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कॉलेज की डिग्री बड़े काम की

माध्यमिक नहीं, उच्चतर शिक्षा में समग्र विकास ही दे सकता है भारत की प्रगति को ज्यादा रफ्तार
ड‌िग्री हास‌िल करने के बाद छात्र

पिछले 15 साल के दौरान दुनिया भर में उच्चतर शिक्षा में दाखिले में 60 फीसदी बढ़ोतरी के चलते भारी इजाफा दिखा है। भारत में तो इसमें भारी नाटकीय बदलाव दिखा है। इसमें लगभग तीन गुने की अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है। 2000-01 में 84 लाख छात्रों से यह संख्या बढ़कर 2013-14 में दो करोड़ 38 लाख तक पहुंच गई। उच्चतर शिक्षा संस्थानों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। देवेश कपूर और प्रताप मेहता की मानें तो इस अवधि में भारत में हर रोज करीब सात कॉलेज खुले हैं। विश्व बैंक के अध्ययन से पता चलता है कि आज छात्र पेशेवर शिक्षा को अधिक पसंद करते हैं। 2008 में उच्चतर शिक्षा के केवल 25 फीसदी छात्रों ने ही तकनीकी शिक्षा का विकल्प चुना। लेकिन अब इन पाठ्यक्रमों में करीब 50 फीसदी छात्र दाखिला ले रहे हैं। सबसे बढ़कर भारत में उच्चतर शिक्षा के लिए ज्यादातर छात्र गैर-सहायता प्राप्त निजी कॉलेजों का रुख करते हैं। पिछले दशकों में उच्चतर शिक्षा में दाखिले समाज के सभी आय वर्गों और जातिगत समूहों से लगभग एक समान होने लगे हैं। हालांकि यह आंकड़ा क्षेत्रवार और लैंगिक श्रेणियों में उस कदर बराबर नहीं हो पाया है। इसका कम सकारात्मक पक्ष यह है कि शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर मिलाजुला है और शिकायतें ये भी हैं कि बाजार की बदलती जरूरतों के लिहाज से रोजगार के लिए मौजूदा शिक्षा कितनी प्रासंगिक है।

इस मामले में भारत अकेला नहीं है। तेजी से बढ़ते उच्चतर शिक्षा में दाखिलों से दूसरे देशों में भी ऐसी ही समस्याएं देखने को मिल रही हैं, जो भारत में दिख रही हैं। ये समस्याएं हैं पढ़ाई और रोजगार लायक हुनर हासिल करने का कमतर स्तर, शोध के कम अवसर और सीमित नवाचार वगैरह।

भारत में पढ़ाई और रोजगार लायक हुनर में अड़चनों के तीन प्रमुख कारण हैं। कॉलेज शिक्षा के लिए छात्रों की निम्न स्तर की तैयारी, अध्यापकों का भारी अभाव और संस्थानों की स्वायत्तता की कमी। सरकारी पहल के चलते माध्यमिक की पढ़ाई पूरी करने वाले छात्रों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है लेकिन इनमें ज्यादातर कॉलेज की पढ़ाई के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हैं। बड़े स्तर पर हुनर की कमी, निम्न स्तर की शैक्षणिक तैयारी, भाषा की अपर्याप्त जानकारी, सामाजिक और मानसिक तैयारी जैसी समस्याओं को दूर करना जरूरी है। दूसरे, सरकारी इंजीनियिरिंग कॉलेजों की फैकल्टी में औसतन 40 से 50 फीसदी तक पद रिक्त हो सकते हैं। अमूमन कॉलेज गेस्ट फैकल्टी से इस कमी की भरपाई गेस्ट फैकल्टी से करते हैं लेकिन कई जाने-माने कॉलेज में भी छात्रों को नियमित शिक्षक नहीं मिल पाते। तीसरे, सरकारी कॉलेजों और राज्य विश्वविद्यालयों से संबद्ध निजी कॉलेजों को स्वायत्तता नहीं है। इसका मतलब यह है कि लक्ष्य और प्राथमिकता तय करने, फैकल्टी की नियुक्तियों और शोध प्राथमिकताओं को तय करने, पाठ्यक्रम तैयार करने, परीक्षा की सामग्री और कार्यक्रम बनाने वगैरह में उनकी भूमिका कम रहती है। छात्र क्या सीखें, इसमें थोड़ा बदलाव करने के बाद भी ये कॉलेज छात्रों को उस तरह तैयार नहीं कर पाते, जिस दक्षता की बदलते उद्योग में जरूरत है।

