शब्बीरपुर सियासत का क्या कोई नया मुकाम है, जो दलित राजनीति को नई डगर पर ले जाएगा? या फिर बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती की टूटती-बिखरती राजनीति के लिए नए मिट्टी-गारे का काम करेगा और उन्हें फिर से नई ताकत दे जाएगा? जो भी हो, 23 मई को उत्तर प्रदेश के धुर उत्तरी-पश्चिमी छोर पर सहारनपुर से करीब 30 किमी. दूर दलित-राजपूत हिंसा से ग्रस्त इसगांव में मायावती पहुंचीं तो उनकी चाल में गजब की फुर्ती थी। मंच पर पहुंचीं तो चेहरा खिला हुआ था। बड़े भरोसे और संजीदगी से उन्होंने दलितों को आश्वस्त किया, ''बाबा साहेब आंबेडकर की जयंती जैसे आयोजन बसपा के बैनर तले करो, तो कोई कुछ कहने की जुर्रत नहीं कर सकेगा। छोटे-छोटे संगठनों के फेर में दलित समाज न पड़े।’’
यह बात अलग है कि उनकी सभा के खत्म होते ही वहां ऐसी हिंसा हुई, जिसने पांच मई और उसके आगे-पीछे हुए हिंसक टकराव को भी फीका कर दिया। मायावती की सभा से लौट रहे बसपा समर्थकों पर कई जगह हमले हुए। घात लगाकर धारदार हथियारों से हुए इन हमलों में 14 लोग गंभीर रूप से जख्मी हो गए और आशीष नाम के एक दलित युवक की गोली लगने से मौत हो गई। विडंबना देखिए कि यह सब सुरक्षा के भारी इंतजाम के बीच हुआ।
यूं तो मायावती के कदम रखने के पहले ही दोपहर में नीली टोपी और गमछा पहने युवाओं का समूह कभी 'भीम आर्मी’ के समर्थन में तो कभी बसपा के खिलाफ नारेबाजी कर रहा था। उधर, राजपूत परिवारों की महिलाएं भी हथियारों के साथ दरवाजों पर मुस्तैद देखी गईं। इस बीच, गांव में आगजनी और पथराव की वारदातें भी हुईं। आला अधिकारियों और बड़ी संख्या में सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी में ही शब्बीरपुर के हालात इतने बेकाबू हो गए कि मायावती सिर्फ एक-दो परिवारों से ही मिल पाईं।
यह गांव पिछले 14 अप्रैल से ठाकुर और दलितों के बीच जाति गौरव और दबंगई का अखाड़ा बना हुआ है। हिंसा की आग में दलितों के दर्जनों घर जला दिए गए। इलाके में हुई अलग-अलग घटनाओं में दो युवकों की मौत हो चुकी है, जबकि 20 से ज्यादा लोग तलवार जैसे हथियारों से जख्मी हालत में अस्पताल में हैं। महीने भर में दो बार डीएम-एसएसपी बदलने के बाद भी हालात काबू में नहीं आए तो जिले में इंटरनेट और मोबाइल मैसेजिंग पर रोक लगानी पड़ी।
कयास यह भी है कि शब्बीरपुर पहुंचने का फैसला मायावती ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर दलित उत्पीड़न के खिलाफ हजारों की भीड़ उमडऩे के अगले दिन किया। इस प्रदर्शन में 'भीम आर्मी’ का नेता चंद्रशेखर आजाद उर्फ रावण नायक बनकर उभरा था, जो उत्तराखंड की सीमा से सटे छुटमलपुर के पास का रहने वाला है। इस विरोध-प्रदर्शन को कवरेज न देने वाले मीडिया समूहों ने भी चंद्रशेखर को 'द ग्रेट चमार’, 'दलित प्रतिरोध के नए चेहरे’ और 'बसपा से दलित युवाओं के मोहभंग’ के तौर पर पेश किया। यही वह नजारा है जिससे कई राजनैतिक पंडित शब्बीरपुर को दलित राजनीति में नए मोड़ की तरह देख रहे हैं। जेएनयू में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर विवेक कुमार इसे दलित नौजवानों में बेचैनी की तरह देखते हैं। उन्होंने कहा, ''दलित नौजवानों का पुराने दलित नेतृत्व से मोहभंग हो चुका है। अब उनमें नई आकांक्षाएं उभर रही हैं। वह समान अवसर चाहता है और अब दब कर नहीं रहना चाहता।’’
