Advertisement

चीन-अमेरिका के दोगुटे से भारत की दुविधा बढ़ी

दुनिया का दादा अब सिर्फ अमेरिका नहीं रहा, चीन का दबदबा एशिया के पार भी अपनी धमक दिखा रहा है। इस नए भू-राजनैतिक परिदृश्य में भारत के लिए क्या हैं संभावनाएं और आशंकाएं?
अमेर‌िकी राष्ट्रपत‌ि ट्ंप और चीन के राष्ट्रपत‌ि शी

इतिहास के अंत की उत्तर-कथा भी अंतहीन है। चौथाई सदी पहले ऐसा लग रहा था कि अमेरिका ही दुनिया की इकलौती धुरी होगी। उसी की दरियादिली और दादागिरी अब चलेगी। लेकिन यह पटकथा कैसे बदली, इसका एक अंदाजा दशक भर पहले उस अनौपचारिक प्रस्ताव से लगता है जिसमें अमेरिका और चीन के बीच कुछ अजीबोगरीब रिश्ता कायम हुआ। अभी यह महज भविष्य की संभावना है लेकिन इससे आशंकाओं की घबराहटें घर करने लगी हैं। समूचे एशिया में अमेरिका के तमाम सहयोगी देशों में एक खौफ तारी होने लगा है।

इस नए दोगुटे या जी-2 को अब हर कोई दुनिया में ताकत का केंद्र मानने लगा है। यानी दुनिया अब फिर दो ध्रुवीय होने जा रही है। अगर जी-2 वाकई हकीकत में उतर जाता है तो दुनिया के दो सबसे ताकतवर देश अमेरिका और चीन करीब आ जाएंगे, ताकि वे हर बड़ी चुनौती का सामना मिलकर कर सकें। जब यह अवधारणा 2005 में पहली दफा पेश की गई तब से अमेरिका में विदेश नीति के कई हुक्मरान इस पर रजामंदी जाहिर कर चुके हैं। लेकिन राष्ट्पति जॉर्ज डब्लू बुश और बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल में चतुराई से चीन से बातचीत में इसे अपनी मेज पर ही जमाए रखा, कभी हकीकत में नहीं उतरने दिया।

तो, क्या राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में हालात बदलने को हैं?

1991 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद से अमेरिका दुनिया की इकलौती महाशक्ति बन गया और उसने अपना दबदबा भी कायम कर लिया। लेकिन, आज फिर दुनिया की तवारीख बदलने को है। चीन के साए सिर्फ एशिया में ही नहीं घने हो रहे हैं, बल्कि हर ओर उसके अक्स दिखने लगे हैं और अमेरिका के दबदबे को चुनौती देने लगे हैं। इन बदलते हालात में जी-2 की अवधारणा एक व्यावहारिक पहल की तरह है। वास्तविकता में इसका मतलब होगा कि अमेरिका को चीन को जगह देनी होगी और भू-राजनैतिक व्यवस्था की रूपरेखा ऐसे तय करनी होगी जिससे टकराव के बिना सह-अस्तित्व में उसे ज्यादा से ज्यादा फायदा हो।

दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ चाइनीज स्टडीज के निदेशक अशोक कंठ कहते हैं, ''अमेरिका और चीन के बीच फर्क अब घट गया है। लेकिन यह जारी प्रक्रिया का हिस्सा है।’’ अमेरिका के पराभव की शुरुआत की चर्चाएं 2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी से ही होने लगीं। यह मंदी अमेरिका में शुरू हुई और पूरे यूरोप में छा गई। करीब चार दशकों से दुनिया की सबसे तेज रक्रतार से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक चीन बीमार वैश्विक अर्थव्यवस्था का एकमात्र तारणहार बन गया। आज, इसकी भूमिका और महत्वपूर्ण हो गई है। अमेरिका में ट्रंप के आगमन और उनका 'अमेरिका पहले’ का नारा दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को वैश्विक प्रतिस्पर्धा से निकाल कर संरक्षणवादी कदम उठाने पर मजबूर कर रहा है। अमेरिका अपने यहां नौकरियां बचाने के लिए बहुपक्षीय व्यापार संधियों से हटने पर मजबूर है। इससे चीन के लिए खुद-ब-खुद जगह बनती जा रही है।

