आज से 160 वर्ष पहले 10 मई 1857 के दिन मेरठ छावनी में तैनात ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल आर्मी के हिंदुस्तानी सिपाहियों ने बगावत कर दी, अफसरों को मार गिराया, अपने 85 साथियों को जेल से आजाद करा लिया, जिन्हें चर्बी लगे कारतूस इस्तेमाल करने का हुक्म न मानने के अपराध में बंदी बना लिया गया था और दिल्ली के लिए कूच कर दिया। 11 मई की सुबह बागी दिल्ली पहुंच गए और आखिरी मुगल बादशाह को अपना सेनापति बना लिया। दिल्ली पर बागी सिपाहियों का कब्जा चार महीने चार दिन तक रहा। फिर बगावत बड़ी बेरहमी से कुचल दी गई।
ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल आर्मी के हिंदुस्तानी सिपाहियों में ब्राह्मण और क्षत्रिय सिपाहियों की संख्या सबसे अधिक थी। दूसरी हिंदू जातियों और मुसलमान सिपाहियों की संख्या 35 प्रतिशत से कम थी। इस फौज के सिपाहियों ने न सिर्फ 80 वर्ष की बूढ़ी उम्र में बहादुरशाह जफर से आजादी की इस लड़ाई की अगुआई करने को कहा, बल्कि जब बादशाह ने कहा कि न मेरे पास फौज है, न तनख्वाह देने के लिए पैसा तो सिपाहियों ने कहा कि बस हमारे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दे दीजिए।
मतलब यह कि वह सेना जिसके अधिकतर सिपाही ब्राह्मण और क्षत्रिय थे, उसे न तो बहादुरशाह जफर के अलावा कोई और नेता चाहिए था, न उन्हें बख्त खान को अपना प्रतिनिधि और प्रवक्ता बनाने में कोई परेशानी थी। पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास को सांप्रदायिक चश्मे से देखने वालों को शायद यह अच्छा न लगे, मगर सच्चाई यही है कि देश की आम जनता 1857 तक सांप्रदायिक द्वेष का शिकार नहीं हुई थी।
दरअसल धर्म आधारित द्वेष, कटुता और वैमनस्य का विमर्श जो आज हमारे सामने है, इसकी रूपरेखा 1857 के विद्रोह को कुचलने के बाद योजनाबद्ध ढंग से तैयार की गई। हम 'बांटो और राज करो’ की साम्राज्यवादी नीति का जिक्र तो अक्सर करते हैं मगर उसने किस तरह हमारी मानसिकता को दूषित किया है और कितने विकार उसने हमारे इतिहास बोध में दाखिल कर दिए हैं, शायद इसका एहसास हमें नहीं है। न हम इस बात की छानबीन ही करते हैं कि इस जहर के बीज कैसे बोए गए। 1857 के विद्रोह को कुचलने के साथ ही साम्रज्यवादियों ने यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि मुसलमान ही अंग्रेजी शासन के खिलाफ थे, योजनाबद्ध ढंग से मुसलमानों को दिल्ली से निकाला गया। इस दौर में दिल्ली में जो हो रहा था उसका उल्लेख हमें अलग-अलग स्रोतों से मिलता है। कुछ ब्योरा हमें गालिब के खतों में मिलता है, कुछ 1857 की तबाही के चश्मदीद गवाहों की यादों पर आधारित ख्वाजा हसन निजामी के लेखों में मिलता है। प्रोफेसर नारायणी गुप्ता की किताब 'डेल्ही बिटवीन द टू एम्पायर्स 1803-1931’ में संकलित आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं।
1857 के बाद के दशकों में जवान होने वाली पीढ़ियों में देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने का सपना देखने वाले यह समझ चुके थे कि गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए देशव्यापी आंदोलन खड़ा करना पड़ेगा, छुटपुट मुहिम के दम पर सफलता नहीं मिलेगी। 1857 के विद्रोह को जिस बेरहमी से कुचला गया था, उसकी यादें अभी ताजा थीं।
देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने के लिए बुनियादी आवश्यकता यह थी कि समूचे उप-महाद्वीप की जनता अपने आप को एक राष्ट्र का हिस्सा समझे और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने को तैयार हो। 1857 के विद्रोह के कुचले जाने की एक वजह यह भी थी कि उसमें समूचे देश की शिरकत नहीं थी। फौज में शुरू हुई बगावत को आम लोगों का समर्थन वहीं मिला, जहां के सामंत अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हो गए। जहां-जहां सामंतों ने अंग्रेजों के साथ पहले से ही समझौता कर लिया था या 1857 के आंदोलन के समय अंग्रेजों से जा मिले थे, वहां के किसानों और आम लोगों में विद्रोह का असर दिखाई नहीं पड़ा।
1857 के विद्रोह के प्रमुख केंद्र मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, बरेली, अलीगढ़, मथुरा, आगरा, शाहजहांपुर, फर्रुखाबाद, बिठूर, लखनऊ, इटावा, कानपुर, झांसी, फतेहपुर, इलाहाबाद, आजमगढ़, जौनपुर, बनारस, जबलपुर, इंदौर, नीमच, पेशावर, लाहौर, अमृतसर, जालंधर, लुधियाना, नसीरपुर, एरिनपुरा, अहमदाबाद, आरा, नागपुर, मुर्शिदाबाद, बहरामपुर और कलकत्ता थे। इनमें ज्यादातर इलाके मुख्य रूप से आज के उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के थे। हरियाणा में कुछ ज्यादा और पंजाब में कुछ कम असर रहा। इसके बाहर, कुछ छुट-पुट असर के इलाके महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात में भी थे।
देश में बुहत बड़ा इलाका वह था, जहां राजे-रजवाड़े, नवाब वगैरह अंग्रेजों के साथ थे। लिहाजा जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर, उदयपुर, अलवर, टोंक, भरतपुर, जम्मू, हिमाचल, गढ़वाल, हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर, बड़ौदा, जूनागढ़, रामपुर, ग्वालियर, भोपाल, कोचीन, कपूरथला, पटियाला, ढेंकानाल, सरायकेल्ला, कूचबिहार, राजकोट, भावनगर, सांगली, मिराज, कोल्हापुर और सैकड़ों दूसरे छोटे-बड़े राजा, नवाब, जमींदारों और ठिकानेदारों के इलाकों में विद्रोह का असर मामूली भी नहीं हुआ।
जो सामंत अंग्रेजों के खिलाफ थे। मसलन, 1857 से पहले के दौर में हैदर अली, टीपू सुल्तान, वेलु थंपी, रानी चेनम्मा और पोल्यगर विद्रोह में हिस्सा लेने वाले विद्रोही और 1857 में बहादुरशाह जफर, रानी लक्ष्मीबाई, नाना जी बिठूर, कुंवर सिंह, बिर्जीस कद्र और जीनत महल जैसों के वंशजों तक के नामो-निशान मिटा दिए गए। मगर अंग्रेजों का साथ देने वालों की संततियां आज भी मौजूद हैं, आज भी वंशज महाराजा और महारानी, श्रीमंत और राजमाता कहलाते हैं और आज भी राज कर रहे हैं।
1857 के फौरन बाद उन्हें वफादारी के पदक और पदवियां मिल रही थीं। आजादी के लिए लडऩे वालों की जो नई पीढ़ी परवान चढ़ रही थी, उसके सामने समस्या यह थी कि समूचे देश को एकसूत्र में बांधने का विमर्श कैसे शुरू किया जाए। मगर इस विमर्श की तलाश में जो नौजवान थे, वे देश, समाज, इतिहास और संस्कृति के बारे में परस्पर विरोधी नजरिया रखते थे। कुछ प्रतिगामी और सामंती विचारों के प्रभाव में थे तो कुछ औद्योगिक क्रांति के साथ उपजे जनतांत्रिक मूल्यों पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना के सपने देख रहे थे।
इन परस्पर विरोधी विचारों से जो विमर्श पैदा हुए, उनमें उसका अक्स होना लाजिमी था। अंग्रेजों के जाने के बाद क्या होगा, कैसा देश बनेगा, इसकी तीन अलग-अलग छवियां उभर कर आईं या यूं कह लें कि दो छवियां प्रस्तुत की गईं, क्योंकि परस्पर विरोधी लगने वाली दो छवियों के पीछे जो विचारधारा थी, वह एक ही थी। वह विचारधारा थी धर्म और राष्ट्र को एक बनाकर पेश करने की विचारधारा।
