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न साथ भा रहा, न सूझ रही राह

करारी हार के बाद समाजवादी पार्टी ने नहीं लिया सबक, फिर उभरीं अखिलेश-शिवपाल की रंजिशें
सपा के कार्यक्रम में अख‌िलेश, मुलायम और श‌िवपाल

लखनऊ में समाजवादी पार्टी के मुख्यालय विक्रमादित्य मार्ग पर सन्नाटा छाया हुआ है। यह वही जगह है जहां कुछ महीने पहले तक भारी गहमा-गहमी रहती थी। गेट पर कुछ सिपाही जरूर हैं, पर वे किसी को रोक-टोक नहीं रहे हैं। इसकी वजह साफ है। सपा कार्यकर्ता हार से हतोत्साहित हैं। पार्टी के आधार स्तंभ रहे मुलायम सिंह यादव यहां से कुछ दूरी पर रहते हैं, पर उन्होंने चुप्पी साध रखी है। इसके बाद भी उनके समर्थकों को उम्मीद है कि वे जरूर सक्रिय होंगे। उनके एक बड़े समर्थक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि शिवपाल यादव जिस नए मोर्चे की बात कर रहे हैं, उसे मुलायम सिंह का समर्थन हासिल है। वह कहते हैं, 'नेताजी पार्टी में चल रहे घटनाक्रम से व्यथित हैं। भले ही वे कोई फैसला नहीं ले रहे हैं, लेकिन वे पार्टी में एकता चाहते हैं। इन सबके बीच सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि अखिलेश ने नेताजी से मिलना बंद कर दिया है।’

25 साल पुरानी समाजवादी पार्टी की अभी जो स्थिति है, उसमें हर नेता अपने विरोधी पर हमलावर है। हमलावर ही नहीं बल्कि विरोधी को अधिकतम चोट पहुंचाने की हसरत रखता है। पार्टी साफ तौर पर दो गुटों में बंट गई है। एक की कमान राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा प्रमुख अखिलेश यादव के पास है, तो दूसरे की उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव के हाथ में है। शिवपाल ने सेक्युलर सोशलिस्ट फ्रंट (एसएसएफ) के नाम से धर्मनिरपेक्ष और समान विचार वाली पार्टियों का गठजोड़ बनाने का भी ऐलान कर दिया है। इसकी घोषणा मुलायम और शिवपाल की एक रिश्तेदार के इटावा स्थित घर पर हुई मुलाकात के बाद की गई। शिवपाल का मानना है कि अखिलेश को अपने वादे के अनुसार पार्टी अध्यक्ष का पद मुलायम सिंह के लिए छोड़ देना चाहिए। हालांकि अखिलेश ने इस पर काफी ठंडा रुख रखा है। ऐसे में यह नहीं लगता कि दोनों गुट निकट भविष्य में साथ आने जा रहे हैं। यह दरार इतनी ज्यादा बढ़ चुकी है कि इसे पाटना आसान नहीं लगता।

अखिलेश के दूसरे चाचा रामगोपाल यादव उनके साथ खड़े हैं। उनके मुताबिक पार्टी का संविधान ऐसा है कि चाहते हुए भी अखिलेश अध्यक्ष का पद न तो छोड़ सकते हैं और न ही इस पद के लिए किसी को नामांकित कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि शिवपाल तो पार्टी में अपनी सदस्यता का नवीनीकरण तक नहीं करा पाए हैं।

दूसरी ओर पार्टी के बुद्धिजीवी सेल के अध्यक्ष पद से हाल ही में हटाए गए दीपक मिश्रा कहते हैं, 'हमें उम्मीद है, पार्टी में फिर से एकता आएगी।’ उनके अनुसार टीम अखिलेश के तीन सदस्य किरणमय नंदा, सासंद नरेश अग्रवाल और पार्टी प्रवञ्चता राजेंद्र चौधरी अखिलेश यादव को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। मिश्रा इन्हें समाजवादी नहीं बल्कि चाटुकार बता रहे हैं। मुलायम के छोटे बेटे प्रतीक की पत्नी अपर्णा भी अखिलेश से अनुरोध करती हैं कि वे अध्यक्ष का पद नेताजी के लिए छोड़ दें। अपर्णा ने लखनऊ कैंट विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा था। वह किसी का नाम तो नहीं लेतीं पर कहती हैं कि उनकी हार के पीछे सपा नेताओं का षडयंत्र था। जसवंतनगर से जीत हासिल करने वाले शिवपाल भी कहते हैं कि उन्हें हराने के लिए पैसा और मसल पावर का इस्तेमाल किया गया था। शिवपाल को लगता है कि यदि सपा की कमान अखिलेश के हाथ में रहेगी और मुलायम की छवि धुंधली की जाएगी, तो स्वयं उनका राजनीतिक भविष्य चौपट हो जाएगा। इतना ही नहीं शिवपाल को अपने पुत्र आदित्य, जो उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव फेडरेशन (यूपीपीसीएफ) के चेयरमैन हैं, के भविष्य की भी चिंता है।