यही वह बेचैनी है जिस पर शायद कई दूसरी राजनैतिक पार्टियों की भी नजर है। लेकिन पहले शब्बीरपुर के उस टकराव की कहानी को थोड़ा गहरे में जान लें, जिसके समीकरण कुछ नए सूत्र खोलते हैं। आधे के आसपास राजपूत और एक-तिहाई दलितों के गांव शब्बीरपुर में 14 अप्रैल को कुछ दलित रविदास मंदिर में आंबेडकर की मूर्ति लगाने लगे तो गांव के दलित युवक मिंटू कुमार के मुताबिक, ''राजपूतों ने आपत्ति उठाई कि इतनी ऊंची मूर्ति क्यों लगा रहे हो। पहले प्रशासन की अनुमति लेकर आओ।’’ आज भी वहां चबूतरा अधूरा पड़ा है।
फिर पांच मई को अचानक महाराणा प्रताप की शोभायात्रा बिना अनुमति के निकालने और डीजे बजाने को लेकर राजपूतों और दलितों के बीच टकराव हुआ, जिसमें पथराव और भगदड़ के बीच एक राजपूत युवक की मौत हो गई। उसके बाद सैकड़ों की भीड़ दलित परिवारों पर टूट पड़ी और 50 से ज्यादा घरों में आग लगा दी गई। एक चश्मदीद, शब्बीरपुर के अशोक कुमार बताते हैं,''उस दिन पुलिस ने ठाकुरों को पूरी छूट दे दी थी। गांव में सुबह 10 बजे से लेकर दोपहर तीन बजे तक ठाकुरों ने कहर बरपाया। चुन-चुनकर जाति विशेष के दलित घरों को जलाया गया। लेकिन पुलिस ने किसी को नहीं रोका।’’
इस ''जाति विशेष के दलित घरों’’ का यहां अपना अर्थ है जो उत्तर प्रदेश की नई सामाजिक स्थिति के विस्फोटक हालात का भी संकेत है और दलित बेचैनी का भी प्रतीक है। हाल के विधानसभा चुनाव में भाजपा और सहयोगियों को मिली कुल 403 में से अप्रत्याशित 325 सीटों ने सामाजिक समीकरणों का नया तानाबाना भी बुना। बसपा को तो ऐसी करारी हार मिली कि कुल 19 सीटों में से उसके गढ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महज तीन सीटें ही रह गईं। कई राजनैतिक जानकारों का मानना है कि 1990 के दशक के बाद मंडल रिपोर्ट पर अमल से पिछड़ा और दलित अस्मिता की राजनीति के बुलंदी के दौर के बाद पहली दफा ऊंची जातियों में थोड़ी राज-सत्ता की गर्मजोशी आई है। फिर, योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से तो मानो ठाकुरों में विशेष जोश का संचार हो गया। इलाके की राजनीति पर नजर रखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार के मुताबिक ठाकुरों की दबंगई बढ़ी तो दलितों में भीम आर्मी जैसे उग्र तेवर वाले संगठनों को भी खाद-पानी मिल गई।
