स्वाधीनता के लिए भारतीयों द्वारा छेड़े गए पहले युद्ध को अंग्रेजों ने गदर और सिपाही विद्रोह कहा और सुदूर लंदन में बैठकर अमेरिका के एक अखबार के लिए रिपोर्टिंग करने वाले कार्ल मार्क्स ने उसे भारत का राष्ट्रीय विद्रोह बताते हुए उसकी तुलना फ्रांस की क्रांति के साथ की। सन 1857 की इन युगांतरकारी घटनाओं का प्रभाव भारतीय साहित्य पर तो पड़ा ही, यूरोप की चेतना को भी इस विद्रोह ने बहुत गहराई से प्रभावित किया। विद्रोह को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने बदले की कार्रवाई करते हुए भारतीय जनता पर कहर ढाया। हजारों लोगों को पेड़ों से लटका कर सूली दे दी गई, तोपों के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया गया और गांव के गांव जला दिए गए। अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को रंगून निर्वासित कर दिया गया जहां उन्होंने अपने दर्द को बयान करते हुए एक नज्म लिखी जिसकी आरंभिक पंक्तियां थीं, गई यक-बयक जो हवा पलट, नहीं दिल को मेरे करार है। करूं उस सितम का मैं क्या बयां, मेरा गम से सीना फिगार है। हिंदुस्तानी जनता के दर्द को व्यक्त करने वाली यह नज्म इतनी लोकप्रिय हुई कि अंग्रेजों को इस पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। उस समय के अनेक उर्दू कवियों ने 1857 की घटनाओं और उनके बाद उत्पन्न परिस्थितियों पर लिखा। उर्दू साहित्य में 'शहर आशोब’ (शोक में डूबा शहर) नाम की विधा भी है और इस विधा में इस काल में काफी लिखा गया।
1857 की अनुगूंज यूरोपीय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के साथ-साथ वहां के साहित्य में भी सुनाई देती है। दरअसल यूरोप के कई देशों में केवल नौ वर्ष पहले सन 1848 में क्रांतिकारी आंदोलनों को विफलता का मुंह देखना पड़ा था लेकिन इन आंदोलनों के आदर्शों का वहां के राष्ट्रीय आंदोलनों और उदारवादी तथा मूलगामी विचारधाराओं पर गहरा असर पड़ा था। भारत को अक्सर एक अपरिवर्तनशील और जड़ समाज समझा जाता था और यह धारणा बहुत व्यापक रूप से फैली थी कि उपनिवेशवाद इस देश को आधुनिक और सख्य बनाने के लिए जरूरी है। लेकिन 1857 के व्यापक विद्रोह ने इस धारणा की जड़ों पर ही हमला कर दिया और यूरोप अचानक अपनी नींद से जाग कर इस सुदूर देश में हो रही ऐतिहासिक महत्व की क्रांतिकारी घटनाओं को आंख गड़ा कर देखने लगा। इस विद्रोह से बुल्गारिया के राष्ट्रवादियों का मनोबल बढ़ा और ऑटोमन साम्राज्य से मुक्ति पाने की उनकी इच्छा और प्रबल हो गई। बुल्गारियाई क्रांतिकारी ज्योर्जी स्तोईकोव राकोव्स्की ने अपनी पत्रिका 'बुल्गास्र्का द्नेवनित्सा’ में विद्रोह के बारे में प्रमुखता से छापा और लिखा कि 'भारतीय सैनिकों के बिना राजस्व और कानून-व्यवस्था जैसी सभी सार्वजनिक सेवाएं चौपट हो जाएंगी।’ इसी तरह हंगरी के समाचार पत्रों ने भी भारत की खबरों में गहरी दिलचस्पी दिखाई और लगातार विद्रोह के बारे में समाचार और टिप्पणियां प्रकाशित की।
जिस समय भारत में विद्रोह हो रहा था, उस समय तीन महत्वपूर्ण जर्मन लेखक लंदन में रहकर उस पर लिख रहे थे। जाने-माने लेखक और पत्रकार थेओडोर फोन्टाने, प्रचारक एडगार बाउअर और विल्हेल्म लीबक्नेष्त। इनमें लीबक्नेष्त कार्ल मार्क्स के नजदीकी सहयोगी थे। फोन्टाने उपनिवेशीकरण की पूरी नीति को 'कोरी बकवास’ मानते थे और उसके कठोर आलोचक थे। वे जर्मन अखबार 'नोय प्रॉयसिशे त्साइटुंग’ के संपादक मंडल में थे लेकिन उन्हें 1857 के विद्रोह पर लिखे अपने लेखों के कारण उससे त्यागपत्र देना पड़ गया था। बोएर ने इस बारे में लेख लिखे कि 1857 के विद्रोह के कारण किस तरह लंदन में रह रहे अन्य यूरोपीय देशों के राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गतिविधियों पर बंदिशें लगा दी गईं। लीबक्नेष्त कई जर्मन और अमेरिकी अखबारों के लिए लिखते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों के कटु आलोचक थे। हालांकि उन्हें लगता था कि भारत को औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण की जरूरत है लेकिन वे भारतीय विद्रोहियों का समर्थन करते थे और मजदूरों के बीच भारतीय विद्रोहियों के पक्ष में प्रचार करते थे।
हममें से कितनों को यह मालूम है कि 1857 के विद्रोह और उसकी पराजय से प्रेरणा पाकर जर्मन में एक अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास 'नेना साहिब ओडर डी एमपोयरुंग इन इंडियेन’ (नाना साहिब अर्थात भारत में विद्रोह) लिखा गया। इसके लेखक हैरमान्न ओटटोमार फ्रीडरिष गोएडशे थे लेकिन यह उपन्यास उन्होंने सर जॉन रेट्क्लिफ के छद्मनाम से लिखा था। नेना साहिब स्पष्ट रूप से नाना साहिब पेशवा की ओर इशारा करता हुआ नाम है और वे 1857 के विद्रोह के प्रमुख सूत्रधारों में से एक थे। उपन्यास में काल्पनिक घटनाएं हैं और नेना साहिब को एक आयरिश महिला के पति के रूप में चित्रित किया गया है जिसकी पत्नी का बलात्कार और हत्या हो जाती है और वह ठगों का सरदार बन जाता है। इस उपन्यास से स्पष्ट है कि एक ओर भारत का प्राचीन वैदिक और संस्कृत साहित्य जर्मन साहित्यिक कल्पना को अपनी गिरफ्त में ले रहा था-महाकवि गोएठे के 'अभिज्ञान शाकुंतलम’ संबंधी उद्गार तो सर्वविदित हैं, वहीं दूसरी ओर समकालीन भारतीय यथार्थ भी जर्मन साहित्य पर अपना असर डाल रहा था।
इसी तरह पुर्तगाली भाषा में भारत पर लिखा गया पहला उपन्यास भी 1857 की घटनाओं पर है जो फैजाबाद में घटित होती हैं। 'ऑस ब्राह्मन्नीस’ नामक यह उपन्यास फ्रांसिस्को लुइज गोम्स ने लिखा था। गोम्स न केवल एक डॉक्टर, अर्थशास्त्र एवं इतिहास संबंधी पुस्तकों के लेखक और सार्वजनिक महत्व के मुद्दों पर बोलने वाले मुखर वक्ता थे, बल्कि पुर्तगाल की संसद के निर्वाचित सदस्य भी थे। इस उपन्यास में हिंदू जाति व्यवस्था पर प्रहार किया गया है, उपनिवेशवाद के ब्रिटिश मॉडल की आलोचना की गई है और पुर्तगाली तरीके की प्रशंसा की गई है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं।)