इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे कई छात्र इन दिनों चेन्नई के नए फिल्म स्कूलों में पहुंच रहे हैं। यहां इन्हें एरिफ्लेक्स कैमरों पर हाथ आजमाते या पटकथा लिखते देखा जा सकता है। चेन्नई के प्राइवेट फिल्म संस्थान सिनेमा में कॅरियर बनाने की इच्छा रखने वाले इंजीनियरिंग के स्नातक या बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों के लिए पसंदीदा स्थान बन गए हैं। एल.वी. प्रसाद फिल्म एंड टीवी एकेडमी के पूर्व निदेशक के. हरिहरन कहते हैं, ''फिल्म स्कूल पिछले एक दशक से दक्षिण भारतीय सिनेमा की नई प्रतिभाओं को तैयार करने के केंद्र बन गए हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने आए थे पर इससे विमुख हो कर यहां आए हैं।’’ इससे यह साफ होता है कि कैसे अभिभावक अपने बच्चों की इच्छा के विपरीत इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए भेजते हैं। अभिभावकों के दबाव और परीक्षा में सफल होने के बाद भी (कभी-कभी पास करने लायक ग्रेड लाकर) अधिकांश स्नातक वहीं अपना कॅरियर चुन रहे हैं जहां वे जाना चाहते हैं।
23 साल के जी.जनकराज को कंप्यूटर साइंस में बीटेक पूरा करने का इंतजार था। जैसे ही उसने डिग्री हासिल की वैसे ही फिल्म निर्माता और लेखक जी. धनंजयन द्वारा स्थापित ब्ल्यू ओशन फिल्म एंड टेलीविजन एकेडमी (बोफ्टा) में दाखिला ले लिया। यहां से निर्देशन में एक साल का डिप्लोमा करने के बाद वह हिट फिल्म साखुरंगा वेट्टाई के सीक्वल में बतौर सह निर्देशक काम कर रहा है। जनकराज कहता है, ''मैं इंजीनियरिंग से पूरी तरह नहीं कटा। यह मेरे अभिभावकों की इच्छा थी इसीलिए मैंने मन मसोस कर इस कोर्स में नाम लिखाया।’’ वह कहता है, ''कोर्स पूरा करते ही मैंने बोफ्टा में नाम लिखाया और सिनेमा की दुनिया में प्रवेश कर गया। यह वही जगह है जहां मैं जाना चाहता था। अगले साल मेरी योजना खुद के फिल्म को निर्देशित करने की है। मैं भले ही अच्छा वेतन नहीं पा रहा हूं पर अपना किराया, खाना, आने-जाने का खर्च पूरा कर ले रहा हूं। मैं अपने साथ पढ़ने वाले उन लोगों से अच्छी स्थिति में हूं जो बिना नौकरी के घर बैठे हैं।’’
बाबू विजय की कहानी तो अलग ही है। उसने उसी दिन निर्देशक बनने का फैसला कर लिया जब उसने तमिल फिल्म रामना देखी। इस फिल्म के निर्देशक गजनी और थुप्पाक्की (हिंदी में हॉली डे) जैसी हिट फिल्म देने वाले ए. आर मुरुगदास थे। यह 2002 का समय था, लेकिन तब विजय पर अपने पारिवारिक निर्माण (कंस्ट्रक्शन) के धंधे पर ध्यान देना था। इस कारण पहले उसने बीटेक, फिर एमटेक और आखिर में एमबीए किया। जब सब कुछ सही हो गया तब उसने अपना व्यवसाय पत्नी और मित्र को सौंप फिल्म की बारीकियां जानने के लिए बोफ्टा के निर्देशन के कोर्स में दाखिला लिया। 