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यह है मैक्सिमम गवर्नमेंट!

आजकल
पशुओं की मंडी में एक गाय को नहलाता एक भ‌िश्ती

 

आपके फोन या मेल पर अचानक लगभग धमकी जैसा मैसेज आता है कि आपने फोन कनेक्शन को 'आधार’ से नहीं जोड़ा तो आप अपना नंबर खो देंगे। इसके पहले आपको याद रखना है कि अगर आपने अपने पैन कार्ड को 'आधार’ से नहीं जोड़ा तो आप इनकम टैक्स रिटर्न नहीं भर पाएंगे। फिर, लोगों की वित्तीय लेनदेन की आदतों में बदलाव के लिए उनकी सहूलियत और समझ की बजाय नोटबंदी जैसे सख्त कदम उठाए गए। पहले इसे कालेधन पर अंकुश के लिए उठाया कदम बताया गया लेकिन बाद में कैशलेस इकोनॉमी को खड़ा करना इसका मकसद बताया गया। शुरू में डिजिटल लेनदेन बढ़ा लेकिन बाद में कैश की वापसी हो गई। वह भी तब जब कैश ट्रांजेक्शन पर तमाम तरह की बंदिशें और चार्ज लगा दिए गए। करीब साल भर से इस तरह की दर्जनों बंदिशें देश के आम आदमी पर थोपी जा रही हैं। लेकिन इसके साथ यह भी तय किया जा रहा है कि आप अपनी आजीविका चलाने के लिए क्या काम कर सकते हैं और क्या नहीं। इन आदेशों में कई आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सीमा को घटाते हैं तो कई आपके जीवन को संकट में डाल सकते हैं।

सबसे बड़ा मामला हाल ही में केंद्र सरकार के एक आदेश का है जिसमें पशु क्रूरता निरोधक (पशुधन बाजार नियमन) नियम, 2017 को अधिसूचित किया गया है। ये नियम पशु क्रूरता निरोधक अधिनियम, 1960 के तहत जारी किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि पशुवध के लिए पशुओं को पैंठ या खरीद-बिक्री के लिए लगने वाले बाजार से नहीं खरीदा जा सकता है। इस कानून के तहत जारी नियमों में चुनिंदा पशुओं को ही शामिल किया गया है, जिसमें गोवंश, भैंस और ऊंट जैसे जानवर शामिल हैं। यानी पैंठ में आप किस काम के लिए पशुओं की खरीद-बिक्री कर सकेंगे, यह सरकार ने तय कर दिया है। केंद्र सरकार के इस नियम के खिलाफ जहां देश में कई जगह विरोध प्रदर्शन हुए, वहीं कई राज्य सरकारों ने इसे देश के संघीय ढांचे के प्रतिकूल कह कर आपत्ति जताई है। मद्रास हाईकोर्ट ने इसके अमल पर चार सप्ताह की रोक लगा दी है और केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। तमाम कानूनविद इन नियमों की संवैधानिक और कानूनी वैधता पर सवाल उठा रहे हैं।

यही नहीं, हमें इसका व्यावहारिक पक्ष भी देखना चाहिए। देश में पशुओं की खरीद-बिक्री के बाजार बड़ी संख्या में लगते हैं और इनके लिए नियम बहुत कड़े नहीं हैं। किसी भी किसान या पशुपालक के लिए ये बाजार बेहतर कीमत पाने का मौका देते हैं क्योंकि वहां मोलभाव करने वाले ज्यादा लोग मिलते हैं। फिर, गांव-देहात से आने वाले ज्यादातर लोग नियम-कायदों के साथ पेपर वर्क और अधिकारियों की मंजूरी प्रक्रिया से वाकिफ नहीं होते। लेकिन नए नियम उन पर प्रतिबंधों का बोझ बढ़ाने के साथ ही प्रक्रिया को जटिल कर देंगे। सवाल यह भी है कि अगर किसी किसान या पशुपालक के लिए कोई पशु काम का नहीं है तो वह उसे कहां बेचेगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि डिजिटल होते देश में अब किसानों से कहा जाएगा कि तेजी से विकसित हो रहे नेशनल एग्रीकल्चर ई-मार्केट में वह अपने पशुओं को ऑनलाइन बेच सकेंगे!

असल में कुछ हलकों से गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध लगाने का दबाव झेल रही सरकार कानूनी रूप से राष्ट्रीय स्तर पर यह कदम उठाने में अपनी अक्षमता के चलते लोगों पर अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे नियम लाद रही है। देश में कई राज्य सरकारों के कसाईखानों पर प्रतिबंध और कथित गोरक्षकों की गुंडागर्दी से पैदा हो रहा असुरक्षा का वातावरण पहले ही कानून-व्यवस्था की स्थिति खराब कर रहा है। यह समाज के कई वर्गों की कारोबारी गतिविधियों के साथ ही अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से के लिए चिंता का सबब बना हुआ है।

असल में सरकार का काम तो व्यक्तिगत और कारोबारी स्वतंत्रता के लिए पारदर्शी व्यवस्था को मजबूत करना होना चाहिए। लोगों को बिना ज्यादा झंझटों के खुली हवा में सांस लेने का एहसास कराना चाहिए। अगर कुछ लोग गैर-कानूनी गतिविधियों में लिप्त हैं तो उन्हें दंडित करना चाहिए। लेकिन सब पर बंदिशें लाद देना कहां का 'सुशासन’ है!

दरअसल, देश में 1991 के उदारीकरण के बाद की पीढ़ी ने नियम-कायदों के झंझटों में कमी और सरकार के लिबरल होते अप्रोच को देखा है। इसके चलते जहां देश में बड़े पैमाने पर उद्योग-धंधे पनपे, लोगों को रोजगार के नए क्षेत्र मिले, वहीं वैश्विक स्तर पर आदान-प्रदान की प्रक्रिया भी सरल हुई। लेकिन पिछले कुछ समय से सरकार जाने-अनजाने जिस तरह नए नियम-कायदे और प्रक्रियाओं का दायरा बढ़ा रही है, नई-नई बंदिशें लगा रही है, वह उदारीकरण के दौर से यू टर्न जैसा दिखता है। इससे लोगों में धारणा बन रही है कि जिस 'मैक्सिमम गर्वनेंस, मिनिमम गवर्नमेंट’ का दावा सरकार करती है, हकीकत बिलकुल उसके उलट है।

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