसल का दाम पाने के लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा। अब सरकार ने चीनी मिलों को तुरंत भुगतान या बकाया पर 15 फीसदी ब्याज देने की चेतावनी दी है।

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