35 साल की उम्र, विवाह के 12 साल बीतने और दो बच्चों के पिता बनने के बाद विजय ने अपने सपनों को पूरा करने के लिए मुरुगदास के सहायक निर्देशक के रूप में काम शुरू किया। विजय कहते हैं, ''मुरुगदास को जब इस बात की जानकारी हुई कि मैं इस क्षेत्र में आने के लिए कितना उत्सुक था, इसके लिए मैंने क्या सपने संजोए थे और मैंने कितना इंतजार किया है तो उन्होंने बिना किसी संकोच के मुझे अपने साथ ले लिया। मेरी पत्नी और मेरे अभिभावक जानते हैं कि यह मेरा सपना है और मैंने अपने परिवार को चलाने की पूरी व्यवस्था कर दी है। मेरा अगला कदम अपने निर्देशक के आशीर्वाद से अपनी फिल्म का निर्देशन करना होगा।’’ एल.वी. प्रसाद एकेडमी, बोफ्टा और सिनेमैटोग्राफर-निर्देशक राजीव मेनन की माइंड स्क्रीन जैसी संस्थाएं ऐसे सपनों को हकीकत में बदलने में लगी हैं। माइंड स्क्रीन फिल्म इंस्टीट्यूट के डीन एम.एन. गणशेखरन बताते हैं, ''हम अपने यहां इस तरह से प्रशिक्षण देते हैं कि जब छात्र इस फील्ड में उतरें तो वे आसानी से सफलता हासिल कर सकें।’’
पिछली पीढ़ी के हरिहरन और राजीव मेनन के लिए सरकार द्वारा संचालित फिल्म संस्थानों में नाम लिखाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इन संस्थाओं की नामांकन प्रक्रिया जटिल थी और यहां का सिलेबस बोझिल था। इसके विपरीत नए जमाने के फिल्म स्कूल आधुनिक फिल्म निर्माण की सुविधाओं से भरे हैं। यहां के कोर्सों में विविधता है। एल.वी. प्रसाद में दो साल का पीजी डिप्लोमा है तो बोफ्टा में एक साल चलने वाला कोर्स, जबकि माइंड स्क्रीन में छह महीने का कोर्स है। पहले दो में शॉर्ट टर्म और सप्ताहांत में चलने वाले पार्ट टाइम कोर्स भी उपलब्ध हैं। इससे पता चलता है कि ये संस्थान उत्सुक पीढ़ी की जरूरतों का कितना ध्यान रखते हैं।
बोफ्टा के संस्थापक धनंजयन कहते हैं, ''डॉक्टर और डेंटिस्ट हमारे सप्ताहांत कोर्सों के लिए आते हैं। ये यहां सीखना चाहते हैं और इनकी इच्छा होती है कि वे कम से कम एक या दो लघु फिल्म बनाएं। हमारे संस्थान के प्रशिक्षण की सबसे बड़ी खासियत यह है कि प्रमुख निर्देशक, सिनेमैटोग्राफर, संपादक और अभिनेता यहां आते हैं। वे यहां छात्रों को तकनीक बताने के अलावा छोटी कहानियों पर चर्चा भी करते हैं।’’ इतना ही नहीं, वकील भी फिल्मी दुनिया में आ रहे हैं। चार साल तक वकालत की प्रैक्टिस करने के बाद गौतम रामचंद्रन में अपना इरादा बदल लिया और फिल्मी दुनिया में भाग्य आजमाने का फैसला किया। गौतम कहते हैं, ''मैंने उधार लेकर माइंड स्क्रीन में निदेशक और स्क्रीन राइटिंग कोर्स में नाम लिखाया। इसके बाद नामी तमिल निर्देशक मिस्सकिन से पांच साल तक प्रशिक्षण लिया। अब मैं निवीन पॉली की दूसरी तमिल फिल्म रिचि का निर्देशन कर रहा हूं।’’
