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जो तीन साल में किया, वो बिलकुल सही

हमें ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिए कि कितने रोजगार पैदा हो रहे हैं, इसकी सही जानकारी किसी के पास नहीं है। कई मोर्चों पर काम की दरकार
अरव‌िंद सुब्रमण्यम

मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन का मानना है कि मोदी सरकार ने तीन साल में देश को आर्थिक स्थिरता प्रदान की है और सुधारों की दिशा में बड़े कदम बढ़ाए हैं। सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन में भ्रष्टाचार पर अंकुश और जैम व्यवस्था को वे मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धियां मानते हैं। लेकिन यह भी स्वीकार करते हैं कि तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद रोजगार के मौकों की रफ्तार धीमी है। उन्होंने अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति और केंद्र सरकार के तीन साल के कामकाज से जुड़े कई अहम मु्द्दों पर आउटलुक के संपादक हरवीर सिंह से बेबाक बातचीत की। कुछ अंश:

 

केंद्र सरकार के पहले तीन साल को आप कैसे आंकते हैं?

इसका जवाब बहुत आसान है। पहली बात, यह सरकार अर्थव्यवस्था में स्थायित्व लेकर आई है। दूसरे, सरकार ने सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया और भ्रष्टाचार को दूर किया। तीसरे, जनधन-आधार-मोबाइल (जैम) की जो व्यवस्था खड़ी की, वह बहुत बड़ा काम है। नंदन नीलेकणि का कहना है कि ‘‘अगर यह सरकार न आती तो 'आधार’ ठंडे बस्ते में जा चुका होता।’’ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यह सबसे बड़ी खूबी है कि वे सरकार की क्षमता को बेहतर करने के बारे में सोचते हैं। चौथी उपलब्धि जीएसटी है। मेरा मानना है कि इस सरकार की ये चार सबसे बड़ी उपलब्धियां हैं। एफडीआई का उदारीकरण भी एक बड़ा कदम है। एफडीआई में बढ़ोतरी के आंकड़े इसे साबित भी करते हैं।

 

इन चार उपलब्धियों के अलावा नोटबंदी को आप किस तरह देखते हैं? इससे असंगठित क्षेत्रों को भारी नुकसान होने की बातें कही जा रही हैं।

डिमॉनिटाइजेशन को मैं चार तरह से देखता हूं। पहला, असंगठित क्षेत्र को इसका बेशक नुकसान उठाना पड़ा लेकिन इस नुकसान का आकलन मुश्किल है। दूसरे, जीडीपी में भी इससे नुकसान हुआ। आर्थिक सर्वे में इस नुकसान का हमने जो आकलन किया और सीएसओ ने जो अनुमान लगाया, जीडीपी को हुआ वास्तविक नुकसान कहीं इन दोनों के बीच में है। तीसरे, मेरे लिए यह एक पहेली की तरह है। मेरा अनुमान था कि इससे जीडीपी दो फीसदी गिरेगी, लेकिन कैश की जबरदस्त कमी के बावजूद जिस तरीके से आर्थिक गतिविधियों में कमी नहीं आई, फसलों की बुवाई में कमी नहीं आई, उससे लगता है कि लोगों ने कैश की किल्लत का हल निकाल लिया था। चौथे, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उम्मीद के विपरीत यह कदम सरकार के लिए राजनैतिक रूप से बहुत कामयाब साबित हुआ। इसके अलावा डिमॉनिटाइजेशन से कैशलेस लेनदेन बढ़ा और टैक्स संग्रह के मोर्चे पर सरकार को बड़ी कामयाबी मिली। करदाताओं की संख्या में इजाफा इसका सबूत है।

 

मगर अर्थव्यवस्था की तेजी तो आंकड़ों में ही नजर आ रही है, यह रोजगार के अवसरों में दिखाई नहीं दे रही है। क्या सरकार के पास रोजगार पैदा करने की कोई रणनीति है?