ट्रंप के दौर में कुछ भी सामान्य नहीं है। उनके 'अमेरिका पहले’ के घोषित लक्ष्य की वजह से वैश्विक मामलों में अमेरिका का दखल घट सकता है और घरेलू अर्थव्यवस्था पर जोर हो सकता है। कार्यभार संभालने के फौरन बाद ट्रंप ने 12 देशों की प्रशांत पार मुक्त व्यापार संधि से हटने का ऐलान कर दिया था। इस तरह उन्होंने बाकी देशों को चीन के आर्थिक प्रसार के हवाले छोड़ दिया था। ट्रंप ने चीन को मुद्रा विनिमय में दबदबा कायम करने का दोषी भी नहीं बताया। हालांकि उन्होंने ताइवान के राष्ट्रपति से फोन पर बातचीत भी की और चार दशक से जारी अमेरिका की 'एक चीन नीति’ को खारिज कर दिया।

लेकिन जानकारों का कहना है कि ट्रंप भले न चाहें पर वे एशिया में चीन की बढ़त के लिए जगह दे सकते हैं क्योंकि उनके पास विदेश नीति को सही ढंग से संवारने वाले लोग ही नहीं हैं। आर्थिक मामलों के एक पूर्व विदेश उप मंत्री रिचर्ड कूपर कहते हैं, ''हमारे विदेश मंत्री तो हैं पर उनके नीचे के पद खाली हैं। इन पदों को अफसरशाहों और राजनयिकों से भरा गया है, नीति-निर्माताओं से नहीं। वे तो बस नौकरी करेंगे, नीतियां नहीं बना पाएंगे। इसलिए ट्रंप सरकार मोटे तौर पर विदेश नीति से खाली है।’’ कूपर कहते हैं कि ट्रंप की राजनीति में विदेश नीति कोई मायने ही नहीं रखती। लेकिन शी के नेतृत्व में चीन का सबसे ज्यादा जोर विदेश नीति और अपने आधिपत्य के ज्यादा से ज्यादा विस्तार पर ही है।

दशकों तक अंतरराष्ट्रीय मामलों में उदासीन रहने के बाद अब चीन तेजी से उसमें दखल देता दिखाई पडऩे लगा है। उसने अपने विदेश अभियान को साधने के लिए हाल में कई परियोजनाओं और कार्यक्रमों की शुरुआत की है। 'एक क्षेत्र, एक सड़क’ तो उसकी एक परियोजना है, जिससे वह विश्व अर्थव्यवस्था और राजनीति में अपनी पैठ बनाने की कोशिश करेगा। दूसरे, वह 'चीन समाधान’ का विचार पेश कर रहा है जिसके तहत वह गरीबी से लेकर जलवायु परिवर्तन तक हर वैश्विक समस्या का हल मुहैया कराने का वादा कर रहा है।

ट्रंप प्रशासन में विदेश नीति और नीति-नियंताओं के अभाव से भी चीन को नए मैदान में प्रवेश की बड़ी संभावना दिख रही है। इस साल जनवरी में विश्व आर्थिक फोरम की बैठक में शी आर्थिक भूमंडलीकरण की दिशा तय करने की चीन की उम्मीदों को पहले ही जाहिर कर चुके हैं। अगले ही दिन संयुक्त राष्ट्र में उन्होंने अमेरिका को ''दूसरों पर अपनी इच्छा थोपने’’ के खिलाफ चेताया था। सबसे बढ़कर तो उन्होंने अमेरिकी राजनयिकों को युद्ध और भारी विनाश की आशंकाओं से आगाह किया था। ऐसी स्थितियां तब पैदा होती हैं जब पुरानी महाशक्ति किसी नई उभरती महाशक्ति को लेकर आशंकित हो उठती है। जाहिर है, यह उभरती शक्ति एशिया की है।