इन प्राइवेट फिल्म संस्थानों के आकर्षण का सबसे बड़ा कारण यहां प्रशिक्षण के लिए उपलब्ध सुविधाएं हैं। एल.वी. प्रसाद फिल्म एकेडमी में छात्र वास्तविक एडिटिंग सूइट में पढ़ते हैं। यह एकेडमी चूंकि नामी प्रसाद स्टूडियो में स्थित है इस कारण छात्र वास्तविक शूटिंग देखते हैं और साउंड मिक्सिंग की तकनीक सीखते हैं। यहां के एक फैकल्टी कहते हैं, ''संस्थान में वास्तविक सेट पर शूटिंग की जाती है, असली कैमरों का इस्तेमाल होता है और फिल्म निर्माण की पूरी तकनीक बताई जाती है।’’ विजुअल कम्युनिकेशन में स्नातक पूरा करने वाले एस. अरविंद बताते हैं, ''हमारे बैच के कई छात्र भाग कर प्रसाद स्टूडियो में इलायाराजा की रिकॉर्डिंग देखने चले जाते थे।’’
माइंड स्क्रीन के गणशेखरन बताते हैं, ''सिनेमैटोग्राफी के छात्र उन्हीं कैमरों से सीखते हैं जो फिल्म निर्माण के लिए काम में लाए जाते हैं। कुछ संस्थान डीएसएलआर कैमरों का इस्तेमाल करते हैं। हमारे संस्थान में डिजिटल फोटोग्राफी सिखाने के प्रारंभिक दौर में इसका इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन जब सिनेमैटोग्राफी सिखाने की बात आती है तो हम न तो उपकरण से समझौता करते हैं, न ही प्रशिक्षण से।’’ एंग्री इंडियन गॉडेस और न्यूटन जैसी बॉलीवुड की फिल्मों के सिनेमैटोग्राफर रहे स्वप्निल सोनावाने ने अपने सिनेमैटोग्राफी के गुरु बॉबी सिंह के कहने पर माइंड स्क्रीन के राजीव मेनन से ट्रेनिंग ली थी। वह कहते हैं, ''सिनेमैटोग्राफर द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में ही फिल्मांकन की सही ट्रेनिंग दी जा सकती है। मेरे लिए माइंड स्क्रीन में जाना 26 साल की उम्र में फिर से स्कूल लौटने जैसा था। यहां जो पाठ्यक्रम हैं वह बदलते तकनीक के अनुसार हैं। इस कारण यहां हमें आधुनिकतम कैमरे और लेंस के इस्तेमाल करने का मौका मिला। मैं गणित में अच्छा नहीं हूं पर यहां के विशेषज्ञों ने मेरा भ्रम दूर किया और मैं बिना किसी झिझक के इसे अपने काम में इस्तेमाल करने लगा।’’
अवार्ड विजेता निदेशक एम. माणिकनंदन ने भी सिनेमैटोग्राफी सीखने के लिए माइंड स्क्रीन में प्रवेश लिया। वे पहले ही कैमरा असिस्टेंट के रूप में काम कर चुके थे। वह कहते हैं, ''यहां आने से पहले मैं कुशलतापूर्वक कैमरा चला लेता था। लेकिन कैमरे से कहानी कैसे कही जाए यहां आने पर सीखा। माइंड स्क्रीन में मिली ट्रेनिंग की झलक काका मुत्तई (क्रोज एग) फिल्म के हर फ्रेम में देखने को मिलेगी।’’
बोफ्टा में हर क्लास रूम में ऐसी सुविधा है जिससे छात्र केंद्रीय सर्वर से फिल्म ले सकते हैं। यहां प्रीव्यू थिएटर भी है जहां छात्र अपनी लघु फिल्म बना सकते हैं। तमिल सिनेमा के केंद्र में स्थित कोडमबक्कम में बने इस संस्थान की चार मंजिली इमारत में एक छत के नीचे फिल्म निर्माण से जुड़ी सारी सुविधाएं मौजूद हैं। धनंजयन स्वीकार करते हैं कि यहां खर्च ज्यादा लगता है