यूं तो सपा में वर्चस्व का संघर्ष काफी पहले से चल रहा था। पर 2014 लोकसभा चुनाव के बाद से ही बढ़ते-बढ़ते विधानसभा चुनाव के पहले तक यह चरम पर पहुंच गया। 2016 के साल के अंत में अखिलेश और शिवपाल की कटुता साफ दिखने लगी। इसका परिणाम एक जनवरी 2017 को सामने आया, जब मुलायम सिंह यादव को सपा के विशेष सम्मेलन में अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। इतना ही नहीं मुलायम के कई करीबियों, जिनमें नरेश अग्रवाल, राजेंद्र चौधरी, राम गोविंद चौधरी, अमर सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा किनारे लगा दिए गए। इसके अलावा चुनाव चिह्न 'साइकिल’ के लिए भी पार्टी के दोनों धड़े चुनाव आयोग तक पहुंच गए। आयोग ने अखिलेश गुट को असली माना। इन सब के बीच अखिलेश ने घोषणा कर डाली कि वे राज्य में चुनाव खत्म होने के बाद अध्यक्ष का पद मुलायम सिंह को सौंप देंगे। मगर जब राज्य में चुनाव हुए तो परिणाम सपा के लिए हैरान करने वाले थे। पिछली विधानसभा में उनके 225 विधायक थे जो इस बार घटकर 47 रह गए हैं।

अखिलेश जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तब यह ताना मारा जाता था कि राज्य में साढ़े चार मुख्यमंत्रियों का शासन है। ये थे मुलायम, आजम खान, शिवपाल, राम गोपाल और अखिलेश। यह अलग बात है कि 2012 में सपा को बहुमत मिला था तब तमाम विरोधों के बाद भी मुलायम ने अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाया था। हालांकि कई वरिष्ठ नेता चाहते थे कि मुख्यमंत्री मुलायम बने और अखिलेश उपमुख्यमंत्री। इसके बाद जब 2014 में लोकसभा चुनाव के परिणाम आए तब भी मुलायम अखिलेश के साथ खड़े रहे। लेकिन इसके बाद अखिलेश ने शिवपाल समर्थक कई नेताओं को बर्खास्त कर दिया।

अब, मुलायम को इस बात का आभास हो गया है कि अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाना उनकी भूल थी। उन्होंने कहा कि यह पद उन्हें अपने पास रखना चाहिए था। उन्होंने यह भी कहा उनके बेटे ने उस कांग्रेस से हाथ मिला लिया जो उन्हें राजनीतिक रूप से समाप्त करना चाहती थी। एक मौके पर तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कहा था कि अखिलेश ने उस कांग्रेस से हाथ मिला लिया जो 'नेताजी’ को मारना चाहती थी।

दूर करने की माया सियासत

2007 में 206 सीट जीत कर सत्ता हासिल करने वाली बहुजन समाज पार्टी की हालत तो और ज्यादा बुरी हो गई है। इस बार पार्टी के खाते में मात्र 19 सीटें आईं। इसके अलावा आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला सो अलग। अभी हाल ही में बसपा प्रमुख मायावती ने पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी को पार्टी से बाहर निकाला तो उन्होंने आरोपों की बौछार कर दी। उन्होंने न सिर्फ मायावती से अपनी जान को खतरा बताया बल्कि टिकट बेचने, मुसलमानों के लिए अपशब्द कहने जैसे आरोप भी मढ़ दिए। इससे पहले मायावती के खास रहे स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी पार्टी से हटाए जाने के बाद इसी तरह के आरोप लगाए थे और भाजपा का दामन थाम लिया था। मायावती चाहती हैं कि वह फिर से अपनी पार्टी को पुरानी स्थिति में ले जाएं। इसके लिए उन्होंने अपने छोटे भाई आनंद कुमार को पार्टी का उपाध्यक्ष भी बनाया है। लेकिन जो स्थिति है उसमें मायावती के अधिकांश पुराने साथी, सतीश चंद्र मिश्रा को छोडक़र, उनसे दूर जा चुके हैं। इसका कारण यह है कि मायावती ने कभी अपनी पार्टी में दूसरी पीढ़ी को उभरने का मौका ही नहीं दिया।

 

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