इस साल के आखिरी महीनों में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने नए उत्तराधिकारी का चुनाव करेगी। मार्च के आखिरी हफ्तों और अप्रैल की शुरुआत में चीन की संसद के सत्र में शी ने इसकी लगभग पूरी तैयारी कर ली है कि यह उत्तराधिकारी भी उन्हीं की पसंद का हो। फिलहाल शी को अगला कार्यकाल मिलना तो तय है। उसके बाद उनकी पसंद के उत्तराधिकारी के चयन से यह बात भी साफ हो जाएगी कि चीन अगले दशक में भी दुनिया में अपने पैर फैलाने की दिशा में ही जोर देता रहेगा। हाउ चाइनाज सॉफ्ट पॉवर इज ट्रांसफार्मिंग द वर्ल्ड के लेखक कुर्लांजिक कहते हैं, ''माओ के समय से हाल तक चीन अफसरशाही पर केंद्रित सर्वसत्तावादी राज्य था, जिसमें थोड़े-से लोगों की खास मंडली सामूहिक रूप से सारे फैसले किया करती थी। अब हालांकि एक व्यक्ति केंद्रित सत्ता हो गई है लेकिन शी ने इतनी शक्ति हासिल कर ली है, जो इसके पहले किसी नेता के पास नहीं थी। इससे क्षेत्रीय सुरक्षा का मामला भी गंभीर हो उठता है।’’

अमेरिकी विशेषज्ञों के मुताबिक, अमेरिका के लिए चीन की इन योजनाओं में एक नया अवसर भी है। कूपर कहते हैं कि मार-ए-लागो में चीन और अमेरिका के राष्ट्रपति दोनों इस पर राजी हुए थे कि वे 100 दिनों में उत्तर कोरिया से लेकर व्यापार तक के मसले पर द्विपक्षीय रिश्ते में सुधार लाएंगे। चीन भी नहीं चाहेगा कि फिलहाल अमेरिका को किसी तरह नाखुश किया जाए। यानी दोनों महाशक्तियों के सह-अस्तित्व का मामला हकीकत में आकार ले सकता है।

एक मायने में यह तो होना ही था। बीजिंग में भारतीय राजदूत रह चुके कंठ कहते हैं, ''अगर चीन जैसा नाटकीय उभार होता है तो अमेरिका को उसके लिए जगह बनानी ही होगी।’’ सेंटर फॉर स्ट्रैटजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज में चाइना पॉवर प्रोजेक्ट की निदेशक बोनी ग्लासर कहती हैं, ''अगर अमेरिका एशिया में चीन के लिए जगह खाली कर रहा है तो कोई रजामंदी से नहीं।’’ उनके मुताबिक, चीन की बढ़ती सैन्य ताकत ने अमेरिकी दबदबे को बनाए रखना मुश्किल कर दिया है।

फिर भी नई दुनिया में अनेक ध्रुव होने की एक हल्की संभावना बनी हुई है। भारत, इंडोनेशिया, विएतनाम और ब्राजील जैसी कई और ताकतें उभर रही हैं। पूर्व राजनयिक कंठ कहते हैं, ''ये उभार भले उतने शानदार न हों लेकिन आज हम जो ताकत का संक्रमण देख रहे हैं, उनमें इनकी भूमिका भी महत्वपूर्ण है।’’

तो, भारत जैसा देश इस हकीकत से कैसे निपटेगा? शीत युद्ध के दौर में भारत चीन से निपटने के लिए अमेरिका और रूस दोनों पर ही आश्रित रहा है। 1962 के युद्ध और फिर 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान चीन ने पाकिस्तान के इलाके से हटने की भारत को धमकी दी तो भारत ने अमेरिका के साथ अपने रिश्ते को काम में लाया। लेकिन 1971 के पाकिस्तान युद्ध के बाद भारत चीन से निपटने के लिए रूस की ओर पूरी तरह झुक गया। भारत को रूस और चीन के बीच खटास से मदद मिली थी। 1991 के बाद भारत अमेरिका की ओर झुकने लगा। दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर फेलो श्रीनाथ राघवन कहते हैं, ''मेरी राय में राष्ट्रपति बुश जूनियर के कार्यकाल में, शायद 2003 के बाद से भारत अमेरिका से अपने रिश्तों की बढ़त चीन से संबंधों के मामलों में उठाता रहा है। मोटे तौर पर भारत का यह रवैया 1998 से ही रहा है जब परमाणु परीक्षण के बाद चीन को मुख्य खतरा बताया गया। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने तो अमेरिका के साथ अपनी करीबी का खुलकर इजहार करना शुरू किया और चीनी नेतृत्व को स्पष्ट संकेत भी दिया।

