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यह बहादुरी तो बना गई और बेगाना

सेना के एक मेजर के पत्थरबाजों से निबटने के तरीके से कश्मीरियों के जेहन में मानव कवच और बंधुआ बनाने की घटनाओं की याद ताजा हुई
श्रीनगर में एक कॉलेज के बाहर पत्थरबाजी करते प्रदर्शनकार‌ियों पर आंसू गैस बरसाने के बाद जवाबी पत्थर फेंकता पुल‌िसवाला

हाल में टीवी चैनलों पर सेना के मेजर लीतुल गोगोई का इंटरव्यू चल रहा था तो जम्मू-कश्मीर के एक विधायक इंजीनियर राशिद ने टीवी की आवाज बंद कर दी। बिना सुरक्षा तामझाम वाले अपने सरकारी निवास में अकेले बैठे राशिद हैरान थे कि कुलभूषण जाधव के मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय अदलत में घसीटने वाली भारत सरकार भला कश्मीर में घोर उल्लंघन पर किसी अफसर पर तोहफे कैसे बरसा सकती है।

राशिद कहते हैं, ''यह सभी कश्मीरियों के मुंह पर तमाचा है और इससे मुख्यधारा की राजनीति और हाशिए पर चली गई है।’’ उनका दावा है कि एक वक्त उन्हें भी सेना मानव कवच और बंधुआ मजदूर की तरह इस्तेमाल कर चुकी है। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता, पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी काफी खफा हैं। वे कहते हैं, ''भविष्य में कोई मिलिट्री कोर्ट ऑफ इंक्वायरी जैसे मखौल की बात न करे। अब तो सिर्फ जनता की अदालत ही कोई मायने रखती है। जेनेवा/विएना जैसी अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधियां तो सिर्फ दूसरों पर दोषारोपण के लिए ही सही हैं। उनसे हमारा क्या लेना-देना।’’ वे कश्मीर में मानव कवच की घटना पर केंद्र सरकार की काफी आलोचना कर रहे थे।

इसके पहले मानवाधिकार उल्लंघन की शिकायतों पर सेना की ओर से कोर्ट ऑफ इंक्वायरी बैठाने का वादा किया जाता था. लेकिन इस बार पुलिस और कोर्ट ऑफ इंक्वायरी में मामला लंबित होने के बावजूद सेना के मेजर को सम्मानित किया गया। इस तरह सरकारी संस्थाओं की साख भी धूल में मिला दी गई। नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रवक्ता जुनैद अजीम मट्टू की प्रतिक्रिया तो बेहद तीखी है, ''एक युद्ध अपराधी, एक निरा कायर को हीरो की तरह सम्मानित होता देख गांधी जी अपनी समाधि में जरूर करवट बदल रहे होंगे। मानव कवच बनाने में भला कौन-सी बहादुरी है।’’

मानवाधिकार कार्यकर्ता परवेज इमरोज के मुताबिक ''मेजर का यह सम्मान और राष्ट्रीय नेताओं और राष्ट्रीय मीडिया में 'पीठ थपथपाने’ का सिलसिला बताता है कि देश कैसे बदल रहा है। इमरोज कहते हैं, कांग्रेस के राज में इससे भी बदतरीन घटनाएं हुईं लेकिन कांग्रेस ने कभी वाहवाही नहीं की क्योंकि वह संवेदनशील देश की छवि पेश करती थी।’’ हालांकि मेजर गोगोई के सम्मान जैसी घटनाओं पर देश में उदारवादी विचारों के लोग चिंता जाहिर करते हैं। लेकिन इमरोज का कहना है कि उनकी भी चिंता की वजह सिर्फ यह है कि देश की छवि का क्या होगा। वे कहते हैं, ''उदारवादियों को भी कश्मीरियों के साथ कोई खास सहानुभूति नहीं है।’’

यह पहली दफा नहीं है कि सेना ने कश्मीर में मानव कवच का इस्तेमाल किया। इंजीनियर राशिद के मुताबिक 1989 से 2003 तक आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में उत्तरी कश्मीर में सेना और पुलिस लगातार मानव कवच का इस्तेमाल करती रही है, जिसकी खबरें कम ही सुर्खियों में आईं। सीमावर्ती कुपवाड़ा जिले के लंगेट क्षेत्र के मवार गांव के रहने वाले राशिद 2008 से लगातार विधायक हैं। वे बताते हैं कि उन्हें 1997 में सेना ने आतंकवादियों के साथ गोलीबारी में मानव कवच की तरह इस्तेमाल किया था।

