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अभी कसौटी बाकी है

आजकल
नरेन्द्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कामकाज का तरीका कुछ हद तक मिलता-जुलता है। इंदिरा गांधी ने 1971 और मोदी ने 2014 में भारी बहुमत से सत्ता हासिल की थी। इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था और बैंकों का नेशनलाइजेशन किया। यानी राष्ट्रवाद और गरीबी से उबारने की उम्मीद उनकी जीत के दो बड़े पहलू थे। नरेन्द्र मोदी 2014 में युवाओं को रोजगार, भ्रष्टाचार पर अंकुश और काफी हद तक राष्ट्रवाद को केंद्र में रखकर मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में कामयाब रहे थे।

एक मामले में मोदी इंदिरा गांधी से अलग हैं। इंदिरा गांधी की लोकप्रियता का ग्राफ दूसरे कार्यकाल के तीन साल बाद तेजी से गिरने लगा था। लेकिन नरेन्द्र मोदी ने हाल में भाजपा को उत्तर प्रदेश सहित कई दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत दिलाकर साबित किया है कि उनकी लोकप्रियता अभी बरकरार है।

हालांकि यह भी सही है कि 25 मई को तीन साल पूरे कर रही केंद्र की मोदी सरकार का अभी तक का प्रदर्शन मिलाजुला ही रहा है। इसलिए उसके बाकी के दो साल कड़ी कसौटी वाले साबित हो सकते हैं। सरकार पहले तीन साल में जमीनी स्तर पर खास उपलब्धियां नहीं दिखा पाई है। वैसे, आर्थिक विकास दर सात फीसदी से थोड़ी ऊपर रही और राजकोषीय संतुलन बेहतर रहा है। सरकार ने प्राकृतिक संसाधनों की बिक्री और आवंटन को ज्यादा पारदर्शी बनाया है, जिस मामले में पूर्व यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार के भारी-भरकम आरोप लगे थे। भ्रष्टाचार का कोई बड़ा आरोप भी इस सरकार पर नहीं लगा है। इसकी एक बड़ी वजह मोदी का बड़े फैसलों पर खुद का नियंत्रण रखना भी है। हालांकि शुरुआती दौर में भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने के फैसले और बड़े कारपोरेट समूहों पर बैंकों के भारी बकाया न लौटाने के मामले बढ़ने पर विपक्ष ने मोदी पर 'सूटबूट की सरकार’ का आरोप लगाया। इसके बाद 2015 में दिल्ली और बिहार में भाजपा की भारी हार हुई।

शायद यही वह झटका था जिसने मोदी के कामकाज का तरीका पूरी तरह बदल दिया। उन्होंने आर्थिक सुधारों पर लगभग ब्रेक लगा दिया। उसके बाद मोदी ने जो राजनैतिक रणनीति अपनाई, उसके केंद्र में भाजपा का परंपरागत मतदाता व्यापारी, कारोबारी और उच्च मध्य व नौकरीपेशा वर्ग न होकर समाज का कमजोर वर्ग आ गया। यही वजह है कि छह माह पहले उन्होंने डिमोनेटाइजेशन के जरिए सबसे बड़ा राजनीतिक दांव खेला जिसमें वे गरीबों के साथ खड़े दिखे। उन्होंने इस फैसले को कालेधन के खिलाफ जंग के साथ गरीब के कल्याण से भी जोड़ दिया। इसके साथ ही जनधन, उज्ज्वला और ग्रामीण इलाकों में गरीबों के लिए आवास योजना के कार्यक्रम भी उनके लिए फायदेमंद रहे। हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजे यह साबित करते हैं कि उनकी यह रणनीति कामयाब रही। लेकिन आगे का रास्ता अब भी आसान नहीं है।

अमेरिका, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की संरक्षणवादी नीतियों के चलते देश के आईटी सेक्टर की 45 लाख नौकरियां दांव पर हैं। देश में नए रोजगार अवसरों की गति बहुत धीमी है। फलत: देश में दुनिया की सबसे अधिक युवा आबादी अब फायदे के बदले नए संकट को न्योता दे रही है। मोदी सरकार के 'मेक इन इंडिया’, 'स्टार्टअप इंडिया’ और 'स्टैंडअप इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों की गूंज धीमी पड़ रही है। औद्योगिक विकास दर के साथ ही निवेश की दर कमजोर बनी हुई है। ये सभी रोजगार के नए अवसरों के सीमित होने के सबूत हैं। खाद्य महंगाई दर घटने का फायदा सरकार को मिला लेकिन फसलों की कम कीमतें और प्राकृतिक आपदाएं किसानों के लिए संकट बनी रहीं और देश में किसान आत्महत्याओं का दौर जारी है। 'अच्छे दिन’ लाने के वादे वाली सरकार ने अब 'देश बदल रहा है’ का नया नारा दिया है।

यही नहीं, गौरक्षक और 'एंटी रोमियो’ के नाम पर अतिसक्रिय युवकों का एक वर्ग नए किस्म की दहशत का वातावरण बना रहा है। जिस तरह देश के कई हिस्सों से सामुदायिक तनाव और अगड़ों तथा दलितों के बीच तनाव की चिंगारी दिखी है, ये संकेत अच्छे तो नहीं हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि बेरोजगारों की फौज को केवल नारों से संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। यह संकट इंदिरा गांधी को भी झेलना पड़ा था। 'देश बदल रहा है’ से मिलता-जुलता 'इंडिया शाइनिंग’ का नारा देने वाली एनडीए-1 की वाजपेयी सरकार को भी यह दांव उलटा पड़ा था। आने वाले दिनों में भाजपा शासित मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और छत्तीसगढ़ और कांग्रेस शासित कर्नाटक व हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव 2019 के आम चुनावों की दिशा काफी हद तक तय कर देंगे। हालांकि इस समय विपक्ष बिखरा हुआ है और मोदी की लोकप्रियता को टक्कर देने वाला कोई नेता नहीं है, उससे मोदी की राह आसान तो हो सकती है लेकिन चुनौती मुक्‍त रहेगी, कहना मुश्किल है।

 

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