इसके साथ ही कई कॉलेजों में शोध करने के लिए बहुत कम संसाधन हैं। गैर-सरकारी कॉलेज-बड़े पैमाने पर कार्यक्षेत्र बढ़ाने में निवेश करते हैं बजाय शोध में पैसा खर्च करने के। उनसे जुड़े विश्वविद्यालय भी शायद ही संस्थानों को सहयोग के लिए प्रेरित करते हैं। इसके साथ ही अन्य देशों की तुलना में भारतीय उद्योग तकनीकी संस्थानों में आर.एंड डी. में कम पैसा खर्च करते हैं क्योंकि वे बौद्धिक संपदा अधिकारों पर अमल करने से बचते हैं। इसके चलते छात्रों को फैकल्टी में बदलने के अवसर कम ही मिल पाते हैं।

लेकिन, बदलाव पहुंच के अंदर है। उदाहरण के लिए. भारत और विश्व बैंक ने टेक्निकल एजुकेशन क्वॉलिटी इंप्रूवमेंट प्रोजेक्ट (टीईक्यूआईपी) के तहत करीब 15 साल के लिए अनुबंध किया है। इसका मकसद तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार है। इसके सहभागी कॉलेज को अपने अकादमिक और गैर-अकादमिक कार्यक्रमों को विकसित करने में मदद मिली, ताकि छात्रों की रोजगार योग्यता में सुधार लाया जा सके। रुद्राक्ष मित्रा का एक अध्ययन बताता है कि टीईक्यूआईपी से सहायता प्राप्त कॉलेजों में प्लेसमेंट सेल की स्थापना के बाद छात्रों की रोजगारपरक क्षमता और उद्योगों के लिए उनकी उपयोगिता बढ़ी है। इसके अलावा छात्रों को व्यावहारिक कौशल जैसे वक्तृत्व शैली, टीम भावना, समय प्रबंधन के गुर सिखाए गए। छात्रों की कमियों की पहचान करके उसमें सुधार के उपाय बताए जाते हैं। इसमें प्री-प्लेसमेंट परीक्षाएं, समूह चर्चा और साक्षात्कार सत्रों के जरिए जानकारी दी जाती है।

इसके साथ टीईक्यूआईपी के कालेजों के स्वायत्तता में भी इजाफे की संभावना रहती है। जैसा कि देखा गया है कि आईआईटी और आईआईएम के सहयोग से शोध और नवीनतम क्षमताओं को सुधारने में मदद मिली है। टीईक्यूआईपी के तीसरे चरण में राज्य विश्वविद्यालयों से जुड़े निजी कॉलेजों को मदद मिलती है। केवल तकनीकी शिक्षा में ही निवेश पर्याप्त नहीं है। उन्नत अर्थव्यवस्था के लिए केवल डॉक्टर या इंजीनियर की ही जरूरत नहीं होती, इसके लिए शिक्षकों, प्रशासकों, सामाजिक वैज्ञानिकों, वकीलों, इतिहासकारों और दार्शनिकों को भी तैयार करना जरूरी है। भारत में समग्र विकास के लिए उच्चतर शिक्षा में प्रगति ही व्यावहारिक और जरूरी उपाय है। सरकार, नियोक्ताओं और समाज में यह आम राय है कि उच्चतर शिक्षा में सुधार देश के मानव संसाधन के लिए जरूरी है और भविष्य में विकास के लिए देश को मानव पूंजी के तौर पर पेश करने की जरूरत है।

(मार्मोलेजो और बेतिल विश्व बैंक के अर्थशास्त्री हैं)

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