मोटे तौर पर हम मान सकते हैं कि इकोनॉमी उस तादाद में रोजगार पैदा नहीं कर रही, जितनी जरूरत है। खासतौर पर बेहतर नौकरियों के मामले में किसी को अंदाजा नहीं कि कितनी नौकरियां आ रही हैं। यह भी सही है कि रोजगार भी बड़े पैमाने पर पैदा नहीं हो रहे हैं। इस मामले में हमें ईमानदारी से स्वीकार करना चाहिए कि कितने रोजगार पैदा हो रहे हैं, इसकी सही जानकारी किसी के पास नहीं है। समस्या का पता लगाना आसान होता है, उसका हल खोजने के बजाय। नौकरियों के लिए एक साथ कई मोर्चों पर काम करना होगा। सबसे पहले अर्थव्यवस्था में वृद्धि चाहिए। उसके लिए पब्लिक और प्राइवेट इन्वेस्टमेंट की जरूरत है। उसके बाद टेक्सटाइल, कृषि, निर्माण जैसे विभिन्न क्षेत्रों पर ध्यान देने की जरूरत है। फिर, सामाजिक सुरक्षा जैसी बात पर सोच सकते हैं। कोई एक उपाय कारगर नहीं हो सकता है, कई दिशा में काम करने की जरूरत है। सरकार उस दिशा में आगे बढ़ रही है। पब्लिक और प्राइवेट इन्वेस्टमेंट बढ़ा है। बैंकों के डूबते कर्ज की समस्या को हल करने की कोशिश की जा रही है। बजट में कई उद्योगों को बढ़ावा दिया गया। किसानों की आय बढ़ाने पर सरकार गंभीर है।

 

आजादी के बाद के पहले तीन दशक में नौकरियां सरकारी क्षेत्र से आईं। नौवें दशक से अब तक आईटी सेक्टर नौकरियां पैदा करने वाला प्रमुख क्षेत्र रहा लेकिन अब सरकारी नौकरियां तो नदारद हैं और आईटी सेक्टर भी सिकुड़ रहा है। कहां से आएंगी नौकरियां?

मैं नहीं मानता कि अकेला आईटी सेक्टर ही नौकरियां दे रहा है। निर्माण क्षेत्र में काफी नौकरियां आई हैं। असल में सभी क्षेत्रों में नौकरियां आनी चाहिए। किसी एक या दो क्षेत्र में ज्यादा नौकरियां आने से काम नहीं चलेगा।

 

कौशल विकास पर सरकार का खूब जोर है। क्या हमारे शिक्षण संस्थान कम खर्च में ऐसी शिक्षा या कौशल दे पा रहे हैं, जो रोजगार दिलवा सके?

असल में यह एक धारणा है कि हर नौकरी के लिए कौशल जरूरी है। 70 से 80 फीसदी हुनर तो लोग काम करते हुए हासिल करते हैं। मैं आईटी या बहुत टेक्निकल जॉब की बात नहीं कर रहा हूं। लेकिन छोटे स्तर की कई नौकरियों में स्पेशल स्किल की जरूरत नहीं है। यह बात भी सच है कि अगर आपको गार्ड या ड्राइवर की नौकरी भी चाहिए तो बुनियादी शिक्षा जरूरी है। मसलन, अगर ओडिशा के किसी व्यक्ति को मुंबई में गार्ड या ड्राइवर की नौकरी करनी है तो उसे बेसिक अंग्रेजी आनी चाहिए। इस तरह की और भी कई बुनियादी चीजें हैं। यहां हमारी प्राइमरी और सेकेंड्री एजुकेशन बुरी तरह नाकाम है। असल में देश में बेरोजगारी समस्या नहीं है, समस्या है बेहतर गुणवत्ता की नौकरियां। लोग काम तो कुछ न कुछ ढूंढ़ ही लेते हैं, लेकिन सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिहाज से बेहतर वेतन वाली नौकरियां होनी चाहिए, उसकी समस्या है।