लेकिन वे एक फर्क यह बताते हैं कि 1997 में लोग गोलीबारी की आवाज सुनकर अपने घरों में सुरक्षित चले जाते थे, अब वे सडक़ पर पत्थर के साथ उतर आते हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि आज आतंकवादियों के लिए हालात ज्यादा माकूल होते जा रहे हैं। फिलहाल अनुमान यह है कि आज आतंकवादियों की तादाद महज 200 है जबकि 1997 में उनकी संख्या 10,000 के करीब आंकी गई थी।

दरअसल आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों के खिलाफ स्थानीय लोगों का स्वत:स्फूर्त सड़कों पर निकल आना 2008 में शुरू हुआ। उस साल 1990 के दशक के लंबे अंतराल के बाद प्रदर्शनों की शुरुआत हो गई थी। सेना और पुलिस को प्रदर्शनकारियों पर काबू पाने के लिए फायरिंग और पैलेट गन का इस्तेमाल करना पड़ा था। 2008 में करीब 60 लोगों की मौत हुई थी। उसके दो साल बाद 2010 में माछिल फर्जी मुठभेड़ के बाद फिर प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया था। उस दौरान भी करीब 112 लोगों की मौत हो गई थी।

पिछले साल हिज्बुल मुजाहिदीन के कथित कमांडर 22 वर्षीय बुरहान वानी की सेना से मुठभेड़ में मौत के बाद प्रदर्शनों का फिर सिलसिला शुरू हो गया। तब से शुरू हुए स्वत:स्फूर्त प्रदर्शनों में करीब 90 लोग मारे जा चुके हैं और 1,500 से अधिक लोग घायल हो चुके हैं। नौजवानों के सीधे सड़कों पर उतर आने और सेना और अर्द्धसैनिक बलों पर पत्थर बरसाने की घटनाओं ने स्कूली छात्राओं में पत्थर उठा लेने का जज्बा भर दिया। शायद इन बेखौफ प्रदर्शनों ने ही गांव वालों को भी सेना की आतंक-विरोधी अभियानों के खिलाफ बाहर निकल आने को प्रोत्साहित किया, जो 1990 के दशक में भी नहीं देखा गया था।

वैसे, लंगेट के विधायक राशिद यह भी बताते हैं कि सेना 1997 में बंधक भी बनाती रही है और वह उनसे सड़क के अवरोध भी हटवाया करती थी। राशिद ने इसकी शिकायत राज्य मानवाधिकार आयोग से भी की थी। इसलिए 53 राष्ट्रीय राइफल्स के मेजर गोगोई का नया कारनामा कोई अजूबा या पहली दफा नहीं है। लेकिन पहली दफा यह है कि मेजर ने अपने बचाव में प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया। गोगोई के मुताबिक नौ अप्रैल को बडगाम में उपचुनाव के दौरान उटलीगाम मतदान केंद्र से आइटीबीपी के जवानों की ओर से खबर आई कि उन्हें करीब हजार लोगों की भीड़ ने घेर लिया है। हम वहां पहुंचे तो पाया कि महिलाएं-बच्चे भी पथराव कर रहे हैं। तभी बगल में खड़े फारूक अहमद डार पर मेरी नजर पड़ी। हमने उसे पकड़ा। हम मतदान केंद्र की ओर बढ़े और मतदान पार्टी और आइटीबीपी जवानों को बाहर निकाला। हम लौटने लगे तो गाड़ी कीचड़ में फंस गई और चारों ओर से पत्थरों की बरसात होने लगी तब हमने डार को बोनट पर बांधने का फैसला किया और ऐसा करके वहां से निकले।

गोगोई ने बेशक लोगों की जान बचाई हो सकती है लेकिन डार का सवाल है कि इसमें 'बहादुरी’ कहां है? वे कहते हैं, ''एक फौजी अफसर ने वीडियो भी बनाया और कहा कि यह तेरा अब्बा देखेगा।’’ डार के अब्बा का इंतकाल साल भर पहले हो चुका है।

बहरहाल, इस घटना ने कश्मीर में अलगाव की भावना को और बढ़ाया है। वादी के हालात सुधरने के आसार अभी नजर नहीं आते।

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