लेकिन अब राष्ट्रपति ट्रंप उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम पर काबू पाने के लिए चीन की मदद लेने को तत्पर बताए जाते हैं तो भारत के लिए हालात बदल गए हैं। भारत में अधिकांश नीति-निर्माण बिरादरी जी-2 की संभावना पर शंका जाहिर करती है क्योंकि भारत-अमेरिका रिश्तों पर उनको कुछ ज्यादा ही भरोसा है। लेकिन जरा उन तस्वीरों को याद कीजिए, जो बहुत पुरानी नहीं हैं। मई 1998 में भारत में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति क्लिंटन लंटन ने चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ खड़े होकर भारत और पाकिस्तान दोनों को धमकाया था और कहा था कि दोनों अपने परमाणु कार्यक्रमों को बंद करके सीटीबीटी और एनपीटी पर दस्तखत करें।

ऐसा नजारा फिर जल्द ही मौजूद हो सकता है क्योंकि अमेरिका और चीन साथ मिलकर भारत के लिए निर्देश जारी कर सकते हैं। यानी बहुत संभव है कि तमाम दावों के बावजूद भारत को अपने हितों की रक्षा खुद ही करनी पड़े, अमेरिका पर आश्रित रहना ज्यादा काम न आए।

भारतीय विशेषज्ञों का मानना है कि सुरक्षा रणनीति के मामले में अमेरिका के पीछे हटने का अभी कोई संकेत नहीं है। अशोक कंठ के मुताबिक, वैश्विक व्यापार या जलवायु परिवर्तन के मामले में अमेरिका के बदले रुख का कोई सीधा संबंध एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपने दबदबे को घटाने की ओर बढऩे से नहीं है। कंठ कहते हैं, ''कुछ विरोधाभासी संकेत हैं मगर ये शुरुआती हैं।’’ हालांकि वे यह मानते हैं कि 2008 की मंदी के बाद चीन ने खासकर शी जिनपिंग के नेतृत्व में वाकई आक्रामक रुख  अख्तियार कर लिया है। वे कहते हैं, ''संभव है, चीन के अधिक आक्रामक रुख का तीसरा दौर भी आए और यह अमेरिका की दुविधा की वजह से ही होगा।’’

इस नए रुख का खुला इजहार मई के मध्य में 'वन वेल्ट, वन रोड’ (ओबीओआर) शिखर सम्मेलन में भी दिखा। यह भारी कूटनीतिक आयोजन दुनिया भर में काफी दिलचस्पी जगा गया है और कुछ विवाद भी उभर आए हैं। ओबीओआर राष्ट्रपति शी की व्यकिततगत पहल है। यह उस प्राचीन व्यापार मार्ग को बहाल करने की कोशिश है, जो एशिया से यूरोप और अफ्रीका तक जाता था। इस सम्मेलन में पुतिन समेत 28 देशों के प्रमुख और करीब 100 देशों के प्रतिनिधियों के शामिल होने से यह चीन केंद्रित विश्व व्यवस्था का एक संकेत देगा।

जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर जॉन ग्रेवर कहते हैं, ''एक मायने में ओबीओआर सोवियत संघ के अंत के बाद की नीतियों की ही नई रूपरेखा है। यह उस धारणा की प्रतिक्रिया है कि चीन की बढ़ती ताकत से एशिया के देशों में बेचैनी है। इससे यह बताने की कोशिश है कि चीन के खरबों डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार से 'साझा विकास’ की काफी गुंजाइश है और पड़ोसियों को इससे लाभ हो सकता है।’’