पिछले बरसों में कंस्ट्रक्शन, इंफ्रास्ट्रक्चर और एग्रीकल्चर में काफी बूम आया था। उसके चलते ग्रामीण इलाकों में मजदूरी और नौकरियां भी पैदा हुईं। मेरा सवाल यह है कि राज्यों का विषय होने के बावजूद कोई राजनैतिक दल इस बात को मुद्दा क्यों नहीं बनाता कि हम ऐसी अच्छी शिक्षा देंगे, जिससे लोगों को रोजगार मिलेगा। इसके उलट ऐसे बड़े-बड़े प्रोजेक्ट के नाम पर वोट मांगे जाते हैं। इससे बहुत थोड़े से लोगों को उसका सीधा फायदा मिलता है।

 

आप चीन की अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ माने जाते हैं। चीन की 'वन बेल्ट, वन रोडरणनीति को आप किस तरह देखते हैं?

जहां तक मेरी समझ है। इसमें दो मूलभूत बातें हैं। पहला, चीन सुपरपावर बनना चाहता है। यह उसकी विदेश नीति का केंद्र बिंदु है। पहले उसने अफ्रीका पर फोकस किया। पूरे अफ्रीका में आपको चीन की छाप नजर आती है। अब वह एशिया पर फोकस कर रहा है। जहां तक 'वन बेल्ट, वन रोड’ की बात है, तो चीन इसके जरिए अपना निर्यात बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। जिस दौर में दुनिया में विकास दर गिर रही है और व्यापार घट रहा है, ऐसे में वह अपने संसाधनों के बूते निर्यात बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। यानी पहले आप लोगों को कर्ज देते हैं और फिर उन्हें अपना सामान बेचते हैं। इसे मैं मर्केंटलिज्म कहता हूं। पहले चरण में चीन ने खूब निर्यात किया और विदेशी मुद्रा कमाई। अब दूसरे चरण में चीन अपने माल के लिए अपने ही पैसे से विश्व में बाजार खड़ा कर रहा है। पहले दौर में चीन ने पांच खरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार खड़ा किया था, जो अब घटकर तीन खरब डॉलर से नीचे चला गया है। असल में चीन ने अपनी मु्द्रा को डॉलर की तरह रिजर्व करंसी बनाने की कोशिश की थी, इसके लिए उसने अपने बाजार को खोला लेकिन चीन की घटती विकास दर और बढ़ते जोखिम के चलते बड़े पैमाने पर विदेशी मुद्रा चीन से बाहर चली गई।

 

अगले दो साल में सरकार की क्या प्राथमिकता होनी चाहिए?

मेरा सुझाव है कि सरकार ने पिछले तीन साल में जिस तरह कदम उठाए हैं, उसे जारी रखे। और जो गलतियां अब तक नहीं की हैं, उनसे परहेज बरते।

सरकार किसानों की आमदनी को दोगुना करने का दावा कर रही है। यह कितना मुमकिन है? यह भी जुमला तो साबित नहीं होगा?

इस मामले में हमें सरकार की मंशा देखनी चाहिए। प्रधानमंत्री इस बात को लेकर बहुत गंभीर हैं कि किसानों की आमदनी दोगुनी होनी चाहिए।

भारत के जीडीपी आंकड़ों को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। इस मामले में क्या भारत की साख भी चीन की तरह कमजोर हो गई है?

ऐसा नहीं है। हमारे जीडीपी के आंकड़े सही हैं। चीन के आर्थिक आंकड़ों में राजनैतिक असर होता है। हमारे यहां उस तरह का कोई राजनैतिक प्रभाव नहीं है। हालांकि, हमारे आंकड़ों में कुछ खामियां हैं, लेकिन इन कमियों को सुधारा जा सकता है। 

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