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दलित कदमों की मजबूत आहट

1937 के बाद अस्सी साल के राजनैतिक सफरनामे में दलित नेतृत्व से उभरते रहे हैं लगातार कई मजबूत नेता
गुजरात के ऊना में एकजुटता द‌िखाने के ल‌िए रैली में शाम‌िल दल‌ित समुदाय के लोग

 

दलित की जिंदगी का एक उद्देश्य प्रतिगामी, शोषक और घृणित समझने वाली भारतीय जाति और समाज व्यवस्था से मुक्ति और बराबरी का हक पाना है। दलित लगातार परिवर्तनकारी आंबेडकरवादी एजेंडे पर आगे बढ़ने की कोशिश करता है, जिसमें अमूमन उसे भयंकर विरोध झेलना पड़ता है। दलित मुक्ति और बराबरी का हक हासिल करने के लिए राजनैतिक सत्ता को साधन बनाता है। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने सार्वजनिक जीवन में पहला कदम आबादी में हिस्सेदारी के आधार पर दलित राजनैतिक प्रतिनिधित्व के दावे के साथ बढ़ाया था। उन्होंने 1919 में विधायिका में नामांकन के आधार पर दलित प्रतिनिधित्व का विरोध किया था। राजनैतिक प्रतिनिधित्व का उनका विचार इस मकसद को हासिल करने के लिए था कि दलित निर्णय प्रक्रिया में अपनी भूमिका निभाएंगे और अपने जीवन को नारकीय स्थितियों से मुक्ति की दिशा में कदम बढ़ाएंगे।

पहली बार 1937 में अछूतों को निर्वाचित प्रतिनिधि बनने का मौका मिला। 1937 के बाद प्रतिनिधित्व की सीमित व्यवस्था में भी दलित लगातार नेतृत्व में पहुंचते रहे। राजनैतिक पार्टियों की नीतियों में दलित नेताओं को विधायिका में भेजने की बातें बढ़ती रहीं। आंबेडकरवादी वैचारिक आंदोलन भी धीरे-धीरे मजबूत होता रहा। आंबेडकर में दलितों की श्रद्धा इतनी मजबूत होती गई कि 2012 में हर मामले में सबसे अधिक अनुयायियों वाले नेता आंबेडकर ही माने गए। तब आउटलुक के जनमत सर्वेक्षण में वे आजादी के बाद महानतम नेता बताए गए।

1937 के बाद अस्सी साल के राजनैतिक सफरनामे में दलित नेतृत्व से लगातार कई मजबूत नेता उभरते रहे। लेकिन इस दौरान स्वतंत्र दलित राजनीति भी उभरी, जिसकी नींव 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी (आईएलपी) के रूप में पड़ी। यह पार्टी 1937 के बंबई प्रांतीय चुनावों में सभी आरक्षित सीटें जीत गई थी। बाद में आंबेडकर की बनाई पार्टी सिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन (एससीएफ) 1946 के चुनावों में जोगिंदरनाथ मंडल के नेतृत्व में बंगाल के अलावा कहीं खास जीत दर्ज नहीं कर पाई। एससीएफ मामूली मौजूदगी ही दर्ज करा पाई। हालांकि आंध्र, महाराष्ट्र और यूपी में कहीं-कहीं अप्रत्याशित जीत दर्ज करके चौंका दिया। एससीएफ की अगली अवतार रिपब्लिकन पार्टी टुकड़े-टुकड़े में महाराष्ट्र में ही मौजूद है।

पूना समझौते की पचासवीं वर्षगांठ पर 1982 में कांशीराम ने दलित प्रतिनिधित्व पर एक बेहद महत्वपूर्ण अध्ययन किया था और विधायिका में दलित प्रतिनिधियों को चमचा कहा था। अपनी किताब 'द चमचा एज: ऐन एरा ऑफ द स्टूजेज’ में कांशीराम ने 1946 से चुनावी आंकड़ों को खंगाला। यह महाराष्ट्र सरकार के 1979 के प्रकाशन आंबेडकर्स राइटिंग्स एंड स्पीचेज में उपलब्ध था। कांशीराम ने अपनी किताब में पूरी तरह आंबेडकर की राह पर 'चमचा युग’ के खात्मे के उपाय सुझाए। इसमें एक राजनैतिक पार्टी की स्थापना का भी प्रस्ताव था। यह राजनैतिक पार्टी उन्होंने 1984 में बनाई। 'चमचा एज’ किताब छपने के पैंतीस साल बाद उत्तर भारत में स्वतंत्र दलित राजनीति बुलंदी पर भी पहुंची और पाताल में भी पहुंची। इससे राजनैतिक पंडितों और समाज वैज्ञानिकों को गहरे से विश्लेषण करना पड़ा। स्वतंत्र राजनैतिक पार्टी के रूप में ऐसी ही कोशिशें तमिलनाडु (तिरुमावलवन और के. कृष्णस्वामी) और बिहार (रामविलास पासवान) में हुईं और महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी के विभिन्न धड़े मौजूद रहे हैं।

इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के रूप में शुरू हुई स्वतंत्र दलित राजनीति तमाम उतार-चढ़ाव के साथ 2017 में मानो वहीं ठहरी हुई है। गौरतलब है कि 1937 के बंबई असेंबली के चुनावों में कुल 13 आरक्षित सीटों में से 11 और चार सामान्य सीटों पर लडक़र तीन में जीत दर्ज करके डॉ. आंबेडकर विपक्ष के नेता बने थे। असल में भारत ने जो बहुसंख्या वाली मतदान प्रणाली अपनाई, उसमें दलित अमूमन पिछड़ जाते हैं। पूरे देश में औसत 15 प्रतिशत आबादी के साथ दलित अल्पसंख्या में ही हैं। उत्तर प्रदेश में जरूर उनकी आबादी करीब 20 प्रतिशत और पंजाब में 33 प्रतिशत के आसपास है। बाकी में सबसे आगे की चुनाव प्रणाली में जो भी सबसे अधिक वोट पाता है (चाहे उसे पचास प्रतिशत से कम ही वोट क्यों न मिला हो), निर्वाचित घोषित कर दिया जाता है। इस प्रणाली से शुरू में स्वतंत्र दलित राजनैतिक पार्टियों को लाभ पहुंचाया लेकिन बाद में इसी फार्मूले से वे हारने भी लगे। आंबेडकर ने संविधान में इसी प्रणाली का समर्थन किया। उन्होंने आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली को खारिज कर दिया, जिसके तहत वोट प्रतिशत को सीटों में बदला जाता है। जब भी कोई दलित नेता किसी राजनैतिक पार्टी का गठन करता है, उसे दूसरी पार्टियों के उलट 'दलित पार्टी’ ही कहा जाता है, भले उसका गठन साफ-साफ समता के आंबेडकरवादी एजेंडे पर किया गया हो। हालांकि दलित प्रतिनिधित्व भारतीय राजनीति और संविधान का हमेशा अभिन्न अंग बना रहेगा क्योंकि दलितों को शोषण से मुक्ति और समता हासिल करने और प्रगति के लिए अधिकार संपन्न बनाना उसके अहम उद्देश्यों में है।

दलितों को लंबे समय से यह एहसास हो गया कि उनका भविष्य पूरी तरह आंबेडकरवादी विचारधारा में ही सुरक्षित है। यही वह कसौटी है जिससे देश में हो रहे बदलावों की प्रतिगामी स्थितियों से बचा जा सके। देश में 1991 में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण से दलितों का जीवन काफी प्रभावित हुआ है। उदारीकरण के साथ सेवाओं का निजीकरण और व्यापार का भूमंडलीकरण भी आया। दिलचस्प यह है कि उदारीकरण का सबसे पहले विरोध करने वालों में दलित भी थे क्योंकि उन्हें लगा कि इससे सरकारी नौकरियों में गिरावट आ सकती है। और वही हुआ भी। 2002 में योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उदारीकरण के पहले दशक में दलित और आदिवासियों ने करीब 10,000 सरकारी नौकरियां गंवाईं। इससे न सिर्फ आरक्षित श्रेणियों में फर्क पड़ा, बल्कि सरकारी नौकरी चाहने वाले भी काफी प्रभावित हुए। अर्थव्यवस्था ने रफ्तार पकड़ी तो खुले बाजार में निजी क्षेत्र में नौकरियां ज्यादातर शहरी और अर्द्ध शहरी इलाकों में सृजित हुईं। इस तरह दलितों की एक-दूसरे क्षेत्रों में आवाजाही भी बढ़ी। उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण से नई अर्थव्यवस्था का आगाज हुआ, जिसमें दलितों को ऐसे हालात का सामना करना पड़ा, जहां भेदभाव से सुरक्षा का कोई उपाय नहीं था, न ही सकारात्मक पक्षपात का कोई नियम था।

उदारीकरण के दो दशकों में दलितों को न सिर्फ भारी भेदभाव का सामना करना पड़ा, बल्कि नौकरियों और रोजगार के नए माहौल से भी जूझना पड़ा। इन 25 वर्षों में निजी क्षेत्र की खासियत कम से कम तनख्वाहें देने की रही। यही नहीं, नौकरी बचाए रखने के लिए लगातार नई जरूरतों के अनुसार नए हुनर सीखने की दरकार रहती है। शहरी इलाकों में बढ़ती भीड़ और कम तनक्चवाहों ने राजनीति के तौर-तरीके बदल दिए। काम की अनिश्चितता और आमदनी में चौड़ी होती खाई से रोजगार गारंटी योजना जैसी नीतियों को आगे लाने का दबाव बढ़ा। उदारीकरण के असर, रोजगार सृजन, आमदनी और हुनर वृद्धि जैसे मुद्दे राजनीति में प्रभावी हो गए।