दरअसल पांच मई को जिस दिन शब्बीरपुर में हिंसा हुई, उस दिन वहां से करीब पांच किमी. दूर सिमलाना में महाराणा प्रताप की जयंती मनाने के लिए कई हजार राजपूत जुटे थे। राजपूत गौरव की दुहाई देते उस कार्यक्रम के पोस्टर इलाके में आज भी देखे जा सकते हैं। बताया जाता है कि इस कार्यक्रम में फूलन देवी की हत्या के मामले में सजा काट रहा शेर सिंह राणा भी मौजूदा था, जो आजकल जमानत पर बाहर है। दलित सेना के राष्ट्रीय महामंत्री और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी से जुड़े दीपक जाटव का सवाल है, ''महाराणा प्रताप की जयंती का कार्यक्रम सिमलाना में था, तो राजपूत युवकों को पांच किलोमीटर दूर शब्बीरपुर आने की क्या जरूरत थी? सहारनपुर में राजनैतिक फायदे के लिए हिंसा भडक़ाई जा रही है। कहीं न कहीं यह सोची-समझी साजिश थी।’’ वैसे, यह जाति टकराव भाजपा की पेशानी पर बल डालने के लिए काफी था। सो, 20 अप्रैल को ही सड़क दूधली गांव में भाजपा सांसद राघव लखनपाल ने मुस्लिम बस्ती से आंबेडकर यात्रा निकालने का प्रयास करके मामले को नया रंग देना चाहा, जहां से शुरू हुआ उपद्रव एसएसपी के आवास तक जा पहुंचा।
मेरठ कॉलेज के प्रोफेसर सतीश प्रकाश मानते हैं, ''सहारनपुर जैसी घटनाओं से दलितों को लुभाने की भाजपा की कोशिशों को झटका लगेगा। जबसे उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार आई है, दलित उत्पीड़न के मामले बढ़े हैं। ठाकुर, गुर्जर, जाट जैसी जातियों में उनकी सरकार आने का भाव जागृत हो चुका है।’’ सो, भाजपा 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद अपने पाले में आए कुछ दलित वोटों को समेटने के लिए क्या करती है, यह तो समय ही बताएगा। दलित जातियों को अपने पाले में पुख्ता करने के लिए ही उसने इन विधानसभा चुनावों में जाटव बनाम गैर-जाटव की रणनीति अपनाई थी। बसपा के पाले से बाल्मीकि, पासी, राजभर, मल्लाह, गड़रिया जैसी जातियों को खींचने के लिए आर.के. चौधरी जैसे नेताओं को तोड़ लिया था। अति पिछड़ी जातियों को बसपा से तोड़ा। एक दलित कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी कहते हैं, ''हिंदुत्ववादी ताकतें दलितों को उप-जातियों में बांटकर आंबेडकरवादी राजनीति के गैर-बराबरी मिटाने वाले एजेंडे को खत्म करना चाहती हैं।’’
निश्चित रूप से मायावती यह समझ रही होंगी लेकिन अभी तक उनके कदमों से इस ओर कोई गहरी समझ नहीं दिख रही है। दलित कार्यकर्ता और लेखक कंवल भारती आज की दलित राजनीति का यही सबसे बड़ा संकट मानते हैं। उनका मानना है कि जाति अस्मिता पर ज्यादा जोर देने से दलित एजेंडा कमजोर हुआ है, जब तक जाति विनाश पर जोर नहीं दिया जाएगा और सभी शोषितों को समेटा नहीं जाएगा तब तक दलित राजनीति में दम नहीं आएगा।
इन नई स्थितियों में मायावती अपना दायरा समेटने के बदले कितना बढ़ाती हैं, यह तो उनके अगले कदमों से जाहिर होगा। लेकिन, सहारनपुर मायावती की राजनीति के लिए बेहद अहम रहा है। अस्सी के दशक में उनका काफी समय पश्चिमी यूपी के कैराना, बिजनौर और हरिद्वार लोकसभा क्षेत्रों (तब हरिद्वार भी यूपी में था) में चुनाव लड़ते बीता है। 1996 में मायावती ने सहारनपुर के हरौड़ा और बदायूं की बिल्सी सीट से विधानसभा चुनाव जीता, मगर हरौड़ा से विधायकी कायम रखी। पहली बार 2007 में जब दलित-मुस्लिम-ब्राह्मण गठजोड़ के सहारे बसपा अपने बूते 206 सीटें जीती तो सहारनपुर की सात में पांच सीटें बसपा के खाते में गईं। लेकिन, इस बार करीब 42 फीसदी मुस्लिम और 22 फीसदी अनुसूचित जाति की आबादी वाले सहारनपुर की सभी सीटों पर हार के साथ बसपा के भाईचारे का तिलिस्म भी टूट चुका है।