पर छात्रों को इंजीनियरिंग कॉलेज या विजुअल कम्युनिकेशन कोर्स से ज्यादा तथ्यात्मक ज्ञान दिया जाता है। वह कहते हैं, ''विजुअल कम्युनिकेशन के अधिकांश छात्रों को थ्योरी की तो जानकारी रहती है पर उनके पास प्रैक्टिकल ज्ञान का अभाव रहता है। ऐसे में यदि किसी को फिल्म निर्माण के बारे में कुछ भी सीखना हो तो उन्हें वैसे ही संस्थान सही जानकारी दे सकते हैं जो फिल्म निर्माण में लगे हों।’’
इन संस्थानों के लिए एक अन्य सकारात्मक बात यह है कि यहां हर कोर्स में छात्रों की संख्या सीमित होती है। किसी क्लास में शायद ही यह संख्या 20 से ज्यादा होती है। इसका कारण यह है कि संस्थान हर छात्र पर व्यक्तिगत तौर पर ध्यान रखते हैं। यहां प्रवेश की प्रक्रिया कठिन तो होती है पर इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि छात्र के अंदर योग्यता कितनी है। माइंड स्क्रीन के गणशेखरन बताते हैं, ''एक बार एक युवा इंटरव्यू में आया। वह अपनी बात भरोसे से नहीं रख पाता था। मगर वह जानता था कि वह क्या चाहता है और उसके जवाब सटीक थे। राजीव और मैंने तत्काल उसकी प्रतिभा को पहचाना और उसके नामांकन का फैसला किया। वह एक शांत छात्र था पर जो चीज पढ़ाई जाती थी उसे पूरी तरह से ग्रहण करता था। परीक्षा में यह लड़का टॉप करता है। यह छात्र और कोई नहीं बल्कि बाहुबली का ऑपरेटिंग कैमरामैन राम मूर्ति है।’’
प्राइवेट स्कूलों द्वारा शार्ट टर्म कोर्सों की तुलना में सरकार द्वारा संचालित एमजीआर फिल्म इंस्टीट्यूट कम खर्चे में चार साल का डिग्री कोर्स चलाता है। लेकिन यह स्टाफ की कमी से जूझ रहा है। यहां चार साल के सिनेमैटोग्राफर के कोर्स के लिए मात्र एक लेक्चरर है। यहां के एक फैकल्टी स्वीकार करते हैं, ''हमारे यहां भले ही उपकरण हों पर मानव संसाधन के मामले में स्थिति भयावह है।’’ 70 साल पुराने इस संस्थान में स्टाफ की कमी के कारण स्थिति यह है कि यहां हर कोर्स में छात्रों की संख्या 15 से बढ़ाना कठिन है।
ऐसा होने पर भी, हरिहरन फिल्म के छात्रों के लिए चेतावनी भी देते हैं। वह कहते हैं, ''फिल्म उद्योग जिस अनिश्चितता से परेशान है उसकी जानकारी इन्हें नहीं है। जिस तरह बेरोजगार इंजीनियरों की बड़ी संख्या है उसी तरह बिना पैसे के या कम पैसे पर काम करने वाले सहायक निर्देशकों की भी बड़ी संख्या है। ये भी अपने अनिश्चित भविष्य की ओर टकटकी लगा कर देख रहे हैं। इस फील्ड में कई साल बिताने के बाद भी उनकी ड्रीम फिल्म किनारे पर बैठी है। उद्योग को और संगठित होने के अलावा इसका निगमीकरण भी जरूरी है, नहीं तो होनहार छात्र बर्बाद होते रहेंगे।’’ वह इस बात को लेकर आशान्वित हैं कि नेटफ्लिक्स, अमेजन और हॉलीवुड के प्रोडक्शन हाउस ने उन छात्रों के लिए नए अवसर उपलब्ध कराए हैं जिन्होंने इन फिल्म स्कूलों में पैसा और समय लगाया है।