उदारीकरण के अलावा भी दलितों की रोजमर्रा की जिंदगी अप्रत्याशित अंतरविरोधों से भरी पड़ी है। 28 अप्रैल 2017 की सुर्खियों में एक बेजोड़ उपलब्धि छाई हुई थी। राजस्थान में उदयपुर के एक दलित छात्र ने दुनिया में सबसे कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं में से एक में 'पूरे दस अंक’ हासिल कर लिए थे। कल्पित वीरवाल ने जेईई (मेन) में अंक की नकारात्मक प्रणाली के बावजूद कुल 360 अंकों में 360 पाकर अप्रत्याशित सफलता पाई थी। वह दलितों के खास महत्वाकांक्षी मध्यवर्गीय परिवार से है जिसके मां-बाप तीसरे दर्जे की सरकारी नौकरी करके घर चलाते हैं। देश भर में और विदेश में रहने वाली दलित बिरादरी ने इस अनोखी उपलब्धि का जश्न मनाया। मुझे नहीं मालूम कि इस पर समूचा देश खुश हुआ या नहीं। उसी दिन उदयपुर जिले में ही झालो का ढाना गांव में दलित दूल्हे कैलाश मेघवाल को ऊंची जाति के लोगों ने बारात में घोड़ी से उतार कर बीयर की बोतलों से पीटा और सड़क पर घसीटा।

दलितों का सामना जिन व्यापक विरोधाभासों से होता है, दरअसल वही समानता के लिए आंबेडकरवादी आंदोलन की भी बड़ी चुनौती है। यह आंदोलन विशुद्ध रूप से समता स्थापित करने के लिए है, फिर भी इसे भारतीय समाज की संरचना से कोई मदद नहीं मिलती। यहां तक कि अपनी नीतियों से 1942 और फिर 1950 में हिंदू कोड बिल के जरिए महिलाओं की स्थिति सुधारने की आंबेडकर की कोशिशों को स्त्री समूहों से ही समर्थन नहीं मिला। आंबेडकर के बाद देश में नारीवादी आंदोलन के मुकाबले दलित आंदोलन कई दौर में बुलंदी तक पहुंचा। दलित आंदोलन पिछड़ी जातियों के आंदोलन से भी मजबूत हो गया और कई बार गैर-बराबरी के खिलाफ उनकी मांगों का समर्थन भी किया।

आंध्र प्रदेश में दलितों को उप-जातियों में बांटने की कोशिशों के बावजूद दलित कार्यकर्ताओं मल्लेपल्ली लक्ष्मैया और कोरिवि विनय कुमार ने एक आंदोलन चलाया कि बजट में आदिवासियों और दलितों के लिए बजट में आवंटन आबादी में उनके अनुपात के अनुसार हो। आखिर 2014 में यह कानून पारित हो गया। तेलंगाना और कर्नाटक ने भी इस कानून को अपनाया। एसडीजेएम प्रसाद जैसे दलित आंदोलन के नेताओं ने उत्पीड़न कानून में संशोधन का मजमून तैयार किया, जिससे आखिरकार 2016 में उत्पीड़न के खिलाफ दलित लड़ाई को मजबूती मिली। हालांकि दलित आंदोलन ने 1960 और 1970  के दशकों के भीम सेना और दलित पैंथर जैसे आंदोलन की उग्रता से परहेज किया। दलितों में आत्म-सम्मान के लिए आक्रामकता की तीखी प्रतिक्रिया झेलनी पड़ी। इसके नतीजे महाराष्ट्र में खैरलांजी, तमिलनाडु में लगातार उत्पीड़न की घटनाओं और हाल में उत्तर प्रदेश में देखने को मिले।

दलितों को धर्म और आस्था के मामले में भी लगातार दुविधा झेलनी पड़ती है। आंबेडकर ने 1956 में दलितों से बौद्ध धर्म फिर अपनाने का आह्वान किया लेकिन महाराष्ट्र के अलावा बहुत-से दलित उससे प्रभावित नहीं हो पाए। अलबत्ता उनके शताब्दी वर्ष 1991 में उनके इस आह्वान का व्यापक असर बौद्ध धर्म के आंदालन पर भी दिखा। सांस्कृतिक रूप से आंबेडकरवादी दलित खुद को बौद्ध धर्म के करीब पाते हैं, भले वे उसका पालन न करते हों। देश में उद्योग और कारोबार की दुनिया से लगभग नदारद दलित प्रगति और वृद्धि के लाभ से वंचित हैं।

दलित जानते हैं कि आंबेडकर के रास्ते से भटकाव उन्हें पांचवीं सदी या उससे पहले की सबसे उत्पीड़क और शोषक जाति-व्यवस्था की ओर ढकेल देगा। दलितों को यह भी एहसास है कि नौकरियों, विधायिका और शिक्षा में आरक्षण के साथ संवैधानिक सुरक्षा और उदारीकरण के दंश को कम करना उनके लिए बेहद महत्वपूर्ण है। सो, 2017 के बाद संभावना यही है कि दलित पहले से अधिक मजबूत और पक्के आंबेडकरवादी बनेंगे।

(लेखक जेएनयू के स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स में प्रोफेसर हैं)

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