मायावती से यही मोहभंग भीम आर्मी जैसे नए संगठनों की जमीन तैयार कर रहा है। वैसे, ताज्जुब यह है कि भीम आर्मी पर नक्सली होने से लेकर बसपा से फंडिंग लेने के आरोप लग चुके हैं। खुद मायावती भीम आर्मी को भाजपा का प्रोडक्ट बता चुकी हैं, जबकि दिल्ली में भीम आर्मी के संरक्षक जय भगवान जाटव इसे दलितों के उत्पीड़न और प्रतिरोध का प्रोडक्ट मानते हैं। जय भगवान कहते हैं, '' अब तक मायावती ने कांशीराम की बोई राजनैतिक फसल काटी है। लगातार तीन चुनाव में मायावती की नाकामी के बाद दलित भी सोचने पर मजबूर हुआ है।’’ उनके मुताबिक दलितों में अब जोश और जागृति आ चुकी है। इसी का नतीजा है कि सहारनपुर हिंसा के खिलाफ केवल सोशल मीडिया के जरिए 21 तारीख को दिल्ली के जंतर-मंतर पर हजारों की भीड़ उमड़ी।
भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर के गुरु रहे छुटमलपुर के एएचपी इंटर कॉलेज के शिक्षक रामेश्वर प्रसाद बताते हैं कि कॉलेज में अक्सर ठाकुर और दलितों के बीच झगड़े होते रहते थे। दलित छात्रों का उत्पीड़न भी होता था। वहीं से भीम आर्मी का जन्म हुआ। तब से वहां हालात कुछ बदले हैं। भीम आर्मी की लोकप्रियता युवाओं में तेजी से बढ़ रही है, लेकिन राजनैतिक तौर पर दलितों की पहली पसंद बसपा ही है। सहारनपुर में भीम शक्ति युवा संगठन चलाने वाले सचिन बाबरे कहते हैं कि हम किसी भी संगठन से जुड़े हों, लेकिन राजनैतिक तौर पर बसपा के साथ हैं।
बसपा के जोनल को-आर्डिनेटर नरेश गौतम का कहना है कि सहारनपुर की जाति हिंसा के लिए सरकार के दबाव में स्थानीय प्रशासन का पक्षपातपूर्ण रवैया जिम्मेदार है। बसपा के स्थानीय नेता चरनजीत सिंह निक्कू का आरोप है कि पिछले महीने सहारनपुर में एसएसपी के आवास पर तोड़तोड़ करने वाले भाजपा सांसद के समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई तक नहीं हुई। एसएसपी का ही तबादला कर दिया गया।
हालांकि, इसके पहले दलित उत्पीड़न से उपजे आक्रोश को भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सोशल इंजीनियरिंग की रणनीतियों से विरोधी दलों के पाले में जाने से रोकने में कामयाब रहे हैं। मसलन, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधार्थी रोहित वेमुला की खुदकुशी, गुजरात के ऊना में तथाकथित गौरक्षकों द्वारा दलितों की बेरहम पिटाई जैसी घटनाओं से उपजे आक्रोश का लाभ विपक्ष नहीं ले पाया। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे इसके सबूत हैं।
कुल मिलाकर इसे दलित राजनीति में एक नए दौर के आगाज के रूप में देखा जा रहा है। अब सवाल है कि यह नया दौर दलित राजनैतिक पूंजी को भाजपा की ओर ले जाएगा, या बसपा के लिए संजीवनी बनेगा या उग्र आंबेडकरवाद की राह प्रशस्त करेगा!