इस विचारधारा को प्रस्तुत करने वाले कोई पुरातनपंथी नहीं थे। ये लोग वास्तव में नास्तिक और तथाकथित उदार विचारों के मानने वाले थे। इस विचारधारा को 'हिंदुत्व’ की तरह विनायक दामोदर सावरकर ने 1921 में प्रस्तुत किया और कहा कि हिंदुस्तान हिंदुओं का देश है और बाकी सब विदेशी हैं और भारत में हिंदू राज करंगे। यह और बात है कि जब तक वे इस नतीजे पर पहुंचे, जेल से कई माफीनामा लिखकर अंग्रेजों को भेज चुके थे और बार-बार यह विश्वास दिला रहे थे कि अगर वे रिहा हुए तो राजनीति से दूर रहेंगे और अंग्रेजी राज के वफादार रहेंगे।
दूसरी तरफ 1000 वर्ष के मुस्लिम शासन को दोबारा हासिल करने के सपने को मुस्लिम राष्ट्र की शक्ल में मोहम्मद अली जिन्ना ने 1940 के दशक में विकसित किया। इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि जिन्ना निजी जीवन में आधुनिक उदारवादी थे और सावरकर घोषित नास्तिक। लेकिन दोनों ने ही धर्म के नाम पर राजनीति की, जिसका नतीजा हम भारत और पाकिस्तान में सीमा के दोनों तरफ देख रहे हैं।
आजादी के बाद का भारत कैसा होगा, उसकी एक दूसरी परिकल्पना भी थी। उस परिकल्पना के पीछे जो इतिहास बोध था, वह तमाम धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई और क्षेत्रीय विविधताओं के साथ लोगों के मिलजुल कर रहने की साझी परंपरा से जन्मा था। यह उस मिट्टी से जन्मा था, जिसे सूफी और भक्ति आंदोलन के संतों की वाणी ने सींचा था और 1857 में चुन-चुन कर मारे गए एक-एक बागी के खून ने जिसे परवान चढ़ाया था। यह वह विमर्श था जिसका ताना-बाना एक तरफ तो 1857 में दिल्ली में तैयार की गई एक लोकतांत्रिक संविधान की रूपरेखा से जुड़ता है और दूसरी तरफ सब के लिए समान अधिकार के उद्देश्य को सामने रख कर तैयार किया गया स्वतंत्र भारत के संविधान से। 1857 का संविधान दिल्ली का प्रशासन चलाने के लिए बख्त खान के नेतृत्व में तैयार किया गया था (मूल पांडुलिपि राष्ट्रीय अभिलेखागार में है)। इस संविधान में बागी फौजियों, दिल्ली के लोगों और व्यापारियों की ओर से दो-दो प्रतिनिधि और बहादुरशाह जफर या उनके प्रतिनिधि समेत 7 सदस्यों की समिति के गठन का प्रावधान था। यह सुझाव था कि यथासंभव फैसले सर्वसम्मति से लिए जाएं, अगर सर्वसम्मति संभव न हो या दोनों ओर बराबर मत हों तो बादशाह या उनके प्रतिनिधि मताधिकार का प्रयोग करेंगे, मगर उन्हें वीटो का अधिकार प्राप्त नहीं था। अपने वक्त में यह एक क्रांतिकारी पहल थी।
सभी धर्मों और जातियों के लोगों ने एक साथ रहना तो बहुत पहले सीख लिया था मगर इस मिलीजुली जीवन शैली की रक्षा का संकल्प 1857 में लिया गया। देश को गुलाम बनाने वालों के खिलाफ जनता के संयुक्त आंदोलन ने ही हमें एक किया और भारतीयता की नींव रखी। धर्म आधारित पहचान बनाने वालों ने जो किया वह पाकिस्तान की शञ्चल में मौजूद है और अब भारत में हिन्दू राष्ट्र बनाने के प्रयासों की शञ्चल में भारत को 'शत्रु पड़ोसी’ का प्रतिबिंब बनाने की कोशिश की जा रही है।
अब सवाल है कि जब 1857 विद्रोह के 200 वर्ष मनाये जा रहे होंगे, तब क्या हम एक आधुनिक, प्रगतिशील, सेकुलर और विविधता भरे देश की तरह पहचाने जाएंगे? या अपने पड़ोसी देश की तरह इकहरी पहचान में इतने गहरे धंस चुके होंगे कि वहां से निकलना ही संभव न हो?
(लेखक दिल्ली की संस्कृति और इतिहास के जानकार हैं।)