एक मायने में यह चीन के लिए अपने घर से बाहर निकलने जैसा है। ट्रंप के घर की ओर ताकने की नीति के उलट चीन 'खुली दुनिया का वैकल्पिक अगुआ’ बनने के लिए अपने दरवाजे खोल रहा है। आर्थिक तौर पर देखें तो चीन 2013 से ओबीओआर देशों में 50 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च कर चुका है। यह 21वीं सदी का सिल्क रूट होगा जो जिनजियांग से मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, लेवांत, तुर्की से लेकर जर्मनी, नीदरलैंड और इटली तक जाता है। समुद्री सिल्क रूट फुजियान से वेनिस तक जाता है। चीन की योजना में इन सिल्क रूटों के साथ-साथ रेलवे, हाइवे, तेल और गैस पाइपलाइन, पॉवर ग्रिड, इंटरनेट नेटवर्क और नौवहन तथा दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर लिंक भी तैयार करना है। शी इसके जरिए दशक भर में 2.5 खरब डॉलर मूल्य के व्यापार की उम्मीद कर रहे हैं। स्वाभाविक रूप से इससे खस्ताहाल यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं में कुछ दिलचस्पी पैदा होगी। इस दिशा में चीन की अगुआई में एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक दूसरी लुभावनी परियोजना है।

चीन की इस नई भूमिका से भारत में थोड़ी बेचैनी है। भारत ओबीओआर परियोजना के एक महत्वपूर्ण अंग के बतौर चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर के निर्माण को बेहद आपतिजनक मानता है, जो कश्मीर से होकर गुजरता है। इसके विरोध स्वरूप भारत चीन में ओबीओआर सम्मेलन में शामिल नहीं हुआ। लेकिन चीन से कड़वाहट भरी दूरी बनाए रखने की यह रणनीति कितनी कारगर है? इससे भी बढक़र यह बात है कि क्या अमेरिका पर पूरी तरह आश्रित रहने की रणनीति काम कर रही है?

राघवन कहते हैं, ''यह उपयोगी रही है। हालांकि इसकी अपनी सीमाएं हैं।’’ वे बताते हैं कि 2005 में रणनीतिक साझेदारी और सीमा विवाद पर चीन-भारत समझौता संभव था क्योंकि चीन भारत-अमेरिका परमाणु करार के ऐलान के पहले समझौता करने को तत्पर था। लेकिन वह रणनीति तभी तक संभव थी जब तक चीन को यकीन था कि भारत में स्वतंत्र द्विपक्षीय रणनीति बनाने की कूवत है।

ऑक्सफोर्ड में चीन के इतिहास के प्रोफेसर राणा मित्तर इस नए घटनाक्रम में एशिया में अधिक स्थायित्व की संभावना देखते हैं। वे कहते हैं, ''चीन अपनी मौजूदा स्थिति की बढ़त तो हासिल करना चाहता है लेकिन वह अमेरिका को सीधे उकसाना नहीं चाहेगा। अमेरिका के पारंपरिक सहयोगी जापान वगैरह कुछ हरकते पहले के मुकाबले ज्यादा आश्वस्त हैं।’’

इस तरह भारत भू-राजनीति के इस बदलते रुझान से कुछ उलझन में है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ताकत के बदलते संतुलन और उसके बहुआयामी स्वरूप के दौर में एकांगी रणनीति में जोखिम ज्यादा है। दुनिया में यह अनिश्चित दौर बहुआयामी कूटनीति की ही मांग करता है, जिसमें अपने हितों के हिसाब से अवसर तलाशे जाएं और निर्णय लिए जाएं। उभरता चीन अवसर भी है लेकिन उसमें खतरे भी निहित हैं। चीन जैसे देश पर काबू पाना आसान नहीं है, न ही भारत जैसे देश पर काबू पाना कोई हंसी-खेल है। आखिर इन नई चुनौतियों से हम कैसे निपट सकते हैं? भारत और ज्यादातर देशों के सामने यही दुविधा है।

इसका एक संतुलित हल तो है। कंठ कहते हैं, ''रिश्ते में कई अच्छी बातें भी हो रही हैं जिन्हें नजरअंदाज कर दिया जा रहा है। फिलहाल तो लगता है कि भारत-चीन रिश्ते मसूद अजहर और एनएसजी पर आकर ठहर गए हैं....लेकिन इसके अलावा कई सुखद पहलू भी हैं।’’ बेशक, इस खेल में भारत के अपने हित, चीन की महत्वाकांक्षा, शी के सपने, ओबीओआर, तिब्बत, दलाई लामा जैसे कई पहलू हैं। लेकिन सावधानी और संतुलित रवैया ही चुनौतियों से आगे ले जाएगा।

(साथ में सैफ शाहीन, ओहियो, अमेरिका से)

Advertisement
Advertisement
Advertisement