आर्थिक समृद्धि ही बनाएगी दलित को दमदार
डॉ. संजय पासवान
देश में कर्णन प्रकरण, राजस्थान में घुड़चढ़ी की समस्या, केरल में हिंसा, बंगाल में उपद्रव, तमिलानाडु में अत्याचार और दुधली तथा शब्बीरपुर की घटनाओं ने संपूर्ण जनमानस को झकझोर दिया है। सभी घटनाओं में दलित 'सॉक्रट टारगेट’ के रूप में दिखाई पड़ रहा है। सभी वारदातों में एक पक्ष निश्चित रूप से दलित है तो दूसरा पक्ष मुसलमान, ईसाई, दबंग पिछड़ा या सर्वण समाज है। धार्मिक या जातिगत दोनों तरह के उन्माद में ज्यादातर शिकार दलित समाज होता रहा है। यह एक स्थापित तथ्य है कि किसी भी किस्म के सामाजिक और राजनैतिक बदलाव के लिए जो समूह सर्वाधिक मुखर रहता है, उसी का नाम दलित और आदिवासी है। यह समूह व्यवस्था विरोधी स्वभाव का होता है जिसका किसी किस्म की मुहिम में सदुपयोग या दुरुपयोग करना हमेशा सहज होता है। गुलाम भारत में भी 'क्रिमिनल ट्राइब्स’ के नाम पर दलित और आदिवासियों को विभिन्न धाराओं और दफाओं में आरोपित कर अपराधी घोषित किया गया। यूपीएससी की टॉपर टीना डाबी और जेईई टॉपर कल्पित बोरवाल और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में छुटपुट सफलता मिलने जैसी खबरें भी आने लगी हैं। इन परिणामों से भी दलितों का नैतिक और आत्मिक बल बढ़ा है। इससे प्रतिरोध और प्रतिवाद के तरीके नए ढंग से परिभाषित होने शुरू हो गए हैं।
संघर्षों का दौर जंगलों से होते हुए गांव, गांव से होते हुए शहर और शहर से होते हुए कार्यालय, सचिवालय और देश की संसद तथा संसद से देश के न्यायालयों तक पहुंच चुका है। सरकार और समाज को इस यात्रा को समझने के लिए विशेष नजरिया अपनाने की आवश्यकता है, ताकि समाधान निकाला जा सके। बेलछी कांड (1977) से लेकर शब्बीरपुर कांड (2017) तक की यात्रा को लगभग चार दशक हो गए लेकिन इस दौरान कुछ भी बदला हुआ दिखाई नहीं पड़ रहा है।
समकालीन घटनाओं से निपटने के चार प्रमुख तरीके हैं- जिसे हम राजनैतिक रणनीति, सामाजिक रणनीति, धार्मिक राजनीति और आर्थिक रणनीति कह सकते हैं। दलितों की ओर से धर्मांतरण और गैर-दलितों की ओर से मंदिर प्रवेश का मुद्दा अब बेमानी होता जान पड़ रहा है। धर्मांतरण के मुद्दे सुलझने के बजाय और उलझ गए हैं। मंदिर प्रवेश के मुद्दे से एक वर्ग आहत है तो दूसरा वर्ग अपमानित महसूस करता है। दलित समाज की चाहत मंदिर प्रवेश से अधिक मंदिरों द्वारा संचालित ट्रस्टों में भागीदारी की है। आर्थिक क्षेत्रों में धनार्जन के तमाम स्रोतों में दलितों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। फिञ्चकी की तर्ज पर दलितों के लिए ऐसे प्रयास विभिन्न राज्यों की राजधानियों में किए जाएं। इससे दलित उद्यमशीलता का पुनरोदय होगा। उन्हें कम ब्याज पर ऋण और न्यूनतम शर्तों पर भूमि आवंटन करके स्वावलंबी बनाने का अभियान चलाया जाना चाहिए। पूना पैक्ट के तहत जो आरक्षण गांधी एवं आंबेडकर ने दलित समाज को दिलवाया, उस पर सूक्ष्म चिंतन की जरूरत है। संसद और विधानसभाओं में आरक्षित वर्ग के लोग आने शुरू हो गए मगर उनके स्वर और सुर उनके समाज से मेल नहीं खाते। दल की बात दलितों में हो इसकी जरूरत है, मगर दलित की बात दल में हो उस पर बिलकुल ध्यान नहीं है।
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता हैं)
जाति पर जोर से दलित एजेंडा हुआ फीका
भंवर मेघवंशी
आज दलित समुदाय हर दृष्टि से चौराहे पर खड़ा है। कई दशक बाद दलित राजनीति लगभग हाशिए पर पंहुच गई है। दलित जन प्रतिनिधियों से दलित समुदाय एकदम निराश है। वे समुदाय पर होने वाले अत्याचार के मसलों पर कुछ नहीं बोलते हैं। अब दलित समाज में उन्हें खुले मंचों से पूना पैक्ट की खरपतवार कहना शुरू कर दिया है। वर्तमान दलित राजनीति की विडंबना यह है कि उसके पास अब कांशीराम जैसा विजनरी, सर्वसुलभ, दूरदृष्टि वाला और अपने समुदाय के प्रति हद दर्जे तक समर्पित तथा अवसरों की पहचान कर सकने वाला कालजयी व्यक्तित्व नहीं है। दलितों की सबसे बड़ी पार्टी बसपा अब बहुजन की नहीं, सर्वजन की पार्टी है। आगे जा कर वह सिर्फ परिजन पार्टी बनने की दिशा में चल पड़ी है।
दलितों के सामाजिक आंदोलन भी निरंतर बिखराव के शिकार हैं। बामसेफ विचारधारा के आधार पर एक बड़ा काडर आधारित संगठन माना जाता है, मगर उसके कई धड़े हो गए हैं और वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने में ही जुटे रहते हैं। जातियां मजबूत हो रही हैं। जाति विनाश का सपना कहीं पीछे छूटता लग रहा है। पूरे देश में दलितों को उप-जातियों में बांटने की सुनियोजित कोशिश चल रही है।
दलितों के भीतर उद्यमी वर्ग भी पैदा हुआ है, जिसने डिक्की जैसे संगठनों के जरिए दलित पूंजीवाद की भरपूर वकालत की थी। इस दलित पूंजीवाद का विलय दक्षिणपंथी संघी मनुवाद में होता नजर आ रहा है। डिक्की के मुखिया मिलिंद कांबले का संघ प्रमुख मोहन भागवत के साथ मंच साझा करना और आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य के अंक का लोकार्पण करना दलित पूंजीवाद का ब्राह्मणवादी मनुवाद के समक्ष घुटने टेकने जैसा है। वैसे बाजारवाद और मनुवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
संघ की समरसता के चश्मे चढ़ाए दलित संगठन तेजी से समाज में अपनी जगह बना रहे हैं। उनको फंड, झंडा, डंडा, एजेंडा सब हिन्दुत्ववादी संगठनों से मिला हुआ है। उनका कुल जमा काम यह है कि दलित हितों के पक्ष में आ रही चेतना को पलट दिया जाए। इनमें सर्वाधिक पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय नौकरीपेशा दलित शामिल हैं।
आरक्षण के विरुद्ध इतना विषाक्त वातावरण कभी नहीं था, जितना आज है। ऊंची जातियां आरक्षण को ही मिटाने पर जोर दे रही हैं। उनको डर है कि कहीं दलित-आदिवासी समुदाय निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग पर जोर न देने लगे। ऊंची जातियों की यह मांग भी है कि अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून को भी खत्म किया जाए।
बढ़ती बेकारी और सोशल मीडिया के युग में जवान होती दलित पीढ़ी अत्याचारों का स्थायी समाधान चाहती है। इसलिए भीम आर्मी से लेकर भीम सेना, आंबेडकर सेना, दलित पैंथर जैसे कई उग्र समूह उभर रहे हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और दलित एक्टिविस्ट हैं)